हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #194 ☆ व्यंग्य – साहित्यिक ‘ब्यौहार’ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘साहित्यिक ‘ब्यौहार’’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 194 ☆

☆ व्यंग्य ☆  साहित्यिक ‘ब्यौहार’

शीतल बाबू परेशान हैं। चार दिन से उनके पुराने मित्र बनवारी बाबू उनका फोन नहीं उठा रहे हैं। वे बार-बार लगाते हैं, लेकिन उधर से कोई तत्काल काट देता है। पहले रोज़ दोनों मित्रों की बातचीत होती थी। अब बात के लाले पड़ रहे हैं। बनवारी बाबू इतने पास भी नहीं रहते कि दौड़ कर पहुँच जाया जाए। चार-पाँच किलोमीटर दूर रहते हैं।

लाचार शीतल बाबू ने पत्नी के मोबाइल से फोन लगाया। उधर से बनवारी बाबू की आवाज़ सुनायी पड़ी, ‘हैलो, कौन?’

शीतल बाबू बोले, ‘मैं शीतल। कहाँ हो भैया? फोन लगा लगा कर परेशान हैं।’

उधर से रूखा जवाब आया, ‘यहीं हैं। कहाँ जाएँगे?’

शीतल बाबू बोले, ‘क्या बात है? फोन क्यों बार-बार कट रहा है?’

जवाब मिला, ‘आप हमसे ब्यौहार ही नहीं रखना चाहते हैं तो बात करके क्या करेंगे?’

शीतल बाबू घबराकर बोले, ‘कैसा ब्यौहार? कौन से ब्यौहार की बात कर रहे हो?’

बनवारी बाबू बोले, ‘ऐसा ब्यौहार कि पिछले एक साल में हमने फेसबुक पर 1730 पोस्ट मय फोटो के डाली, लेकिन आपने सिर्फ 1460 में ही लाइक या कमेंट दिया। आपने साल भर में 246 पोस्ट डाली, उसमें से हमने 223 में लाइक या कमेंट दिया। हम तो आपका नाम देखते ही लाइक का बटन दबा देते हैं, पढ़ें चाहे न पढ़ें। अब आप ऐसा ब्यौहार रखेंगे तो कैसे चलेगा? शादी-ब्याह के ब्यौहार की तरह फेसबुक में भी ब्यौहार रखना पड़ता है, तभी संबंध चल सकते हैं।’

शीतल बाबू रिरिया कर बोले, ‘गलती हो गई भैया। कई बार पोस्ट दिखायी नहीं पड़ती।’

जवाब मिला, ‘देखोगे तो सब दिखायी पड़ेगा। जिन खोजा तिन पाइयाँ। खोजोगे तो सब मिल जाएगा।’

शीतल बाबू पश्चाताप के स्वर में बोले, ‘आगे खयाल रखूँगा, भैया। अब चूक नहीं होगी।’

बनवारी बाबू का स्वर मुलायम हो गया। बोले, ‘भैया, लगता है आप लाइक और कमेंट का महत्व और असर नहीं समझते। फेसबुक में लिखने वालों के लिए लाइक और अनुकूल कमेंट के डोज़ संजीवनी से कम नहीं होते। आलोचना और उपेक्षा के मारे हुए लेखक को ये अवसाद और हार्ट अटैक से बचाते हैं। ये वैसे ही काम करते हैं जैसे हार्ट अटैक से बचने के लिए सॉर्बिट्रेट और एस्पिरिन काम करते हैं। सुना है कि मेडिकल काउंसिल लाइक और कमेंट को मैटीरिया-मेडिका यानी औषधियों की सूची में शामिल करने की सोच रही है। ये फेसबुक-लेखक के लिए वेंटिलेटर से ज़्यादा ऑक्सीजन देने वाले हैं।’

बनवारी बाबू आगे बोले, ‘भैया, लाइक और कमेंट की अहमियत समझो। जिस भाग्यशाली लेखक को भरपूर लाइक्स और आल्हादकारी कमेंट्स मिलते हैं वह हमेशा प्रसन्न और उत्साहित बना रहता है। उसका स्वास्थ्य उत्तम  रहता है और अनिद्रा का रोग उसे कभी नहीं सताता। ब्लड प्रेशर और नाड़ी की गति दुरुस्त रहते हैं और पाचन क्रिया बढ़िया काम करती है। उसे दुनिया हमेशा खूबसूरत नज़र आती है। जीवन और जगत में आस्था बनी रहती है। उसके परिवार में हमेशा सुख-शान्ति रहती है। प्राणिमात्र के लिए उसके मन में प्रेम का भाव उमड़ता है।

‘इसके विपरीत लाइक और  अनुकूल कमेंट से वंचित लेखक बार-बार डिप्रेशन, अनिद्रा और निराशा का शिकार होता है। जीवन और जगत से उसकी आस्था उठ जाती है। परिवार में कलह होती है। मित्रों-रिश्तेदारों से संबंधों में उसकी रुचि जाती रहती है। ऐसा लेखक राह चलते लोगों से रार लेता है। उसे सारे समय व्यर्थता-बोध घेरे रहता है।

‘इसलिए भैया, लाइक और कमेंट देने में चूक को मित्र के साथ घात समझो। आजकल संबंधों को ठंडा करने में यही चीज़ सबसे बड़ा कारण बनती है। संबंधों को पुख्ता रखना है तो मुक्तहस्त से लाइक और कमेंट देने में कभी चूक मत करना, वर्ना पचीसों साल के बनाये संबंध  एक मिनट में ध्वस्त हो जाएँगे।’

शीतल बाबू यह प्रवचन सुनकर भीगे स्वर में बोले, ‘समझ गया, भैया। आगे सब काम छोड़कर पहले आप को लाइक और कमेंट दूँगा। पीछे जो हुआ उसे मेरी नासमझी मान कर भूल जाएँ।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈