हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #143 ☆ सन्तोष के नीति दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  “सन्तोष के नीति दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 143 ☆

 ☆ सन्तोष के नीति दोहे ☆ श्री संतोष नेमा ☆

पूँजीवादी दौर में, दिखतीं दो ही जात

अमीर-गरीब इसी की, सामाजिक सौगात

 

जीवन के किस मोड़ पर, हो जीवन का अंत

इसे न कोई जानता, कहें श्रेष्ठजन, संत

 

चलती दुनिया देखकर, चलो समय के साथ

चूक करे जो भी जरा, पकड़े खुद फिर माथ

 

बोलने के पूर्व करें, चिंतन मनन विचार

पछताना न पड़े कभी, हो ऐसा व्यवहार

 

जाति-पाँति अरु धर्म में, बाँटा सकल समाज

नफरत चढ़ कर बोलती, प्रेम मौन है आज

 

भोजन संयत कीजिये, और करें नित योग

होगा तन-मन स्वस्थ तब, दूर भगेंगे रोग

 

मात-पिता की बात को, कभी न टालें आप

इनके प्रति अनुराग से, मिटें जगत के ताप

 

कथनी करनी में नहीं, रखें कभी भी भेद

दृढ़ता रखें विचार में, हो न बाद में खेद

 

स्वार्थ भरे इस दौर में, झूठ पसारे पाँव

रिश्ते भी अब रिस रहे, सत्य खोजता ठाँव

 

कलियुग में “संतोष” अब, मतलब के सब यार

झूठी लगती दोस्ती, झूठा लगता प्यार

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈