हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-14 – नाटक के लिए छोड़ दी ऊ़ची पदवी! ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-14 – नाटक के लिए छोड़ दी ऊ़ची पदवी! ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)

आज जालंधर को याद करने जा रहा हूँ अपने थियेटर या नाटकों के प्रति अथाह लगाव के लिए! जब मैंने होश संभाला तब हमारे ही घर की बैठक यानी उस जमाने के ड्राइंग रूम में मोहल्ले में होने वाली कृष्ण लीला के ब्रज से आये कलाकार मेकअप कर रहे होते! हमारा घर मोहल्ले के ऐन बीच में था और घर के बाहर सीमेंट के बने ऊंचे थड़े बने हुए थे, जो कृष्ण लीला के लिए बने बनाये मंच का काम देते और मैं देखता कि कैसे साधारण से दिखने वाले कलाकार कोई कृष्ण तो कोई राधा तो कोई यशोदा और कितने ही रूपों में आ जाते! कृष्ण लीला के बाद लोग इनके चरण छूकर निहाल हो जाते! मतलब ये साधारण इंसान न रहकर देवी देवता बन जाते ! यहीं से इस कला के प्रति मेरी रूचि बढ़ी हालांकि मैंने कभी रंगमंच पर कदम नहीं रखा लेकिन रंगमंच देखने का जुनून आज तक सिर चढ़ कर बोल‌‌ रहा है !

आइए आज मिलाता हूँ आज आपको जालंधर के थियेटर‌ के लोगों से ! शुरू करता हूँ आकाशवाणी और दूरदर्शन केंद्रों के नाटक प्रोड्यूसर्स से! जहाँ तक मेरी जानकारी होगी, मैं उतना ही बता सकूंगा, मेरी सीमायें भी हैं और आप उन्हें माफ कर देंगे।

मुझे याद हैं विनोद धीर, जो आकाशवाणी, जालंधर के ड्रामा प्रोड्यूसर बाद में बने, मैंने गुरु नानक देव विश्वविद्यालय के जालंधर के लायलपुर खालसा काॅलेज में हुए यूथ फेस्टिवल में विनोद धीर द्वारा निर्देशित नाटक ‘ गोदो की आमद’ यानी ‘ वेटिंग फॉर गोदो’ नाटक देखा था, मैं उन दिनों अपने कॉलेज की ओर से यूथ फेस्टिवल में पोएट्री कम्पीटीशन में भाग लेता था। ‌वहीं यूथ फेस्टिवल में ‘ वेटिंग फाॅर गोदो’ नाटक देखा था, जिसे विनोद धीर ने इतने शानदार तरीके से निर्देशित किया कि लिखते समय आज भी वह नाटक जैसे मेरी आंखों के सामने मंचित हो रहा हो ! हम अपने जीवन में किसी न किसी फरिश्ते का इंतज़ार करते रहते हैं लेकिन वह कहीं नहीं होता, बस इंतज़ार ही इंतज़ार रह जाता है, जीवन भर ! किसी फरिश्ते के इंतज़ार में ज़िंदगी न गंवायें बल्कि अपने भरोसे पर जीवन जियें !

इसके बाद विनोद धीर हिमाचल के हमीरपुर आकाशवाणी केंद्र में ट्रांसफर हो गये!

इनके बाद अगर मुझे याद है तो हमारे ही नवांशहर के आर के आर्य काॅलेज में हुए यूथ फेस्टिवल में मंचित नाटक ‘खींच रहे हैं’ की ! इसे कपूरथला के रंगकर्मी रवि दीप ने निर्देशित किया था। जहाँ कपूरथला का जिक्र जानबूझकर कर रहा हूँ क्योंकि कपूरथला में मेरी ससुराल है और‌ रवि दीप इसी शहर के मूल निवासी हैं, जो आजकल मुम्बई रह रहे हैं। ‌उनके नाटक की याद है कि बच्चा पतंग उड़ाता है, जो उसकी खुशी है, जैसे हमारी इच्छाओं की यह डोर‌ बढ़ती और‌ रंग बदलती जाती है, यही जीवन है हमारा और हम अपनी इच्छाओं की डोर खींचने यानी पूरा करने में ही जीवन व्यतीत कर देते हैं ! रवि दीप दूरदर्शन, जालंधर के ड्रामा प्रोड्यूसर रहेक्ष। मेरी पत्नी नीलम भी नाटक देखना पसंद करती है और जैसे ही उसे पता चला, वह पूरी टीम को घर ले आई और‌ रात का खाना बना कर खिलाया अपने मायके के रंग कर्मियों को ! कैसे भूल सकता हूँ उस दिन को !

फिर हमारे ही नवांशहर का पुनीत सहगल बना ड्रामा प्रोड्यूसर ! पहले आकाशवाणी केंद्र, जालंधर का और फिर दूरदर्शन का ! आजकल वही दूरदर्शन केंद्र, जालंधर का प्रोग्राम हैड है और एक साठ एपिसोड का सीरियल बना रहा है लेकिन पहले यह बता दूँ कि नवांशहर में रहते हम लोगों ने  ‘कला संपर्क’  नाम से कल्चरल संस्था बनाई थी, जिसके दो नाटकों का निर्देशन किया था- ब्लड डोनेशन के लिए प्रोत्साहन देने के लिए पहला नाटक और दूसरा नाटक प्रसिद्ध लेखक मंटो की कहानी पर आधारित  ‘रिश्तेयां दा की रखिये नां’ ! इनके निर्देशन पुनीत सहगल ने ही किये थे, जिसके कलाकार रातों रात छोटे से शहर के हीरो बन गये थे ! आज भी देवेंद्र नाटक लेखन में सक्रिय हैं और‌ इसमे मेरे छोटे भाई प्रमोद ने भी एक पागल की भूमिका निभाई थी और सुधा जैन आजकल मोहाली रहती है और खूब लिखती है, हाल ही में उसे भाषा विभाग, पंजाब से पुरस्कार मिला है !

अब याद आ रहे हैं प्रसिद्ध रंगकर्मी पाजी गुरशरण सिंह, जिन्होंने भाखड़ा नंगल डैम में लगी अपनी ऊंची पोस्ट छोड़कर नाटकों को जीवन अर्पित कर दिया। ‌वे अमृतसर रहते थे लेकिन खटकड़ कलां में हर साल‌ शहीद भगत सिंह के शहीदी दिवस से पहले तीन दिन पहले आते और‌ मेरी उनसे जान पहचान बढ़ती गयी और वे बिना किसी मंच के दो खाली बैलगाड़ियों को उल्टे लगा कर मंच बना कर नाटक खेलते ! इस तरह वे पंजाब के नाटक के चर्चित चेहरे बन गये ! उनकी विचारधारा शहीद भगत सिंह की विचारधारा को बढ़ाती थी और उनका ‘ भाई मन्ना सिंह’ जालंधर दूरदर्शन पर तेरह किश्तों में प्रसारित हुआ जिससे उनकी घर घर पहचान बनी ! वे अपनी बेटियों को भी नायिका लेते जिनमें से एक बेटी एम डीयू, रोहतक में कुछ वर्ष इक्नामिक्स की प्राध्यापिका रही और दूसरी एम बी बी एस कर पंजाब के मोहाली स्थित गवर्नमेंट अस्पताल में डाक्टर रहीं।

खैर! आज यहीं विराम! भाई मन्ना सिंह को दो बार हिसार भी यहाँ के कामरेड संगठनों ने बुलाया और हमारी मुलाकातें हिसार में भी हुईं, इनकी इंटरव्यू मेरी पुस्तक ‘ यादों की धरोहर’ में शामिल है!

कल मिलते हैं, फिर नाटकों के साथ !

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #233 – 120 – “वही क्यों न हुआ…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल वही क्यों न हुआ…” ।)

? ग़ज़ल # 119 – “वही क्यों न हुआ…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

मेरी जो चाहत थी वही क्यों न हुआ,

कुछ राहत मिलती वही क्यों न हुआ।

****

जिनके  लिये  दोस्तों  से लड़ता रहा,

वो दुश्मनों से ख़फ़ा यूँही क्यों न हुआ।

****

जिसको  पत्थर  उठाने में तकलीफ़  थी,

पूछता अर्श में सुराख़ अभी क्यों न हुआ।

****

वह  बताती  तो  यशोदा  तरह चाहा,

उसका बर्ताव फिर अम्मी क्यों न हुआ।

****

नाटक  बहुत  करता  है  लोकप्रिय नेता,

फिर उसका किरदार फ़िल्मी क्यों न हुआ।

****

जो मुफ़लिस ग़म की आग में जलता रहा,

ज़िंदगी उसकी सुलगती अर्थी क्यों न हुआ।

****

नाम पर बुत के झुका लिया सारा जहाँ,

आतिश तेरा  नाम ज़िम्मी क्यों न हुआ।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 111 ☆ गीत – ।। छोड़ो सारे अपने काम पहले चलो करो मतदान ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 111 ☆

☆ गीत – ।। छोड़ो सारे अपने काम पहले चलो करो मतदान ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

छोड़ो सारे अपने काम पहले चलो करो मतदान।

काला निशान धारण कर करो आराम से जलपान।।

****

इस अधिकार कर्तव्य का   निर्वहन सबसे जरूरी है।

इससे ही तो मिटेगी लोकतंत्र की हर इक मजबूरी है।।

हर भारत वासी को पहले पूर्ण करना है यह अरमान।

छोड़ो सारे अपने काम पहले चलो करो मतदान।।

****

यह एक पर्व एक उत्सव नहीं केवल चुनाव का रेला है।

यूं मान कर चलिए कि लोकतंत्र   का पावन मेला है।।

मतदाता हो शक्ति पहचानो चलो उठो जागो हनुमान।

छोड़ो सारे अपने काम पहले चलो करो मतदान।।

****

राष्ट्र सर्वप्रथम सर्वोपरि यह  मतदाता की पहचान हो।

सारे कार्य गौणऔर पहले देश हित का ही काम हो।।

सरकार बने अच्छी बस   यह तुम पहले करो ध्यान।

छोड़ो सारे अपने काम पहले चलो करो मतदान।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 173 ☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “सफलता के लिये लक्ष्य बनाओ-कर्म करो” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “सफलता के लिये लक्ष्य बनाओ-कर्म करो। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “सफलता के लिये लक्ष्य बनाओ-कर्म करो” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

जन्म लिया दुनिया में तो कुछ लक्ष्य बनाओ जीवन का

क्रमशः उन्नति होती जग में है विधान परिवर्तन का।

बना योजना आगे बढ़ने का मन में विश्वास रखो

कदम-कदम आगे चलने का क्रमशः सतत प्रयास करो।

♦ 

आँखों में आदर्श कोई रख उससे उचित प्रेरणा लो

कभी आत्मविश्वास न खोओ मन में अपने धैर्य धरो।

बिना किसी शंका को लाये प्रतिदिन निश्चित कर्म करो

करे निरुत्साहित यदि कोई तो भी उससे तुम न डरो।

पुरुषार्थी की राह में काँटे और अड़ंगे आते हैं

यदि तुम सीना तान खड़े तो वे खुद ही हट जाते हैं।

नियमित धीरे-धीरे बढ़ने वाला सब कुछ पाता है

जो आलसी कभी भी केवल सोच नहीं पा पाता है।

श्रम से ईश्वर कृपा प्राप्त होती है शुभ दिन आता है।

जब कितना भी कठिन लक्ष्य हो वह पूरा हो जाता है।

पाकर के परिणाम परिश्रम का मन खुश हो जाता है

अँधियारी रातें कट जातीं नया सवेरा आता है।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ “अंतर्नाद ” – (कविता संग्रह)- कवयित्री : सौ. मंजुषा सुनीत मुळे ☆ परिचय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

?पुस्तकावर बोलू काही?

☆ “अंतर्नाद ” – (कविता संग्रह)- कवयित्री : सौ. मंजुषा सुनीत मुळे ☆ परिचय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

पुस्तक : अंतर्नाद (कविता संग्रह) 

कवयित्री : मंजुषा मुळे 

पृष्ठे           : १११ 

मूल्य         : रु. १००/-

प्रकाशक : कॉन्टिनेन्टल प्रकाशन, पुणे.

परिचय : श्री सुहास रघुनाथ पंडित

सौ. मंजुषा सुनीत मुळे

सौ. मंजुषा मुळे यांचा ‘अंतर्नाद’ हा कविता संग्रह नुकताच वाचनात आला. त्यांचा हा पहिलाच कविता संग्रह. त्याला श्री. प्रवीण दवणे यांच्यासारख्या ज्येष्ठ कवीची प्रस्तावना. त्यातून कविता हा आवडीचा विषय. त्यामुळे हा कविता संग्रह वाचून काढणे अगदी स्वाभाविक होते. काही कविता वाचल्यावर लक्षात आले की हा संग्रह फक्त पाने उलटवण्यासाठी नाही, तर लक्षपूर्वक वाचण्यासाठी आहे. मग त्या दृष्टीने अभ्यासच सुरू झाला आणि आता खूप छान छान कविता वाचायला मिळाल्या याचा आनंद आहे. तो आनंद सर्वांना वाटावा म्हणून तुमच्यापर्यंत पोहोचण्याचा प्रयत्न !

विषयांची कमालीची विविधता असलेल्या या काव्यसंग्रहाची सुरुवातच सौ. मंजुषा मुळे यांनी एका जीवनविषयक कवितेने केली आहे. शब्द, हास्य, अश्रू यातून जीवनाचा अर्थ शोधण्याचा त्यांनी प्रयत्न केला आहे. स्वतःला माणूस म्हणवून घेण्यासाठी शब्द कसे असावेत, हास्य कसे असावे हे सांगताना नात्यांचं नंदनवन फुलवता यावं अशी अपेक्षा त्या व्यक्त करतात.

जगातील स्वार्थीपणाचे अनुभव “ चंद्र “ या कवितेतून चंद्राकडूनच वदवून घेणे ही वेगळीच कल्पना फार भावते.

जगण्याच्या प्रवासात आपली साथ कधीही सोडत नाही ते म्हणजे आपलं मन. या मनाचं आणि घनाचं असलेलं अतूट नातं त्यांच्या ‘वळीव’ या कवितेतून त्यांनी सुंदरपणे विशद केलं आहे.. मनाची होणारी फसगत पाखराच्या रूपातून पहायला मिळते.

असं हे त्यांचं कविमन प्रेमरसात नाही भिजून गेलं तरच नवल ! ‘आतुर’ आणि ‘येई सखी’ यासारख्या प्रेमकविता लिहिताना त्यांची लेखणी मृदू होते. खरं प्रेम म्हणजे काय हे त्या ‘प्रेम’ या कवितेतून स्पष्ट करतात. निसर्गातील सुंदर प्रतिकांचा वापर कवितेचे सौन्दर्य वाढवतो. — ‘ नाही आडपडदे, नाही आडवळणं…. नितळ निर्मळ झऱ्यासारखं सतत झुळझुळत असतं…… ’ ही निखळ प्रेमाची व्याख्या फार बोलकी आहे.

तर प्रेमभंगाच्या दु:खात होरपळत असतांनाही ‘ आपल्या प्रीतीचे निर्माल्य झाले ‘ ही कल्पना प्रेमाचे पावित्र्य उच्च पातळीवर नेऊन ठेवते.

स्त्री सुलभ वात्सल्य भावना त्यांच्या ‘हुरहूर’ या कवितेतून दिसून येते. पिल्ले घरातून उडून गेल्यावर ‘ मनी दाटे हुरहूर | रीत वाटे ही उलटी | पिल्लू भरारे आकाशी | घार व्याकुळे घरटी ||’ ही एका आईची भावना मनाला भिडलीच पाहिजे अशी.

स्त्री जीवनाविषयी भाष्य करताना ‘जातकुळी’ या कवितेत त्यांनी आकाशातील चांदण्यांचा दाखला दिला आहे. आजूबाजूला माणसांचा, सख्यांचा गोतावळा असला तरी स्त्रीचे विश्व हे तिच्यापुरते, तिच्या कुटुंबापुरते मर्यादित असते. ‘आखला परीघ भवती, तितुकेच विश्व आम्हा’ अशी खंत त्या व्यक्त करतात. याचबरोबर ‘ मी कोण ‘ या स्वतःला पडलेल्या प्रश्नाचं अगदी मार्मिक उत्तरही त्यांनी अगदी सोप्पं करून टाकलेलं आहे.

‘पूजा’ ही कविता म्हणजे भक्तीचा नेमका मार्ग दाखवणारी कविता असेच म्हणावे लागेल. पंढरीच्या वारीचे वर्णन करणारी, भक्तांच्या मनातील भाव व्यक्त करणारी अशा दोन कविता त्यांनी लिहिल्या आहेत. परमेश्वर हा आपला सखा आहे, पुत्र आहे की भाऊराया आहे असा प्रश्न त्यांना पडतो. देवाकडे त्यांनी मागितलेले एक वेगळंच ‘ मागणं ‘ त्यांच्या वैचारिक वेगळेपणाचं द्योतक आहे.

त्यांच्या वैचारिक आणि चिंतनात्मक कवितांचा विचार केला तर अनेक कवितांचा उल्लेख करावा लागेल. या कविता गंभीर प्रकृतीच्या, विचार करायला लावणा-या असल्या, तरी भाषेची कोमलता, चपखल प्रतिकांचा वापर, कल्पना आणि काव्यात्मकता यामुळे बोजड वाटत नाहीत.

‘वास्तव’ या रुपकात्मक, लयबद्ध कवितेतून सध्या सर्वांच्याच आयुष्यात घडणारे वास्तव त्यांनी अतिशय उत्तम अशा उदाहरणांनी समजावून दिले आहे. गंध म्हणजे फुलाचे मूल. गंध फुलापासून दूर जातो. फूल तिथेच असते. गंध फुलाकडे म्हणजे स्वतःच्या घराकडे कधीच परतून येत नाही. फूल मात्र त्याच्यासाठी झुरत असते. कर्तृत्वाचे पंख लावून लांबवर उडणारी चिमणी पाखरं घराकडे परततच नाहीत, तेव्हा घरातील थकलेल्या त्या जीवांचे काय होत असेल हे सांगण्यासाठी यापेक्षा सुंदर दुसरे कोणते उदाहरण असेल?

माणसाची संपत्तीची हाव संपता संपत नाही. पण इथून जाताना काहीही घेऊन जाता येत नाही हे त्यांनी साध्या सोप्या शब्दात ‘हाव’ या कवितेतून सांगितले आहे. ‘भान ‘ या आणखी एका कवितेत त्यांनी दिलेला उपदेशात्मक संदेशही तितकाच मोलाचा आहे. ‘घरटे अपुले विसरू नको’ किंवा ‘मातीला परी विसरू नको’ यासारखी सुवचने त्या सहज लिहून जातात.

‘अंधाराला उजेडाचे कोंब फुटावे, तसे मातीच्या गर्भातून उजळू पहाणारे नवचैतन्याचे अंकूर ‘ ही ‘आषाढमेघ ‘ कवितेतील कवीकल्पना मनाला भावून तर जातेच, पण त्यांच्या आशावादी मनोवृत्तीवर प्रकाश टाकते. जगण्याचे चक्रव्यूह भेदत असताना आपल्या वाट्याला आपले स्वतःचे असे किती क्षण येतात?अशा वेगळेपणाच्या संजीवक क्षणांची कवयित्री वाट पहात असते. कारण हे ‘ क्षण ‘च वादळवा-यात तेवत राहण्याचे बळ देत असतात.

जगणं सुसह्य होण्यासाठी त्या वेळीच सावध करतात आणि जगताना स्वतःला कसं सावरलं पाहिजे हे ‘सावर रे’ या कवितेतून सांगून जातात. जगतानाची अलिप्तता ‘उमग’ या कवितेतून दिसून येते.

देवाच्या हातून घडलेल्या चुका दाखवण्याचे धाडसही त्यांनी ‘चूक’ या कवितेतून केले आहे.. चूक देवाची दाखवली असली तरी कविता माणसांविषयी, त्यांच्या गुणदोषांविषयीच आहे. ‘गती’ या कवितेतून त्यांनी केलेले मार्गदर्शन खूप मोलाचे आहे. ‘ संसाराच्या खोल सागरी, अलिप्त मन अन् मती ‘ यासारख्या अर्थपूर्ण काव्यपंक्ती यात वाचायला मिळतात. आयुष्याचे केलेले उत्तम परिक्षण त्यांच्या ‘श्वास’ या चिंतनात्मक कवितेतून वाचायला मिळते. ‘अश्रूं’वरील त्यांचे चिंतन हे खूपच वेगळे पण वैशिष्ट्यपूर्ण आहे……. एकूणच त्यांच्या चिंतनात्मक कविता वाचल्यावर त्या आयुष्याकडे किती गंभीरपणे आणि वेगवेगळ्या नजरेने पाहतात हे समजून येते. म्हणून तर त्यातून मुक्ती मिळवण्यासाठी ‘आपली मती वापर ‘अशी कळकळीची विनंती त्या करतात.

कलावंताची आत्ममग्नता त्यांच्या ‘चांदणे’ या कवितेत अनुभवायला मिळते. जगाची पर्वा न करता स्वतःच्याच धुंदीत जगणारी कवयित्री या चांदण्यात चमकताना दिसते.

अशी आत्ममग्नता असली तरी वास्तवाचा स्वीकार करताना त्यांची लेखणी काहीशी उपरोधिक बनते. मनाला मनातून हद्दपार केल्याशिवाय जगणं शक्य होणार नाही याची जाणीव करून देऊन फाटलेलं आभाळ पेलायचं रहस्यही त्या सांगून जातात. ही ‘समज’ त्यांना अनुभवातून आणि आयुष्याच्या निरीक्षणातूनच आली आहे.

त्यांच्यातील वैचारिक गांभीर्यामुळे त्यांच्या हातून सामाजिक आशयाच्या अनेक कविता लिहून झाल्या आहेत. ‘गर्दी’ सारखी कविता आधुनिक समाजाचे दर्शन घडवते. ‘वृद्धाश्रम’ मधून त्यांनी वृद्धाश्रमाचे केलेले चित्रण आणि वृद्धांची मानसिक अवस्था लक्ष वेधून घेते. — “ अन्नासाठी जगणे की ही जगण्यासाठी पोटपूजा ? मरण येईना म्हणून जिते हे.. जगण्याला ना अर्थ दुजा “ हे शब्द मनाला फारच भिडतात.

’त्याने ‘ मांडलेल्या ‘ खेळा ‘ चे वर्णन करतांना जगातील उफराटा न्याय त्या सहज शब्दात दाखवून देतात. माणसाकडून चाललेल्या वसुंधरेवरील अन्यायाचे ‘कारण’ शोधण्याचा त्या प्रयत्न करतात. निसर्गातले दाखले देत देत त्या एकीकडे ढोंगीपणाचा निषेध करतात तर दुसरीकडे सकारात्मकतेतून ‘सुख’ शोधण्याचा मार्ग दाखवतात. ‘आमचा देश’ किंवा ‘जयजयकार’ या सारख्या कवितेतून भ्रष्टाचारग्रस्त समाजाचे चित्रण पहावयास मिळते. हे चित्र बदलून समानतेची, मानवतेला शोभेल अशी ‘दिवाळी’ यावी अशी अपेक्षा त्यांना आहे. स्वराज्यातून सुराज्याकडे जाण्यासाठी समाजाला त्या आवाहन करतात. ” मर्कट हाती कोलीत तैसा, स्वैराचारा जणू परवाना | दुर्दशेस या आम्हीच कारण, उठवू न शकतो निद्रिस्त मना ” हे त्यांचे शब्द फार अर्थपूर्ण आहेत.

‘कारागीर’ ही एक उत्तम रूपकात्मक कविता वाचायला मिळते. स्वतःला सर्वशक्तीमान समजणा-या मानवाची अवस्था काय झाली आहे हे आपण अनुभवतो आहोत. शेवटी शरणागती पत्करुन पश्चात्ताप करण्याची वेळ आलेलीच आहे. हेच अत्यंत प्रभावी शब्दात कवयित्रीने व्यक्त केले आहे. ‘राष्ट्र… पण कुणाचे?’ किंवा ‘साठी’ या सारख्या विडंबनात्मक कविताही त्यांनी लिहिल्या आहेत. ‘ कळा ‘ या एकाच शब्दातून ध्वनित होणारे विविध अर्थ सांगतांना ‘ चंद्राच्या कला ‘ असा उल्लेख थोडा खटकतो.

याबरोबरच त्यांच्या निसर्गकविताही उल्लेखनीय आहेत. ‘सांजसकाळ’ या कवितेतून निसर्गात दररोज घडणा-या घटनांचे त्यांनी खूप वेगळ्या नजरेने पाहून नाट्यमय रितीने वर्णन केले आहे. पावसाच्या धारांमध्ये लपलेलं संगीत त्यांनी इतक्या सुंदर शब्दात ऐकवलंय की ही मैफिल संपूच नये असं वाटतं, पण ‘पाऊस’च ही मैफील संपवतो आणि आपण मात्र त्या श्रवणीय सूरांत हरवून जातो. लयबद्ध, गेय अशा भावगीताच्या वळणाने जाणारी ‘ साक्षात्कार ‘ कविता वाचतांना आपल्यालाही कृष्णसख्याचा साक्षात्कार घडून जातो. ‘ धुके ‘ ही कविता म्हणजे कल्पनाविलासाचा उत्तम नमुनाच आहे.

बालपणापासून मनाच्या कोप-यात लपून बसलेली कविता, संधी मिळताच डोके वर काढीत होती. शब्दांचा तो नाद मनाला ऐकू येत होता. मनातल्या भावना शब्दबद्ध करून सर्वांसमोर आणाव्यात असं वाटत होतं. या सा-याचं फलित म्हणजे ‘अंतर्नाद’ हा कविता संग्रह ! त्यांचा अंतर्नाद आता रसिक वाचकांच्या हृदयाला हात घालत आहे. आत्मचिंतन करून मुक्तपणे मांडलेले विचार, जीवनाविषयी दृष्टीकोन मांडतानाच निसर्गाशी असलेलं नातं जपणं, आस्तिकता जपतानाच सामाजिक जाणिवांचे भान असणं, जे जे वाईट आहे त्याची चीड येऊन त्याविषयी आपला संताप आक्रस्ताळेपणा न करता व्यक्त करणं, कधी उपहासाचे चिमटे काढणं तर कधी स्वप्नात रंगून जाणं…. अशा विविधांगांनी नटलेल्या कवितांचे दर्शन त्यांच्या या पहिल्याच काव्यसंग्रहात होते. त्यामुळे त्यांनी नकळतपणे रसिकांच्या अपेक्षा वाढवल्या आहेत. त्यांच्या हातून अशाच कितीतरी उत्तमोत्तम रचनांची निर्मिती होत राहो या सदिच्छा.

पुस्तक परिचय – श्री सुहास रघुनाथ पंडित

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #228 ☆ बहुत तकलीफ़ होती है… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख बहुत तकलीफ़ होती है। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 228 ☆

☆ बहुत तकलीफ़ होती है… ☆

‘लोग कहते हैं जब कोई अपना दूर चला जाता है, तो तकलीफ़ होती है; परंतु जब कोई अपना पास होकर भी दूरियां बना लेता है, तब बहुत ज़्यादा तकलीफ़ होती है।’ प्रश्न उठता है, आखिर संसार में अपना कौन…परिजन, आत्मज या दोस्त? वास्तव में सब संबंध स्वार्थ व अवसरानुकूल उपयोगिता के आधार पर स्थापित किए जाते हैं। कुछ संबंध जन्मजात होते हैं, जो परमात्मा बना कर भेजता है और मानव को उन्हें चाहे-अनचाहे निभाना ही पड़ता है। सामाजिक प्राणी होने के नाते मानव अकेला नहीं रह सकता और वह कुछ संबंध बनाता है; जो बनते-बिगड़ते रहते हैं। परंतु बचपन के साथी लंबे समय तक याद आते रहते हैं, जो अपवाद हैं। कुछ संबंध व्यक्ति स्वार्थवश स्थापित करता है और स्वार्थ साधने के पश्चात् छोड़ देता है। यह संबंध रिवाल्विंग चेयर की भांति अस्थायी होते हैं, जो दृष्टि से ओझल होते ही समाप्त हो जाते हैं और लोगों के तेवर भी अक्सर बदल जाते हैं। परंतु माता-पिता व सच्चे दोस्त नि:स्वार्थ भाव से संबंधों को निभाते हैं। उन्हें किसी से कोई संबंध-सरोकार नहीं होता तथा विषम परिस्थितियों में भी वे आप की ढाल बनकर खड़े रहते हैं। इतना ही नहीं, आपकी अनुपस्थिति में भी वे आपके पक्षधर बने रहते हैं। सो! आप उन पर नेत्र मूंदकर विश्वास कर सकते हैं। आपने अंग्रेजी की कहावत सुनी होगी ‘आउट आफ साइट, आउट ऑफ मांइड’ अर्थात् दृष्टि से ओझल होते ही उससे नाता टूट जाता है। आधुनिक युग में लोग आपके सम्मुख अपनत्व भाव दर्शाते हैं; परंतु दूर होते ही वे आपकी जड़ें काटने से तनिक भी ग़ुरेज़ नहीं करते। ऐसे लोग बरसाती मेंढक की तरह होते हैं, जो केवल मौसम बदलने पर ही नज़र आते हैं। वे गिरगिट की भांति रंग बदलने में माहिर होते हैं। इंसान को जीवन में उनसे सदैव सावधान रहना चाहिए, क्योंकि वे अपने बनकर, अपनों को घात लगाते हैं। सो! उनके जाने का इंसान को शोक नहीं मनाना चाहिए, बल्कि प्रसन्न होना चाहिए। 

वास्तव में इंसान को सबसे अधिक दु:ख तब होता है, जब अपने पास रहते हुए भी दूरियां बना लेते हैं। दूसरे शब्दों में वे अपने बनकर अपनों से विश्वासघात करते हैं तथा पीठ में छुरा घोंपते हैं। आजकल के संबंध कांच की भांति नाज़ुक होते हैं, जो ज़रा-सी ठोकर लगते ही दरक़ जाते हैं, क्योंकि यह संबंध स्थायी नहीं होते। आधुनिक युग में खून के रिश्तों पर भी विश्वास करना मूर्खता है। अपने आत्मज ही आपको घात लगाते हैं। वे आपको तब तक मान-सम्मान देते हैं, जब तक आपके पास धन-संपत्ति होती है। अक्सर लोग अपना सब कुछ उनके हाथों सौंपने के पश्चात् अपाहिज-सा जीवन जीते हैं या उन्हें वृद्धाश्रम में आश्रय लेना पड़ता है। वे दिन-रात प्रभु से यही प्रश्न करते हैं, आखिर उनका कसूर क्या था? वैसे भी आजकल परिवार के सभी सदस्य अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं, क्योंकि संबंध-सरोकारों की अहमियत रही नहीं। वे सब एकांत की त्रासदी झेलने को विवश होते हैं, जिसका सबसे अधिक ख़ामियाज़ा बच्चों को भुगतना पड़ता है। प्राय: वे ग़लत संगति में पड़ कर अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं।

अक्सर ज़िदंगी के रिश्ते इसलिए नहीं सुलझ पाते, क्योंकि लोगों की बातों में आकर हम अपनों से उलझ जाते हैं। मुझे स्मरण हो रहे हैं कलाम जी के शब्द ‘आप जितना किसी के बारे में जानते हैं; उस पर विश्वास कीजिए और उससे अधिक किसी से सुनकर उसके प्रति धारणा मत बनाइए। कबीरदास भी आंखिन-देखी पर विश्वास करने का संदेश देते हैं; कानों-सुनी पर नहीं। ‘कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना।’ इसलिए उनकी बातों पर विश्वास करके किसी के प्रति ग़लतफ़हमी मत पालें। इससे रिश्तों की नमी समाप्त हो जाती है और वे सूखी रेत के कणों की भांति तत्क्षण मुट्ठी से फिसल जाते हैं। ऐसे लोगों को ज़िंदगी से निकाल फेंकना कारग़र है। ‘जीवन में यदि मतभेद हैं, तो सुलझ सकते हैं, परंतु मनभेद आपको एक-दूसरे के क़रीब नहीं आने देते। वास्तव में जो हम सुनते हैं, हमारा मत होता है; तथ्य नहीं। जो हम देखते हैं, सत्य होता है; कल्पना नहीं। ‘सो! जो जैसा है; उसी रूप में स्वीकार कीजिए। दूसरों को प्रसन्न करने के लिए मूल्यों से समझौता मत कीजिए; आत्म-सम्मान बनाए रखिए और चले आइए।’ महात्मा बुद्ध की यह सीख अनुकरणीय है।

‘ठहर! ग़िले-शिक़वे ठीक नहीं/ कभी तो छोड़ दीजिए/ कश्ती को लहरों के सहारे।’ समय बहुत बलवान है, निरंतर बदलता रहता है। जीवन में आत्म-सम्मान बनाए रखें; उसे गिरवी रखकर समझौता ना करें, क्योंकि समय जब निर्णय करता है, तो ग़वाहों की जरूरत नहीं पड़ती। इसलिए किसी विनम्र व सज्जन व्यक्ति को देखते ही यही कहा जाता है, ‘शायद! उसने ज़िंदगी में बहुत अधिक समझौते किए होंगे, क्योंकि संसार में मान-सम्मान उसी को ही प्राप्त होता है।’ किसी को पाने के लिए सारी खूबियां कम पड़ जाती हैं और खोने के लिए एक  ग़लतफ़हमी ही काफी है।’ सो! जिसे आप भुला नहीं सकते, क्षमा कर दीजिए; जिसे आप क्षमा नहीं कर सकते, भूल जाइए। हर क्षण, हर दिन शांत व प्रसन्न रहिए और जीवन से प्यार कीजिए; आप ख़ुद को मज़बूत पाएंगे, क्योंकि लोहा ठंडा होने पर मज़बूत होता है और उसे किसी भी आकार में ढाला नहीं जा सकता है।

यदि मन शांत होगा, तो हम आत्म-स्वरूप परमात्मा को जान सकेंगे। आत्मा-परमात्मा का संबंध शाश्वत् है। परंतु बावरा मन भूल गया है कि वह पृथ्वी पर निवासी नहीं, प्रवासी बनकर आया है। सो! ‘शब्द संभाल कर बोलिए/ शब्द के हाथ ना पांव/ एक शब्द करे औषधि/  एक शब्द करे घाव।’ कबीर जी सदैव मधुर वाणी बोलने का संदेश देते हैं। जब तक इंसान परमात्मा-सत्ता पर विश्वास व नाम-स्मरण करता है; आनंद-मग्न रहता है और एक दिन अपने जीवन के मूल लक्ष्य को अवश्य प्राप्त कर लेता है। सो! परमात्मा आपके अंतर्मन में निवास करता है, उसे खोजने का प्रयास करो। प्रतीक्षा मत करो, क्योंकि तुम्हारे जीवन को रोशन करने कोई नहीं आएगा। आग जलाने के लिए आपके पास दोस्त के रूप में माचिस की तीलियां हैं। दोस्त, जो हमारे दोषों को अस्त कर दे। दो हस्तियों का मिलन दोस्ती है। अब्दुल कलाम जी के शब्दों में ‘जो आपके पास चलकर आए सच्चा दोस्त होता है; जब सारी दुनिया आपको छोड़कर चली जाए।’ इसलिए दुनिया में सबको अपना समझें;  पराया कोई नहीं। न किसी से अपेक्षा ना रखें, न किसी की उपेक्षा करें। परमात्मा सबसे बड़ा हितैषी है, उस पर भरोसा रखें और उसकी शरण में रहें, क्योंकि उसके सिवाय यह संसार मिथ्या है। यदि हम दूसरों पर भरोसा रखते हैं, तो हमें पछताना पड़ता है, क्योंकि जब अपने, अपने बन कर हमें छलते हैं, तो हम ग़मों के सागर में डूब जाते हैं और निराशा रूपी सागर में अवगाहन करते हैं। इस स्थिति में हमें बहुत ज़्यादा तकलीफ़ होती है। इसलिए भरोसा स्वयं पर रखें; किसी अन्य पर नहीं। आपदा के समय इधर-उधर मत झांकें। प्रभु का ध्यान करें और उसके प्रति समर्पित हो जाएं, क्योंकि वह पलक झपकते आपके सभी संशय दूर कर आपदाओं से मुक्त करने की सामर्थ्य रखता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #228 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 228 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

मानुस गर्व न कीजियो, ऐसो कहत कबीर

कैसी विपदा आ पड़े, बनी जाये फ़क़ीर। 

*

हरि को भजना है हमें, हरि ही करे निदान।

हरि से मिलता है हमें, जीवन का वरदान  ।

*

 कभी प्रेम की बांसुरी, कभी सुरों का राग।

कभी पिया की रागनी, जीने का अनुराग ।

*

ब्रम्ह  आपके शब्द हुए,अर्थ हुई  तक़दीर।

वाक्य बनकर बस गए,दिल के हुये अमीर।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 3 – नवगीत – कर्मों की गीता… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत – कर्मों की गीता…

? रचना संसार # 3 – नवगीत – कर्मों की गीता…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

चौसर की यह चाल नहीं है,

नहीं रकम के दाँव।

अपनापन है घर- आँगन में,

लगे मनोहर गाँव।।

*

खेलें बच्चे गिल्ली डंडे,

चलती रहे गुलेल।

भेदभाव का नहीं प्रदूषण,

चले मेल की रेल।।

मित्र सुदामा जैसे मिलते,

हो यदि उत्तम ठाँव।

*

जीवित हैं संस्कार अभी तक,

रिश्तों का है मान।

वृद्धाश्रम का नाम नहीं है

यही निराली शान।।

मानवता से हृदय भरा है,

नहीं लोभ की काँव।

*

घर-घर बिजली पानी  देखो,

हरिक दिवस त्योहार।

कूके कोयल अमराई में,

बजता प्रेम सितार।।

कर्मों की गीता हैं पढ़ते,

गहे सत्य की छाँव।

 

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #209 ☆ बाल गीत – बिल्ली मौसी ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बाल गीत – बिल्ली मौसी। श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 210 ☆

☆ बाल गीत – बिल्ली मौसी ☆ श्री संतोष नेमा ☆

बिल्ली  मौसी  सबसे  प्यारी

करती   है  वो   सबसे  यारी

बिल्ली  मौसी  सबसे  प्यारी

*

सींका ऊपर चढ़ कर बिल्ली

पीकर  दूध  उड़ाती  खिल्ली

म्याऊं  म्याऊं बोल बोल कर

पड़ती  है  वो सब  पर भारी

बिल्ली  मौसी  सबसे  प्यारी

*

बड़ी  शेरनी  खुद को  समझे

चूहे   मार   उलझती   सबसे

छुप कर आती घर में घुसकर

दूध – मलाई    खाती    सारी

बिल्ली  मौसी  सबसे   प्यारी

*

कौन  बांधता   गले  में   घंटी

बिल्ली निकली सबकी अन्टी

आँख चमकती मूँछ  दमकती

सुनती   है  वो  सबकी  गारी

बिल्ली  मौसी  सबसे  प्यारी

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 7000361983, 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 218 ☆ श्री स्वामी समर्थ… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

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