हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 216 ☆ कथा कहानी – कबाड़ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है ममता की पराकाष्ठा प्रदर्शित करती एक सार्थक कहानी ‘कबाड़’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 216 ☆

☆ कहानी – कबाड़ 

चन्दन माता-पिता को गाँव से शहर ले आया है। वे अभी तक गाँव में ही थे। अभी तक छोटे भाई की पढ़ाई की वजह से गाँव में रहना ज़रूरी था। अब वह मजबूरी ख़त्म हो गयी है। भाई कंप्यूटर की डिग्री लेकर पुणे में एक कंपनी में नौकरी पा गया है। अब माँ-बाप को वक्त ही काटना है।

चन्दन सरकारी कॉलेज से बी.ई. की डिग्री लेकर विद्युत मंडल में सहायक इंजीनियर के पद पर नियुक्त हो गया था। पिता सन्तराम की आर्थिक स्थिति कमज़ोर थी। गाँव की दस बारह एकड़ ज़मीन के बूते दो बेटों की पढ़ाई कैसे हो सकती थी। भद्रलोक में गिनती होने के कारण खुद हल की मुठिया नहीं थाम सकते थे। मज़दूरों के भरोसे ही खेती होती थी, इसलिए हाथ में कम ही आता था।

स्कूल की पढ़ाई खत्म कर चन्दन बी.ई.  की प्रवेश-परीक्षा में बैठा था। जब परिणाम आया और वह पास हुआ तो वह खुशी से पागल हो गया, लेकिन सुसमाचार के बावजूद पिता का मुँह उतर गया। शहर में रहने का खर्च और फिर इंजीनियरिंग की पढ़ाई। कैसे व्यवस्था होगी?

लेकिन उनकी पत्नी मज़बूत थी। उन्होंने फैसला सुना दिया कि बेटे की पढ़ाई तो होगी, दिक्कतों का सामना किया जाएगा। सौभाग्य से चन्दन को सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रवेश मिल गया और फिर कमज़ोर आर्थिक स्थिति के आधार पर छात्रवृत्ति भी मिल गयी। इस तरह पढ़ाई की गाड़ी झटके खाती हुई चलती रही। कई बार परिवार के थोड़े से ज़ेवर गिरवी रखने के लिए बाहर भीतर होते रहे। लेकिन चन्दन की माँ ने कभी हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने दाँत भींचकर पेट पर चार गाँठें लगा ली थीं। घर का खर्च एकदम न्यूनतम पर पहुँच गया था।

उस वक्त हालत यह थी कि चन्दन और उसका भाई रक्षाबंधन पर दस मील दूर अपनी चचेरी बहनों से राखी बँधाने के लिए तो बस से चले जाते, लेकिन बहनों को देने के लिए उन के पास कुछ न होता। सिर झुकाए राखी बँधवाते और शर्माते, झिझकते वापस आ जाते। घर की हालत यह कि ढंग का बिस्तरबंद तक नहीं था। एक पुराना कंबल था लेकिन उसमें छेद हो गये थे। कहीं जाने के मौके पर भारी संकट आ खड़ा होता। रिश्तेदारों से सूटकेस कंबल उधार लेना पड़ता था।

बी.ई. के अन्तिम वर्ष में पहुँचते-पहुँचते चन्दन विवाह-योग्य कन्याओं के पिताओं की नज़र में चढ़ गया। एक एक्ज़ीक्यूटिव इंजीनियर साहब ने उसकी पक्की घेराबन्दी शुरू कर दी थी। उसके गाँव के चक्कर, छोटी मोटी भेंटें, योग्य सेवा के लिए हमेशा प्रस्तुत रहने का आश्वासन। साथ ही यह वादा भी कि आगे चन्दन का भविष्य बनाने के लिए कोई कसर बाकी नहीं छोड़ेंगे। चन्दन की नौकरी लगते ही एक्ज़ीक्यूटिव इंजीनियर साहब की कोशिशें परवान चढ़ीं और शादी संपन्न हो गयी। इस शादी की बदौलत चन्दन अब स्वतः बड़े लोगों की बिरादरी में शामिल हो गया। विभाग की तरफ से एक फ्लैट भी मिल गया। चपरासी रखने की पात्रता तो नहीं थी, लेकिन ससुर साहब के प्रताप से एक चपरासी भी सेवा के लिए हाज़िर रहने लगा।

चन्दन की पत्नी मनीषा अपने घर को खूब व्यवस्थित और सजा-सँवरा रखती थी। उसके पिता के प्रताप से घर में किसी चीज की कमी नहीं रहती थी। आराम की हर चीज़ घर में उपलब्ध थी। पिता की पोस्टिंग भोपाल में थी, लेकिन वह रोज़ बेटी के परिवार की खैर-खबर लेते रहते थे। कोई अटक-बूझ होने पर तत्काल भगवान विष्णु की तरह अभय मुद्रा में प्रकट भी हो जाते थे।

शादी के लगभग तीन साल बाद ही चन्दन के माता-पिता का बेटे के घर आना हुआ। अभी तक चन्दन के परिवार में कोई वृद्धि नहीं हुई थी। सन्तराम जी को अपने गाँव का परिवेश छोड़कर शहर में एडजस्ट होने में अड़चन होती थी। उठने-बैठने, खाने-पीने, सभी कामों में कुछ अटपटा लगता था। गाँव में उन्हें कैसे भी उठने- बैठने, बोलने-बताने की आदत थी। कहीं घंटों खड़े रहो तो किसी को कुछ गड़बड़ नहीं लगता था। यहाँ ऐसा नहीं था। देर तक कहीं खड़े रहो तो लोग घूरने लगते थे।

शुरू में सन्तराम शहर में उखड़े- उखड़े रहते थे। सब तरफ बिल्डिंग ही बिल्डिंग। खाली मैदान के दर्शन मुश्किल। आकाश भी आधा चौथाई दिखायी देता। चाँद-तारे दिख जाएँ तो अहोभाग्य। सड़कों के किनारे पेड़ ज़रूर लगे हैं। उनसे ही कुछ सुकून मिलता है।

सन्तराम बेटे-बहू से कहते, ‘आप लोग अपने आप में सिकुड़ते जा रहे हो। अपना टेलीफोन, अपना इंटरनेट, अपनी कार। दूसरों पर निर्भरता कम से कम हो और आदमी की सूरत कम से कम देखना पड़े। गाँव में दुआरे पर बैठ जाते हैं तो हर निकलने वाले से दो दो बातें होती रहती हैं। कोई मौजी हुआ तो घंटों वहीं ठमक जाएगा। एक ज़माने में हमारे अपने नाई, तेली, मोची और धोबी से संबंध होते थे। वे हमारी ज़िन्दगी का ज़रूरी हिस्सा होते थे और हम उनकी ज़िन्दगी के। अब कोई किसी को नहीं पहचानता। सब कुछ घर बैठे मिल जाता है तो चलने-फिरने की ज़रूरत कम होती जा रही है। इसीलिए वज़न बढ़ रहा है और घुटने की तकलीफें बढ़ रही हैं। ‘

चन्दन और मनीषा उनका प्रवचन सुनते रहते हैं। सन्तराम एक और मार्के की बात कहते हैं। कहते हैं, ‘हमारे देश में हाथ से काम करने वालों को कोई इज़्ज़त नहीं देता। बढ़ई, लुहार, दर्जी, धोबी, किसान, मज़दूर को कोई कुर्सी नहीं देता। हाथ से काम करने वालों को मज़दूरी भी बहुत कम मिलती है। इसीलिए कोई हाथ का काम नहीं करना चाहता। सब कुर्सी वाला काम चाहते हैं। सुन्दर भवन बनाने वाले राजमिस्त्री के घर स्कूटर मिल जाए तो बहुत जानो। कार कुर्सी वालों के ही भाग्य में लिखी है। ‘

बात करते-करते सन्तराम पीछे सोफे के कवर पर सिर टिका देते हैं और मनीषा को फिक्र सताने लगती है कि कहीं कवर पर तेल का दाग न पड़ जाए। उसे चैन तभी मिलता है जब ससुर साहब सिर सीधा कर लेते हैं। कभी बैठे-बैठे पाँव उठाकर सोफे पर रख लेते हैं और भय पैदा हो जाता है कि कोई इज़्ज़तदार मेहमान उस वक्त ड्राइंग-रूम में न आ जाए।

सन्तराम जी की एक परेशान करने वाली आदत यह है कि आसपास पड़े कील, स्क्रू, तार, रस्सी, डिब्बे जैसी चीज़ों को बीन बीन कर सँभाल कर रख लेते हैं। कहते हैं, ‘ये काम की चीज़ें हैं। कब इनकी ज़रूरत पड़ जाए, पता नहीं। फिर इधर उधर दौड़ते फिरो। ‘ इधर उधर पड़े कोरे कागज़ों और कपड़े के टुकड़ों को सँभाल कर अलमारी में रख देते हैं।

सन्तराम खाने की मेज़ पर भोजन शुरू करने से पहले आँख मूँद कर थोड़ी देर मौन हो जाते हैं। पहले मनीषा समझती थी कि शायद ईश्वर को धन्यवाद देते हैं। फिर रहस्य खुला। बताया, ‘मैं आँख बन्द करके उन सब को याद करता हूँ जिन्होंने दिन रात मेहनत करके यह अन्न हमारे लिए पैदा किया। ‘ फिर हँस कर कहते हैं, ‘वैसे उस जमात में मैं भी शामिल हूँ। ‘

सन्तराम घर में बैठे-बैठे अचानक ग़ायब हो जाते हैं, फिर किसी घर के गेट से निकलते दिखते हैं। लोगों से मिले-जुले बिना उन्हें चैन नहीं पड़ता। घर में चपरासी या काम करने वाली महरी से लंबा वार्तालाप चलता है। उनकी सारी कैफियत उनके पास है— कहाँ गाँव-घर है, कितने बाल-बच्चे हैं, गुज़र-बसर कैसे होती है, ज़िन्दगी में कितने सनीचर लगे हैं? दरवाजे़ पर कोई सर पर बोझा लेकर आ जाए तो बिना किसी का इन्तज़ार किये लपक कर उतरवा देते हैं।

सन्तराम को उनके इस्तेमाल की चीज़ों से मुक्त करना बहुत कठिन होता है। कुर्ते कॉलर और कफ पर और पायजामे पाँयचों पर छिन जाते हैं लेकिन उन्हें रिटायर नहीं किया जाता। उनकी मुक्ति तभी होती है जब वे अचानक ग़ायब कर दिये जाते हैं। जूतों की शक्ल-सूरत बिगड़ जाती है लेकिन वे चलते रहते हैं। फिज़ूलखर्ची उन्हें स्वीकार नहीं। मनीषा के पिता इस मामले में बिल्कुल भिन्न हैं। पुरानी चीज़ों से उनका बहुत जल्दी मोहभंग होता है, चाहे वह कार हो या कोई और चीज। पैसे खर्च करने में उन्हें दर्द नहीं होता। उनका उसूल है कि कमाने के लिए खर्च करना ज़रूरी है। खर्च का दबाव हो तभी आदमी कमाने के लिए हाथ-पाँव मारता है। उनके जीवन में  यह चरितार्थ भी होता है।

करीब एक माह बेटे के पास रहने के बाद सन्तराम को उनका गाँव बुलाने लगा। गाँव में जन्म लेने वालों को उनका गाँव मरणपर्यन्त पुकारता है। स्मृति में लहकता रहता है। सन्तराम गाँव की पुकार पर चल दिये और मनीषा के लिए यह समस्या छोड़ गये कि उनके छोड़े कबाड़ का वह क्या करे?

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈