हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 148 – गीत – कुछ कहना है… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण गीत – कुछ कहना है।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 148 – गीत – कुछ कहना है…  ✍

सोच रहा कुछ कहना है

याद नहीं कुछ कहना है

कुछ कहना है, कुछ कहना है।

 

विमल चाँदनी तरु शिखरों के

अधरों पर झुक आई है

बूढ़ा पीपल बिस्मिल्ला सी

बजा रहा शहनाई है

वातावरण पुलक भरता है, क्या कहना है।

 

कोलाहल की आँख लगी है

सन्नाटे की सुध खोई

हौले से फिर बजी चूड़ियाँ

जाग रहा शायद कोई।

चाहे जितनीं रहें बंदिशें, हमें सभी कुछ सहना है।

 

भले ज़िन्दगी जाग गई हो

मन की गति तो ठहरी है

पनघट पर घट जुड़ते जाते

लगती प्रीत कचहरी है।

भागों में ठहराव कहाँ है, बहना है बस बहना है।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈