हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #218 ☆ मैं और तुम का झमेला… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख मैं और तुम का झमेला। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 218 ☆

मैं और तुम का झमेला... ☆

‘जिंदगी मैं और तुम का झमेला है/ जबकि सत्य यह है/ कि यह जग चौरासी का फेरा है/ और यहां कुछ भी ना तेरा, ना मेरा है/ संसार मिथ्या, देह नश्वर/ समझ ना पाया इंसान/ यहाँ सिर्फ़ मैं, मैं और मैं का डेरा है।” जी हाँ– यही है सत्य ज़िंदगी का। इंसान जन्म-जन्मांतर तक ‘तेरा-मेरा’ और ‘मैं और तुम’ के विषैले चक्रव्यूह में उलझा रहता है, जिसका मूल कारण है अहं– जो हमारा सबसे बड़ा शत्रु है। इसके इर्द-गिर्द हमारी ज़िंदगी चक्करघिन्नी की भांति निरंतर घूमती रहती है।

‘मैं’ अर्थात् सर्वश्रेष्ठता का भाव उक्त भेद-विभेद का मूल कारण है। यह मानव को एक-दूसरे से अलग-थलग करता है। हमारे अंतर्मन में कटुता व क्रोध के भावों का बीजवपन करता है; स्व-पर व राग-द्वेष की सोच को हवा देता है –जो सभी रोगों का जनक है। ‘मैं ‘ के कारण पारस्परिक स्नेह व सौहार्द के भावों का अस्तित्व नहीं रहता, क्योंकि यह उन्हें लील जाता है, जिसके एवज़ में हृदय में ईर्ष्या-द्वेष के भाव पनपने लगते हैं और मानव इस मकड़जाल में उलझ कर रह जाता है; जो जन्म-जन्मांतर तक चलता है। इतना ही नहीं, हम उसे सहर्ष धरोहर-सम सहेज-संजोकर रखते हैं और यह सिलसिला पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपनी सत्ता काबिज़ किए रहता है। इसका खामियाज़ा आगामी पीढ़ियों को भुगतना पड़ता है, जबकि इसमें उनका लेशमात्र भी योगदान नहीं होता।

‘दादा बोये, पोता खाय’ आपने यह मुहावरा तो सुना ही होगा और आप इसके सकारात्मक पक्ष के प्रभाव से भी अवगत होंगे कि यदि हम एक पेड़ लगाते हैं, तो वह लंबे समय तक फल प्रदान करता है और उसकी कई पीढ़ियां उसके फलों को ग्रहण कर आह्लादित व आनंदित होती हैं। सो! मानव के अच्छे कर्म अपना प्रभाव अवश्य दर्शाते हैं, जिसका फल हमारे आत्मजों को अवश्य प्राप्त होता है। इसके विपरीत यदि आप किसी ग़लत काम में लिप्त पाए जाते हैं, तो आपके माता-पिता ही नहीं; आपके दोस्त, सुहृद, परिजनों आदि सबको इसका परिणाम भुगतना पड़ता है और उसके बच्चों तक तो उस मानसिक यंत्रणा को झेलना पड़ता है। उसके संबंधी व परिवारजन समाज के आरोप-प्रत्यारोपों व कटु आक्षेपों से मुक्त नहीं हो पाते, बल्कि वे तो हर पल स्वयं को सवालों के कटघरे में खड़ा पाते हैं। परिणामत: संसार के लोग उन्हें हेय दृष्टि व हिक़ारत भरी नज़रों से देखते हैं।

‘कोयला होई ना ऊजरा, सौ मन साबुन लाई’ कबीरदास जी का यह दोहा उन पर सही घटित होता है, जो ग़लत संगति में पड़ जाते हैं। वे अभागे निरंतर दलदल में धंसते चले जाते हैं और लाख चाहने पर भी उससे मुक्त नहीं पाते, जैसे कोयले को घिस-घिस कर धोने पर भी उसका रंग सफेद नहीं होता। उसी प्रकार मानव के चरित्र पर एक बार दाग़ लग जाने के पश्चात् उसे आजीवन आरोप-आक्षेप व व्यंग्य-बाणों से आहत होना पड़ता है। वैसे तो जहाँ धुआँ होता है, वहाँ चिंगारी का होना निश्चित् है और अक्सर यह तथ्य स्वीकारा जाता है कि उसने जीवन में पाप-कर्म किए होंगे, जिनकी सज़ा वह भुगत रहा है। ‘कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना’ से तात्पर्य है कि लोगों के पास कुछ तो वजह होती है। परंतु कई बार उनकी बातों का सिर-पैर नहीं होता, वे बेवजह होती हैं, परंतु वे उनके जीवन में सुनामी लाने में कारग़र सिद्ध होती हैं और मानव के लिए उनसे मुक्ति पाना असंभव होता है। इसलिए मानव को अहंनिष्ठता के भाव को तज सदैव समभाव से जीना चाहिए।

‘अगुणहि सगुणहि नहीं कछु भेदा’ अर्थात् निर्गुण व सगुण ब्रह्म के दो रूप हैं, परंतु उनमें भेद नहीं है। प्रभु ने सबको समान बनाया है–फिर यह भेदभाव व ऊँच-नीच क्यों? वास्तव में इसी में निहित है– मैं और तुम का भाव। यही है मैं अर्थात् अहंभाव, जो मानव को अर्श से फ़र्श पर ले आता है। यह मानवता का विरोधी है और सृष्टि में तहलक़ा मचाने का सामर्थ्य रखता है। कबीरदास जी का दोहा ‘नैना अंतर आव तू, नैन झांप तोहे लेहुं/ ना हौं  देखूं और को, ना तुझ देखन देहुं’ में परमात्म-दर्शन पाने के पश्चात् मैं और तुम का द्वैतभाव समाप्त हो जाता है और तादात्म्य हो जाता है। जहाँ ‘मैं’नहीं, वहाँ प्रभु होता है और जहाँ प्रभु होता है, वहाँ ‘मैं’ नहीं होता अर्थात् वे दोनों एक स्थान पर नहीं रह सकते। सो! उसे हर जगह सृष्टि-नियंता की झलक दिखाई पड़ती है। इसलिए हमें हर कार्य स्वांत: सुखाय करना चाहिए। आत्म-संतोष के लिए किया गया कार्य सर्व-हिताय व सर्व-स्वीकार्य होता है। इसका अपेक्षा-उपेक्षा से कोई सरोकार नहीं होता और वह सबसे सर्वश्रेष्ठ, सर्वोपरि व सर्वमान्य होता है। उसमें न तो आत्मश्लाघा होती है; न ही परनिंदा का स्थान होता है और वह राग-द्वेष से भी कोसों दूर होता है। ऐसी स्थिति में नानक की भांति मानव में केवल तेरा-तेरा का भाव शेष रह जाता है, जहाँ केवल आत्म- समर्पण होता है; अहंनिष्ठता नहीं। सो! शरणागति में ‘सर्वे भवंतु सुखीनाम्’ का भाव व्याप्त होता है, जो उन सब झमेलों से श्रेष्ठ होता है। दूसरे शब्दों में यही समर्पण भाव है और सुख-शांति पाने की राह है।

नश्वर संसार में सभी संबंध स्वार्थ पर आधारित हैं। इसलिए यहां स्पर्द्धा नहीं, ईर्ष्या व राग-द्वेष का साम्राज्य है। मानव को काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार को त्यागने का संदेश दिया गया है। यह मानव के सबसे बड़े शत्रु हैं, जो उसे चैन की साँस नहीं लेने देते। इस आपाधापी भरे युग में मानव आजीवन सुक़ून की तलाश में मृग-सम इत-उत भटकता रहता है, परंतु उसकी तलाश सदैव अधूरी रहती है, क्योंकि कस्तूरी तो उसकी नाभि में निहित होती है और वह बावरा उसे पाने के लिए भागते-भागते अपने प्राणों की बलि चढ़ा देता है।

‘जीओ और जीने दो’ महात्मा बुद्ध के इस सिद्धांत को आत्मसात् करते हुए हम अपने हृदय में प्राणी मात्र के प्रति करुणा भाव जाग्रत करें। करुणा संवेदनशीलता का पर्याय है, जो हमें प्रकृति के प्राणी जगत् से अलग करता है। जब मानव इस तथ्य से अवगत हो जाता है कि ‘यह किराये का मकान है, कौन कब तक ठहर पाएगा’ अर्थात् वह इस संसार में खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ ही लौट जाना है। इसलिए मानव के लिए संसार में धन-दौलत का संचय व संग्रह करना बेमानी है। उसे देने में विश्वास रखना चाहिए, क्योंकि जो हम देते हैं, वही लौटकर हमारे पास आता है। सो! उसे विवाद में नहीं, संवाद में विश्वास रखना चाहिए और जीवन में मतभेद भले हों, मनभेद होने वाज़िब नहीं हैं, क्योंकि यह ऐसी दीवार व दरारें हैं, जिन्हें पाटना अकल्पनीय है; सर्वथा असंभव है।

यदि हम समर्पण व त्याग में विश्वास रखते हैं, तो जीवन में कभी भी कोई समस्या उत्पन्न नहीं हो सकती। एक साँस लेने के लिए मानव को पहली सांस को छोड़ना पड़ता है, इसलिए संचय करने का प्रश्न ही कहाँ उठता है? इसका स्पष्ट प्रमाण है कि ‘कफ़न में भी जेब नहीं होती।’ यह शाश्वत् सत्य है कि सत्कर्म ही जन्म-जन्मांतर तक मानव का पीछा करते हैं और ‘शुभ कर्मण ते कबहुँ न टरौं’ भी उक्त भाव को पुष्ट करते हैं कि ‘प्रभु सिमरन कर ले बंदे! यही तेरे साथ जाएगा’, वरना वह लख चौरासी के भँवर से कभी भी मुक्त नहीं हो पाएगा। इस मिथ्या संसार से मुक्ति पाने का एकमात्र साधन उस परमात्म-सत्ता में विश्वास रखना है। ‘मोहे तो एक भरोसो राम’ और ‘कब रे! मिलोगे राम/ यह दिल पुकारे तुम्हें सुबहोशाम’ आदि स्वरचित गीतों में अगाध विश्वास व आत्म-समर्पण का भाव ही है, जो मैं और तुम के भाव को मिटाने का सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम साधन है। यह मानव को जीते जी मुक्ति पाने की राह पर अग्रसर करता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈