हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 30 ☆ नये भारत की एक तस्वीर यह भी!!! ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक विचारणीय व्यंग्य  “नये भारत की एक तस्वीर यह भी!!!”।) 

☆ शेष कुशल # 30☆

☆ व्यंग्य – “नये भारत की एक तस्वीर यह भी!!!” – शांतिलाल जैन ☆ 

(इस स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे व्यंग्यकार के सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें।)

हार में गुंथे एक फूल ने दूसरे से कहा – ‘मैं मर जाना चाहता हूँ.’

दूसरे ने कहा – ‘चौबीस-छत्तीस घंटे की ही तो लाईफ और बची है, कल तक सूख-साख जाओगे, फिर तो मिट्टी में मिलना तय है.’

‘चौबीस घंटे एक लंबा वक्त है दोस्त, मैं चौबीस सेकण्ड्स भी जीना नहीं चाहता. विधाता ने हम फूलों में जान तो डाल दी मगर हाराकीरी कर पाने के साधन नहीं दिए वरना अभी तक तुम मेरी मिट्टी देख रहे होते. मादक खूशबू, खूबसूरत पंखुड़ियाँ, ये चटख रंग एक झटके में सब के सब बदरंग हो गए हैं. अब मैं और जीना नहीं चाहता.’

‘कुछ देर पहले तक तो ठीक-ठाक थे अचानक ऐसा क्या हो गया है ?’

‘देख नहीं रहे! सम्मान करने के परपज से जिस गले में हमें डाला गया है वो नृशंस हत्या और बलात्कार कांड के सजायाफ़्ता मुजरिम का गला है. वह उस गुलबदन को मसल देने का अपराधी है जिसके गर्भ में एक पाँच माह की कली पनप रही थी. उसी की टहनी से फूटी नन्ही नाजुक सी ट्यूलिप को पत्थर पर पटक पटककर जिन्होने कुचल दिया उनकी सज़ा माफ कर दी गई है. गला इनका है और दम मेरा घुट रहा है. जो शख्स कैक्टस का हार पहनाए जाने की पात्रता नहीं रखते उसके गले को गुलों-गुलाबों से सजाया गया है !!, उफ़्फ़…. घिन आने लगी है दोस्त अब और जीने का मन नहीं है.”

फिर उसने हार में से कुछ तिरछा होकर आसमान की ओर देखा और कहा – ‘आगे से अंटार्कटिका में उगा देना प्रभु मगर आर्यावर्त में नहीं. मैं टहनियों में उगे कांटो के बीच रह लूँगा मगर नए दौर के आकाओं के निमित्त निर्मित मालाओं, गुलदस्तों में तो बिलकुल नहीं भगवान. कभी हम देवताओं के हाथों बरसाए जाने के काम आते रहे, आज अपराधियों के संरक्षकों के हाथों बरसाए जा रहे हैं. हमारी प्रजाति में जूही, चम्पा, चमेली किसी रेपिस्ट के रिहा होने पर तिलक नहीं लगातीं, आरती नहीं उतारतीं. आर्यावर्त में जुर्म, सजा, इंसाफ अपराध की प्रकृति देखकर नहीं, अपराधी का संप्रदाय और रिश्ते देखकर तय होने लगे हैं. हम आवाज़ नहीं कर पाते मगर समझते सब हैं. आर्यावर्त में बगीचे के माली फूलों को उनका धरम देखकर सींचते हैं. विधर्मी फूल सहम उठते हैं, कब कौन मसल दिया जाएगा कौन कह सकता है. कभी संगीन अपराधों पर सन्नाटा पसर जाया करता था अब ढ़ोल-ताशे बजते हैं. बजते रहें, इल्तिजा बस इतनी सी है प्रभु सहरा के रेगिस्तान में उग लें, साईबेरिया की बर्फ में उग लें, सागर की गहराईयों उग लें – आर्यावर्त में नहीं मालिक.’

‘मैं समझ सकता हूँ दोस्त, अब दद्दा माखनलाल चतुर्वेदी भी नहीं रहे कि तुम्हारी निराशा को स्वर दें सकें.’

‘पता है मुझे. कोई बात नहीं अगर वनमाली उस पथ पर न फेंक पाए जिस पर शीश चढ़ाने वीर अनेक जा रहें हों, कम से कम बलात्कारियों के पथ पर तो न डालें. सुरबाला के गहनों में गूँथ दें, चलेगा. प्रेमी-माला में बिंध दें – इट्स ऑलराईट. सम्राटों के शव पर अपने को सहन कर लूँगा. देवों के सिर पर चढ़ा दे तब भी कोई बात नहीं, हत्यारों बलात्कारियों के गर्दन-गले की शोभा तो न बनाएँ मुझे.’  उसने फिर साथी फूल से मुखातिब होकर कहा – ‘ये मिठाई, ये अबीर गुलाल और ये आतिशबाज़ी! इन्हे मामूली स्वागत समारोह की तरह मत देखना दोस्त – ये आनेवाले कल के आर्यावर्त का ट्रैलर है. फूलों की आनेवाली जनरेशन को इससे कठिन समय देखना बाकी है.’

‘डोंट वरी, हमें बहुत नहीं सहना पड़ेगा. जमाना आर्टिफ़िशियल फ्लावर का है. न उनमें जान होगी न तुम्हारी तरह जान देने की जिद. और लीडरान ? वे तो आर्टिफ़िशियल रहेंगे ही, अन्तश्चेतना से शून्य.’

सजा-माफ बलात्कार वीर समूह माला पहने-पहने तस्वीर खिंचवा रहा है. तस्वीर कल सुबह अखबार के कवर पेज पर नुमायाँ होगी. नये भारत की एक तस्वीर यह भी!!!

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈