हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 128 ☆ साध्य और साधन ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “साध्य और साधन। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 128 ☆

☆ साध्य और साधन ☆ 

एक – एक कदम चलते रहने से कई कदम जुड़ने लगते हैं। स्वाभाविक है कि जब अच्छे उद्देश्य  को लेकर कोई यात्रा हो तो परिणाम सुखद होंगे।कहते हैं कि केवल किताबी ज्ञान से कुछ नहीं होगा जब तक धरातल पर उतरकर उसे जीवन की प्रयोगशाला में सिद्ध न किया जाए। सनातन धर्म में यही खूबी है कि सब कुछ वैज्ञानिकता की  कसौटी पर कसा जा चुका है, ये बात अलग है  कि पश्चिमी विज्ञान उसे आज मान्यता दे रहा है। हमारे यहाँ तो नदियों की पंचकोशी परिक्रमा का भी अनुष्ठान होता है। नर्मदा नदी की तो सम्पूर्ण परिक्रमा की जाती है। हरियाली से भरा परिवेश, जन – जीवन- जंगल- जमीन से जुड़कर जनमानस एक दूसरे का सहयोग करना सीख जाता है। नर्मदा किनारे बसे गाँवो के लोग अन्न क्षेत्र का निर्माण करते हैं। सामान्य परिवार भी किसी परिक्रमा वासी को भूखा नहीं रहने देते। आज के समय में जब लोग पाई- पाई का हिसाब रखते हैं तब भी कुछ स्थान ऐसे हैं जो खुले दिल से सम्मान करना और कराना जानते हैं।

यही तो यात्रियों और यात्राओं की खूबी है कि वो हर परिस्थिति, जलवायु में जीना जानते हैं। जो आनन्द पैदल चलने में है वो वाहन की सवारी में नहीं, लोग जब आपसे मिलने आते हों तो विशिष्टता का अहसास होता है और यही जीने की वजह बन जाता है। ऐसे में लक्ष्य को साधना सरल लगने लगता है। हाथों में हाथ लेकर  चलते हुए मन ये कहने लगता है अब मंजिल दूर नहीं।

सब कुछ सहजता से मिल सकता है बस नियत सच्ची होनी चाहिए। बिना योग्य हुए यदि मंजिल तक पहुँच भी गए तो भी वहाँ टिक नहीं सकते हैं। जब तक मनुष्य का सर्वांगीण विकास नहीं होगा तब तक  पाना- खोना चलता रहेगा। सबको साथ लेने की कला बहुत जरूरी होती है,जब तक मानव मन की समझ नहीं होगी तब तक साध्य असाध्य रोग की तरह पीछा करता रहेगा।

खैर चलते हुए लोग, उड़ते हुए पंछी, तैरती हुई मछली, हरा- भरा जंगल, कल- कल करती नदियाँ अच्छी लगतीं हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈