हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 135 – “आँखों की कोरों से…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆
श्री राघवेंद्र तिवारी
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत “आँखों की कोरों से…”)
☆ आँखों की कोरों से… ☆
मौसम ने बदल दिये
मायने आषाढ़ के
ओट में खड़े कहते
पेड़ कुछ पहाड़ के
आँखों की कोरों से
चुई एक बूँद जहाँ
गहरे तक सीमायें
थमी रहीं वहाँ वहाँ
ज्यों कि राज महिषी फिर
देख देख स्वर्ण रेख
सच सम्हाल पाती क्या लिये हुये एक टेक
सहलाया करती है
दूब को झरोखे से
ऐसे ही दकन के
या पश्चिमी निमाड़ के
शंकित हिरनी जैसे
दूर हो गई दल से
काँपने लगी काया
काम के हिमाचल से
गंध पास आती है
कान में बताती है
लगता है साजन तक
पहुँच गई पाती है
सोचती खड़ी सहसा
सोनीपत पानीपत
अपने हाथों से फिर
देखती उघाड़ के
© श्री राघवेन्द्र तिवारी
25-02-2021
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