हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 44 – देश-परदेश – आतुरता ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 44 ☆ देश-परदेश – आतुरता ☆ श्री राकेश कुमार ☆

अति आतुर या व्याकुल होना ,एक रोग ही माना जाता था। दैनिक जीवन में प्रतिदिन अनेक बार इसका आभास होना साधारण सी बात है। पहले ऐसा कहा जाता था कि वृद्ध होने पर ही इंसान आतुर हो जाता है। वर्तमान में तो  बच्चे और युवा सभी इस रोग से पीड़ित है। सभी को शीघ्रता है,शायद प्रलय आने ही वाली है।   

आज कल सभी हाथ में मोबाइल लिए हुए रहते है। आदर के साथ झुकी हुई गर्दन, आँखें मोबाइल के स्क्रीन में अंदर तक घुसी हुई, मन बेचैन सा किसी नए msg की प्रतीक्षा में ही रहता है। अल सुबह सर्वप्रथम मोबाइल को प्रणाम कर दिन का शुभारंभ हो जाता है। जब शुरुआत ही बेचैनी से होगी तो पूरा दिन भी उसी प्रकार का होगा।  

कुछ दिन पूर्व एक हस्त-निर्मित  बेकरी से खरीदारी कर रहा था, तो घोड़े (स्कूटी) पर सवार आदरणीय महिला ने वही से अपने सामान की जानकारी/ भाव इत्यादि की फेहरिस्त जारी कर दी। इस प्रकार के लघु इकाइयां निर्माण कार्य में तो दक्ष होते हैं,परंतु विक्रय कला में महारत नहीं हासिल कर पाते हैं। दुकानदार हमारा काम छोड़, महिला की सेवा में लग गया। महिला ने बताया की टीवी सीरियल का समय निकल जायेगा इसलिए वह व्याकुल हो रही है। शायद उनके प्रिय सीरियल का पुनः प्रसारण नहीं होता है और ना ही उनके पास नई तकनीक का टीवी सेट है, जो पसंदीदा कार्यक्रम को सुरक्षित रख लेता है।

आज अपोलो दवा की दुकान से अपने जीवित रहने की दवा खरीदने के लिए डॉक्टर का पर्चा वहां कार्यरत व्यक्ति को दिया, तभी एक सज्जन दूर खड़ी कार की खिड़की से कुतुर के समान अपनी थूथनी बाहर निकाल कर abc को उल्ट पलट कर दवा का नाम लेकर उसकी उपलब्धता, भाव, एक्सपायरी की तारीख, दो हज़ार के छुट्टे आदि पूरी जानकारी चाहने लगे। उनके पास कार से बाहर आकर बातचीत करने का समय नहीं था। टीवी पर शाम को होने वाली कुत्तों की बहस का समय हो चला था। इस प्रकार की कॉर्पोरेट की दुकानें डिस्काउंट तो अच्छा दे देती है, परन्तु अन्य पुश्तैनी दवा दुकानदारों की तरह व्यवहार कुशल नहीं होते हैं। एक और युवती भी जल्दी से आई और बोली मुझे सिर्फ बता देवें की फलां दवा दुकान में है, या नहीं ?

इस प्रकार की व्याकुलता बैंक ग्राहकों में भी रहती है, लंबी लाइन में भी नियम विरुद्ध किनारे से आकर बोलते है, सिर्फ खाते में बैलेंस की जानकारी लेनी है। वो बात अलग है, बैलेंस के नाम से वो अपनी बैलेंस शीट में लगने वाली बैंक की पूरी जानकारी प्राप्त कर लेते हैं। लाइन में इंतजार कर रहे अन्य व्यक्तियों के समय हानि को दरकिनार कर अपना उल्लू सीधा करने में रहते हैं।                               

क्या अतुरता, सब हम सब के स्वभाव का हिस्सा तो नहीं बन गया है। सहजता, धैर्य, सुकून आदि जैसा व्यवहार अब कहानियों तक ही सीमित रह जायेगा।

 © श्री राकेश कुमार

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈