हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 210 ☆ कहानी – दावत — ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय कहानी ‘दावत—‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 210 ☆
☆ कहानी – दावत- 

नन्दू के कमरे में कुछ दिनों से रौनक है। लोगों का आना-जाना बना रहता है। बाहर बोर्ड लटक रहा है— ‘जयकुमार फैंस क्लब’। जयकुमार मशहूर क्रिकेट खिलाड़ी है और नन्दू स्थानीय जयकुमार फैंस क्लब का अध्यक्ष है। एक तरह से वह क्लब का आजीवन अध्यक्ष है क्योंकि क्लब का सूत्रधार वही है। जयकुमार के लिए उसकी दीवानगी इंतहा से परे है। टीवी पर जयकुमार के दर्शन से ही वह धन्य हो जाता है।

कमरे में घुसते ही सब तरफ जयकुमार की बहार दिखती है। सब तरफ विभिन्न मुद्राओं में जय कुमार के फोटो हैं। चार फोटो नन्दू के साथ हैं जिनमें नन्दू गद्गद दिखायी पड़ता है। जयकुमार का एक लंबा-चौड़ा पोस्टर ठीक नन्दू की कुर्सी के पीछे है। दफ्तर में घुसने पर सबसे पहले नन्दू पोस्टर को प्रणाम करता है, फिर अगरबत्ती जलाकर उसके चारों तरफ घुमाता है। इसके बाद ही दफ्तर का कामकाज शुरू होता है। उसके क्लब में पन्द्रह बीस सदस्य हैं जो उसी की तरह क्रिकेट के दीवाने हैं। जयकुमार का मैच देश में कहीं भी हो, नन्दू दो चार दोस्तों के साथ ज़रूर देखने पहुँचता है। जयकुमार के क्रिकेट के सारे रिकॉर्ड उसकी ज़बान पर हैं। पूछने पर कंप्यूटर की तरह फटाफट आँकड़े फेंकता है।

जयकुमार फैंस क्लब हर साल धूमधाम से अपने हीरो का जन्मदिन मनाता है। कोई और जगह नहीं मिलती तो नन्दू के मकान की छत पर ही इन्तज़ाम हो जाता है। गाने-बजाने के अलावा पास की झोपड़पट्टी के पचीस-तीस लड़कों को भोजन कराया जाता है। नन्दू सदस्यों के अलावा आसपास के लोगों से कुछ चन्दा बटोर लेता है। शहर में क्रिकेट-प्रेमियों की संख्या अच्छी ख़ासी है, उनसे भी सहयोग मिल जाता है।

अभी आठ दिन बाद जयकुमार का जन्मदिन है, इसलिए दफ्तर में चहल-पहल है। नन्दू बेहद व्यस्त है। कार्यक्रम बनाने के अलावा दावत में बुलाये जाने वाले लड़कों को सूचित करना है। अखबारों में इस आयोजन की सूचना देनी है। आयोजन के बाद फिर फोटो और रिपोर्ट छपवानी होगी, जिसकी एक कॉपी जयकुमार को भेजी जाएगी। यह सब ठीक से निपटाने के लिए अखबारों के रिपोर्टरों को बुलाना होगा।

नन्दू के लिए झोपड़पट्टी के लड़कों को बुलाना मुश्किल काम है। एक बुलाओ तो दस लपकते हैं। इसलिए उसने झोपड़पट्टी में अपना ठेकेदार नियुक्त कर दिया है जो पलक झपकते लड़कों का इन्तज़ाम कर देता है और कोई हल्ला- गुल्ला या बदइंतज़ामी नहीं हो पाती।

ठेकेदार दम्मू है। अभी लड़का ही है। आठवीं तक किसी तरह स्कूल में सिर मारने के बाद घर में बैठ गया है। लेकिन है चन्ट, इसलिए लोगों के संकट-निवारण के पचासों काम हाथ में लिये रहता है। आदमी अक्लमंद हो तो काम और दाम की कमी नहीं रहती। चुनाव के वक्त दम्मू की व्यस्तता बढ़ जाती है। हर चुनाव में वह अच्छी कमाई कर लेता है।

दम्मू के पास झोपड़पट्टी के लड़कों की लिस्ट है जो उसके बुलाने पर हाज़िर हो जाते हैं, चाहे वह कहीं ड्यूटी करने का काम हो या भोजन करने का। जयकुमार के जन्मदिन की खबर फैलते ही लड़के दम्मू के आसपास मंडराने लगे हैं और दम्मू का रुतबा बढ़ गया है। वह अपनी छोटी सी नोटबुक में लड़कों के नाम जोड़ता-काटता रहता है। अक्सर किसी लड़के को सुनने को मिलता है— ‘अपनी शकल देखी है आइने में? कितने दिन से नहीं नहाया? वहाँ सबके सामने मेरी नाक कटवायेगा? बालों और कपड़ों की हालत देखो। कल बाल कटवा कर और ढंग के कपड़े पहन कर आना, तब सोचूँगा।’ लड़का शर्मिन्दा होकर खिसक लेता है। चौबीस घंटे बाद कपड़े-लत्ते ठीक कर फिर इंटरव्यू के लिए हाज़िर हो जाता है।

झोपड़पट्टी में सुरिन्दर भी रहता है। बारहवीं का छात्र है। पढ़ाई-लिखाई में अच्छा है। दम्मू उस पर मेहरबान रहता है। कहीं भोजन- पानी का जुगाड़ हो तो लिस्ट में सुरिन्दर को ज़रूर शामिल कर लेता है। सुरिन्दर को भी मज़ा आता है। घर में जो भोजन नसीब नहीं हो पाता वह बाहर मिल जाता है।

सुरिन्दर के पिता प्राइवेट फैक्टरी में मुलाज़िम हैं। तनख्वाह इतनी कि किसी तरह गुज़र-बसर हो जाती है। बाज़ार की चमकती हुई चीजों को बच्चों तक पहुँचाना उनके लिए कठिन है। हीनता और असमर्थता की भावना हमेशा जकड़े रहती है। उन्हें पसन्द नहीं कि उनका बेटा खाने-पीने के लिए इधर-उधर जाए, लेकिन सुरिन्दर उन्हें निरुत्तर कर देता है। कहता है, ‘पापा, इसमें हर्ज क्या है? सब तरह की चीजें खाने को मिल जाती हैं—पिज़्ज़ा, बर्गर,चाइनीज़ और चाहे जितनी आइसक्रीम। नो लिमिट। घर में तो ज्यादा से ज्यादा पराठा-सब्जी। खाते खाते बोर हो जाते हैं।’

पिता को जवाब नहीं सूझता। बाज़ार में भोजन की चीज़ों की विविधता बढ़ने के साथ निर्बल पिताओं की मुसीबत भी बढ़ रही है। घर का सामान्य भोजन अखाद्य हो गया है।

जन्मदिन की शाम दम्मू लड़कों की लिस्ट के साथ नन्दू के घर पर डट गया। कहीं कोई अवांछित लड़का शामिल न हो जाए। लड़कों का नाम बुलाकर नोटबुक में टिक लगाया जाता है। एक तरफ उन लड़कों का छोटा सा झुंड है जो दम्मू की लिस्ट में नहीं हैं। उनकी आँखों में उम्मीद है कि शायद लिस्ट का कोई लड़का हाज़िर न हो और उनकी किस्मत खुल जाए।

नन्दू का घर रंग-बिरंगे बल्बों से सजा है। कार्यक्रम ऊपर छत पर है। क्रिकेट के एक पुराने खिलाड़ी मुख्य अतिथि हैं। मुहल्ले के तीन चार गणमान्य लोग भी हैं। बाकी क्लब के सदस्य हैं।

कार्यक्रम शुरू होता है तो जन्मदिन का केक कटता है। सामने जयकुमार का फोटो है। ‘हैपी बर्थडे टु यू’ गाया जाता है। एक लोकल आर्केस्ट्रा भी बुलाया गया है।

क्लब के सचिव के प्रतिवेतन के बाद मुख्य अतिथि का भाषण हुआ। मुख्य अतिथि क्रिकेट के अपने दिनों की यादों में खो गये। भाषण लंबा खिंचा तो भोजन करने आये लड़के कसमसाने लगे। मुख्य अतिथि के भाषण के बाद अन्य अतिथियों के द्वारा क्लब को आशीर्वाद और शुभकामना देने का सिलसिला चला। फिर क्लब के अध्यक्ष के द्वारा कृतज्ञता-ज्ञापन। इसके बाद आर्केस्ट्रा शुरू हो गया जो एक घंटे तक चला। भोजनातुर लड़कों का धीरज छूट गया। आर्केस्ट्रा की धुनें कर्कश लगने लगीं। जैसे तैसे भोजन की नौबत आयी,लेकिन भोजन सामग्री की विविधता और प्रचुरता ने सारे गिले-शिकवे दूर कर दिये।

सुरिन्दर लौटकर घर में घुसा तो पिता सामने ही बैठे थे। उसे देखकर व्यंग्य से बोले, ‘हो गया मुफ्त का भोजन? मज़ा आया?’

सुरिन्दर सोफे पर पसर कर पेट पर हाथ फेरता हुआ बोला, ‘बहुत मजा आया पापा।’ फिर थोड़ी देर आँखें मूँदे रहने के बाद बोला, ‘पापा, दरअसल अब हमारा स्टैंडर्ड ऊँचा हो गया है। पिज़्ज़ा बर्गर के सिवा कुछ अच्छा लगता ही नहीं। ऐसे ही बीच-बीच में दावतें मिलती रहें तो काम चलता रहेगा।’

पिता उसके मुँह की तरफ देखते बैठे रहे।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈