हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 183 – “जंजीर पिता जी की…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत  जंजीर पिता जी की...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 183 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “जंजीर पिता जी की...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

टँगी रही पश्चिमी भींट,

तस्वीर पिता जी की ।

बची हुई हुई थी वही यहाँ,

जागीर पिता जी की ॥

 

बेटा संध्या समय रोज

परनाम ‘  किया करता ।

अगरबत्तियाँ चौखट में

था खोंस दिया करता।

 

बहू देख मुँह बिदकाती थी

मरे ससुर जी को –

समझ नहीं पायी थी जो,

तासीर पिता जी की ॥

 

तनिक देर से हुआ युद्ध

लेकिन भर पूर हुआ ।

सास बहू के चिन्तन में

ज्यों चढ़ आया महुआ ।

 

उन दोनों के विकट युद्ध में

आखिर यही हुआ –

टूट फूट कर विखर गयी

तस्वीर पिता जी की ॥

 

बेटा, टुकड़ों को सहेज

कर सुबुक रहा ऐसे ।

दोबारा मर गये पिता जी

जीवित हो जैसे ।

 

बेटे की यह हालत देख

कहा करते हैं सब –

एक सूत्र में बाँधे थी,

जंजीर पिता जी की ॥

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

22-03-2024

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈