हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #124 ☆ व्यंग्य – देर आयद, दुरुस्त— ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘देर आयद, दुरुस्त—  ’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 124 ☆

☆ व्यंग्य – देर आयद, दुरुस्त—   

सबेरे सबेरे शीतल भाई का फोन बजा। देखा तो कोई नंबर था। पूछा, ‘हलो, कौन बोल रहा है?’

उधर कोई रो रहा था। शीतल भाई घबराये, पूछा, ‘कौन हो भाई? क्या बात है?’

रोने के बीच में जवाब मिला, ‘हम जबलपुर से प्रीतम लाल जी के बेटे बोल रहे हैं। पिताजी आज सबेरे शान्त हो गये। आपको बहुत याद करते थे। बताते थे कि आप उनके साथ पढ़े हैं। उनके मोबाइल में आपका नंबर मिला।’

शीतल भाई दुखी हुए। बेटे को सांत्वना दी। बोले, ‘बहुत अफसोस हुआ। हम स्कूल में साथ पढ़े थे। महीने दो महीने में उनका फोन आ जाता था। भले आदमी थे। मैं जल्दी आकर आप लोगों से मिलूँगा।’

शीतल भाई इन्दौर के रहने वाले। हिसाबी-किताबी आदमी थे, पक्के व्यापारी। भावुकता में पड़कर कहाँ जबलपुर जाएँ? दो चार हजार खर्च हो जाएँगे। बात आयी गयी हो गयी।

पाँच छः माह बाद संयोग से शीतल भाई का जबलपुर जाने का मुहूर्त बन गया। एक पार्टी के पास पैसा फँसा था, उसे निकालना था। सोचा, अच्छा है, गंगा की गंगा, सिराजपुर की हाट हो जाए।

एक सबेरे जबलपुर में प्रीतम लाल जी के परिवार के लोगों को दुआरे पर किसी के ज़ोर ज़ोर से रोने की आवाज़ सुनायी पड़ी। परिवार के सदस्य घबरा गये। देखा तो एक आदमी हाथ में पकड़े फोटो पर नज़र जमाये ज़ोर-ज़ोर से विलाप कर रहा था। पूछने पर पता चला कि ये स्वर्गीय प्रीतम लाल जी के सहपाठी शीतल भाई थे जो, देर से ही सही, मित्र के लिए अपना दुख प्रकट करने आये थे।

शीतल बाबू सादर घर में ले जाए गये। नाश्ता हुआ। फिर वे अपने हाथ का ग्रुप फोटो दिखा दिखा कर अपने और अपने दोस्त के किस्से सुनाते रहे।

नाश्ता करने के बाद बोले, ‘भैया, आप लोगों से मिल कर दिल को बड़ी शान्ति मिली। जब से प्रीतम के स्वर्गवास का सुना तभी से जी कलप रहा था। उनकी याद बराबर आती है। आप लोग मिले तो लगा प्रीतम मिल गये। अब आज आप लोगों के साथ ही रहूँगा। आपसे मिलने के लिए ही आया था।’

शीतल भाई मातमी मुद्रा में वहाँ बैठे रहे। दोपहर को वहीं भोजन किया, फिर वहीं चैन की नींद सो गये। शाम को उस पार्टी की खोज में निकल गये जिससे वसूली करनी थी। वहाँ से लौट कर रात को फिर दोस्त के बेटों के साथ बैठकर प्रीतम लाल जी के साथ अपनी यादों के पिटारे की तहें खोलने में लग गये। बेटे भी शिष्टतावश उनकी भावुकतापूर्ण बातों में रुचि दिखाते रहे।

दूसरे दिन सबेरे शीतल भाई ने अपने दिवंगत मित्र के बेटों को छाती से लगाया, फिर मित्र की पत्नी के सामने तौलिए से आँखें पोंछीं। रुँधे स्वर से बोले, ‘आज यहाँ आकर मन को कितनी शान्ति मिली, बता नहीं सकता। प्रीतम तो चौबीस घंटे यादों में बसे रहते हैं। कभी बिसरते नहीं। कभी मेरी जरूरत पड़े तो याद कीजिएगा। आधी रात को दौड़ा आऊँगा।’

दिवंगत दोस्त के प्रति मातमपुर्सी की औपचारिकता पूरी करके शीतल भाई,संतुष्ट, अपने शहर के लिए रवाना हो गये।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈