हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 229 ☆ व्यंग्य – ख़ुदगर्ज़ लोग ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय व्यंग्य – ख़ुदगर्ज़ लोग। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 229 ☆

☆ व्यंग्य –  ख़ुदगर्ज़ लोग

वह आदमी सहमता, सकुचता मंत्री जी के बंगले में घुसा। भीतर पहुँचा तो देखा, लंबे चौड़े लॉन में बीस पच्चीस लोग इधर उधर आँखें मूँदे या आँखों पर बाँह धरे पड़े हैं। लगता था जैसे बीस पच्चीस लाशें बिछी हों। पास ही दो एंबुलेंस खड़ी थीं। उनमें से एक में दो लोगों को डंगाडोली बनाकर धरा जा रहा था।

आदमी उन ज़िन्दा लाशों के बगल से गुज़रा तो उनमें से एक ने आँखों पर से बाँह हटाकर उसे घूरा, फिर पूछा, ‘कौन हो भैया? कहाँ जा रहे हो?’

आदमी बहुत नम्रता से बोला, ‘मंत्री जी से मिलना था। वे हमें जानते हैं।’

ज़मीन पर लेटा आदमी बोला, ‘ज़रुर जानते होंगे, लेकिन अभी वे किसी से नहीं मिलेंगे। अभी वे शोककक्ष में हैं। ब्लड प्रेशर चेक करने के लिए डॉक्टर को चुप्पे-चुप्पे बुलाया है। विरोधी पार्टी वालों को मंत्री जी की तबियत पता नहीं लगना चाहिए।’

आगन्तुक  वहीं रुक गया। पूछा, ‘क्या हो गया मंत्री जी को?’

लेटा हुआ आदमी उठ कर बैठ गया। बोला, ‘वही राजरोग है। जो पार्टी हमें सपोर्ट कर रही थी उसने समर्थन वापस ले लिया है। राज्यपाल जी को लिखकर दे दिया है। बेईमानों से और क्या उम्मीद करेंगे? अब हमारी सरकार गिरी ही समझो। इसीलिए हम सब मंत्री जी के समर्थक ग़म में डूबे यहाँ बेसुध पड़े हैं। जब मंत्री जी पद पर नहीं रहेंगे तो हमारा क्या होगा? हमें कौन पूछेगा? अँधेरे के सिवा कुछ नहीं दिखता है। आप किस लिए आये थे?’

आगन्तुक बोला, ‘बेटे ने साल भर पहले पटवारी की परीक्षा पास की थी। अभी तक नियुक्ति पत्र नहीं मिला।’

बैठा हुआ आदमी व्यंग्य से बोला, ‘आप लोग, भैया, बड़े स्वार्थी हो। आपको अपना अपना दिखता है, हमारी परेशानी नहीं दिखती। वही नौकरी और मँहगाई का रोना। जरा सोचो, भैया जी मंत्री नहीं रहे तो हमारा क्या होगा? हमारे पास भैया जी की सेवा के सिवा कौन सा रोजगार है? कौन सा मुँह लेकर घर जाएँ?’

आगन्तुक दुखी स्वर में बोला, ‘बड़ी परेशानी है। बेटा चौबीस घंटे टेंशन में रहता है। क्या करें?’

बैठा हुआ आदमी क्रोधित हो गया, बोला, ‘बस अपनी ढपली, अपना राग। हम यहाँ इतनी बड़ी परेशानी में पड़े हैं और आप अपना बेसुरा राग अलापे जा रहे हैं। गज़ब की खुदगर्ज़ी है,भई। क्या आपका दुख हमारे दुख से बड़ा है? ये जो इतने लोग यहाँ बेहाल पड़े हैं इनका दुख आपको दिखाई नहीं देता? अब आप यहांँ से तशरीफ ले जाएँ। आप जैसे खुदगर्ज़ लोगों के कारण ही हमारे देश की जगहँसाई होती है। शर्म आनी चाहिए आपको। ‘

आगन्तुक, सोच में डूबा, धीरे-धीरे बंगले से बाहर हो गया

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈