हिन्दी साहित्य – कविता ☆ गजल ☆ – सुश्री कमला सिंह जीनत

सुश्री कमला सिंह जीनत

 

(सुश्री कमला सिंह ज़ीनत जी एक श्रेष्ठ ग़ज़लकार है और आपकी गजलों की कई पुस्तकें आ चुकी हैं।  आज प्रस्तुत है एक गजल । सुश्री कमला सिंह ज़ीनत जी और उनकी कलम को इस बेहतरीन अमन के पैगाम के लिए सलाम। )

 

☆ गजल ☆

 

इसी सूरत  से मैं नफरत के ये शौले बुझाती हूँ

मुहब्बत और ममता से भरी दुनिया बसाती हूँ।

 

इबादत कर के  वो उठता है  मुझ पर फूंक  देता है

मैं  पूजा  करके  आती  हूँ  उसे  टीका  लगाती हूँ।

 

किसी के मज़हबी रंगों से मुझ को कुछ नहीं लेना

कबूतर शांति के अपनी छत से मैं उड़ाती हूँ।

 

बढ़ी है उम्र लेकिन आज भी बच्चे हैं हम दोनों

बहलता वो है गुब्बारों से, मैं फिरकी नचाती हूँ।

 

मैं जिस के दिल में रहती हूं धड़कता है वो सीने में

वो ज़मज़म पीके आता है ,मैं गंगा में नहाती हूँ।

 

बताये कैसे ये “जी़नत” फक़त इतना समझ लीजे

अकीदत से वो झुकता है मैं माथा चूम आती हूँ।

 

© कमला सिंह ज़ीनत

 

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ गजल ☆ – सुश्री कमला सिंह जीनत

सुश्री कमला सिंह जीनत

(सुश्री कमला सिंह ज़ीनत जी का e-abhivyakti में स्वागत है। आप एक श्रेष्ठ ग़ज़लकार है और आपकी गजलों की कई पुस्तकें आ चुकी हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी एक गजल)

☆ गजल ☆
इस मुल्क के सुकून को मिसमार मत करो
फूलों की सर ज़मीन को तलवार मत करो
इंसानियत सिखाई है हमने जहान को।
आपस में भाई भाई हो तकरार मत करो
छल और कपट के प्यार से बहतर है दुश्मनी
जो सिर्फ़ इक फ़रेब हो  वो प्यार मत करो
मुश्किल से दिल के ज़ख़्म भरे हैं अभी अभी
इन मुस्कुराते फूलों को बीमार मत करो
दुनिया इन्हें झुकाने की कोशिश में है सुनो
रहने दो सीधी शाखों को ख़मदार मत करो
गर्दन कटे कहीं भी तो जी़नत को होगा ग़म
रख दो कटार  अपनी चमकदार मत करो
© कमला सिंह ज़ीनत

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मराठी साहित्य – मराठी कविता/गजल – ☆ आजवर ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

? आजवर ?

 

(सुश्री प्रभा सोनवणे जी  हमारी  पीढ़ी की एक वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं ।  प्रस्तुत है e-abhivyakti के विशेष अनुरोध पर लिखी सुश्री प्रभा जी की एक बेहतरीन मराठी गजल।)

 

मोरपंखी स्वप्न माझे फक्त विरले आजवर

हेच माझ्या जीवनाचे सार ठरले आजवर

 

ना तुला जाणीव झाली सोसले मी काय ते

कोण जाणे येथ कैसे दिवस सरले आजवर

 

दोष ना देते तुला वा दोष नाही प्राक्तना

जे मिळाले त्यात आहे  मी बहरले आजवर

 

मी फुलाना काय सांगू जखम करता मज तुम्ही

वार त्यांचे काळजावर घेत फिरले आजवर

 

जे नको होते मुळी ते ही करावे लागले

तू मला प्रत्येक वेळी गृहित धरले आजवर

 

कोवळे वय येत नाही फिरुन माघारी कधी

मी कुठे आई तुझे ते बोट स्मरले आजवर

 

लोक किल्ले बांधती वाळूत, बांधो बापडे

सागरा मध्ये स्वतःच्या मस्त तरले आजवर

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पुणे – ४११०११

मोबाईल-9270729503

 

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हिन्दी साहित्य- कविता – * …. तो ज़िंदगी मिले * – डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल

डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल  

…. तो ज़िंदगी मिले 

(प्रस्तुत है  डॉ उमेश चंद्र शुक्ल जी  की एक बेहतरीन गजल)

 

जी डी पी उछल रही हमें फक्र है खुदा,
तू खैरात बाँटना  छोड़ दे तो जिंदगी मिले॥1॥

खेतों में सपने बोये फसल काटे जहर का,
रब को अगर तू बख्श दे तो ज़िंदगी मिले॥2॥

ऊपर औ नीचे बीच में मध्यम है पिस रहा,
नज़रें इनायत हो तो इधर ज़िंदगी मिले ॥3॥

जय जवान, जय किसान, विज्ञान की है जय,
तू धर्म बेचना  छोड़ दे तो जिंदगी मिले ॥4॥

मजबूर नहीं था कभी, अब मजलूम हो गया,
मज़लूमों को अगर बख्श दे तो जिंदगी मिले ॥5॥

हमने खून-पसीने से सींचा है हिंदुस्तान ‘उमेश’
तू खून पीना छोड़ दे अगर तो जिंदगी मिले ॥6॥

©  डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल

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