हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 233 ☆ व्यंग्य – जागी हुई अन्तरात्मा का उपद्रव ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर विचारणीय व्यंग्य – जागी हुई अन्तरात्मा का उपद्रव। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 233 ☆

☆ व्यंग्य –  जागी हुई अन्तरात्मा का उपद्रव

एक रात लल्लूलाल लिपिक ने सपना देखा कि यमराज उससे कह रहे हैं, ‘बेटा लल्लूलाल, तुमने खूब रिश्वत खायी है, इसलिए नरक में तुम्हारे लिए कमरा रिज़र्व हो गया है।’ उन्होंने लल्लूलाल को नरक के दृश्य भी दिखाये जिन्हें देखकर लल्लूलाल की घिघ्घी बँध गयी। डर के मारे उसकी नींद खुल गयी और वह सारी रात लेटा लेटा रोता रहा, अपने कान पकड़ पकड़ कर ऐंठता रहा।

दूसरे दिन दफ्तर में भी लल्लूलाल काम करने की बजाय अपनी टेबल पर सिर रखकर रोता रहा। उसके सब साथी उसके चारों तरफ एकत्र हो गये।

छोटेलाल ने पूछा, ‘क्या बात है लल्ल्रू? कोई ठेकेदार कुछ देने का वादा करके मुकर गया क्या? ऐसा हो तो बताओ, हम एक मिनट में उसकी खाट खड़ी कर देंगे।’

लल्लूलाल विलाप करके बोला, ‘नहीं भइया, मैंने बहुत पाप किया है, बहुत रिश्वत खायी है। अपना परलोक बिगाड़ लिया। अब मेरी अन्तरात्मा जाग गयी है। मैं अपने पापों को धोना चाहता हूँ।’

मिश्रा बोला, ‘कैसे धोओगे’?

लल्लूलाल ने जवाब दिया, ‘मैं ऊपर अफसरों को लिखकर अपने अपराध स्वीकार करूँगा, अखबारों में छपवाऊँगा। छज्जूमल एण्ड कम्पनी और गिरधारीलाल एण्ड संस से जितना पैसा लिया है सबका हिसाब दूँगा।’

छोटेलाल बोला, ‘बेटा, डिसमिस हो जाओगे। जेल भोगोगे सो अलग।’

लल्लूलाल सिर हिलाकर बोला, ‘चाहे जो हो, अब मुझे परलोक बनाना है।’

मिश्रा बोला, ‘बाल बच्चे भीख मांगेंगे।’

लल्लूलाल हाथ हिला कर बोला, ‘माँगें तो माँगें। मैंने कोई सालों का ठेका ले रखा है?’

यह सुनकर दफ्तर में खलबली मच गयी। बड़ी भागदौड़ शुरू हो गयी। बड़े बाबू अपनी तोंद हिलाते तेज़ी से लल्लूलाल के पास आये, बोले, ‘लल्लू, यह क्या पागलपन है?’

लल्लूलाल ने जवाब दिया, ‘कोई पागलपन नहीं है दद्दा। अब तो बस परलोक की फिकर करना है। बहुत नुकसान कर लिया अपना।’

बड़े बाबू बोले, ‘लेकिन जब तुम छज्जूमल वाले केस को कबूल करोगे तो पूछा जाएगा कि और किस किस ने लिया था।’

लल्लूलाल ने जवाब दिया, ‘पूछेंगे तो बता देंगे।’

बड़े बाबू ने माथे का पसीना पोंछा, बोले, ‘उसमें तो साहब भी फँसेंगे।’

लल्लूलाल बोला, ‘फँसें तो फँसें। हम क्या करें? जो जैसा करेगा वैसा भोगेगा।’

बड़े बाबू बोले, ‘तुम्हें साहब की नाराजगी का डर नहीं है?’

लल्लूलाल बोला, ‘अरे, जब डिसमिसल और जेल का डर नहीं रहा तब साहब की नाराजगी की क्या फिक्र करें।’

बड़े बाबू तोंद हिलाते साहब के कमरे की तरफ भागे। जल्दी ही साहब के केबिन में लल्लूलाल का बुलावा हुआ। साहब ने उसे खूब फटकार लगायी, लेकिन लल्लूलाल सिर्फ रो रो कर सिर हिलाता रहा। साहब ने परेशान होकर बड़े बाबू से कहा कि वे उसे उसके घर छोड़ आएँ और उस पर खड़ी नज़र रखें।

बड़े बाबू, छोटेलाल और दो-तीन अन्य लोग लल्लूलाल को पकड़कर घर ले गये और उसे बिस्तर पर लिटा दिया।

बड़े बाबू ने उसकी बीवी और लड़कों को बुलाकर कहा, ‘देखो, यह पागल तुम लोगों से भीख मँगवाने का इन्तजाम कर रहा है। इसे सँभालो, नहीं तो तुम कहीं के नहीं रहोगे।’

लल्लूलाल के बीवी-बच्चों ने उस पर कड़ी निगरानी शुरू कर दी। साहब के हुक्म से दफ्तर का एक आदमी चौबीस घंटे वहाँ मौजूद रहता। बड़े बाबू बीच-बीच में चक्कर लगा जाते। लल्लूलाल बाथरूम भी जाता तो कोई दरवाजे पर चौकीदारी करता। उसके कमरे से कागज-कलम हटा लिए गये। कोई मिलने आता तो घर का एक आदमी उसकी बगल में बैठा रहता।

लल्लूलाल ने छुट्टी लेने से इनकार कर दिया तो बड़े बाबू ने उससे कह दिया कि छुट्टी लेने की कोई ज़रूरत नहीं है। वे हाजिरी- रजिस्टर लल्लूलाल के घर भेज देते और लल्लूलाल वहीं दस्तखत कर देता।

लल्लूलाल घर में दिन भर भजन- पूजा में लगा रहता था। सवेरे से वह नहा धोकर शरीर पर चन्दन पोत लेता और फिर दोपहर तक भगवान की मूर्ति के सामने बैठा रहता। बाकी समय वह रामायण पढ़ता रहता। घर के लोग उसके इस परिवर्तन से बहुत हैरान थे।

जब लल्लूलाल का चित्त कुछ शान्त हुआ तब साहब के इशारे पर बड़े बाबू ने उसके पास बैठकें करना शुरू किया। उन्होंने उसे बहुत ऊँच-नीच समझाया। कहा, ‘देखो लल्लूलाल, तुमने आगे के लिए रिश्वतखोरी छोड़ दी यह तो अच्छी बात है, लेकिन यह चिट्टियाँ लिखने वाला मामला ठीक नहीं है। इस बात की क्या गारंटी है कि ऊपर पहुँचने पर तुम्हें स्वर्ग मिल ही जाएगा? अगर वहाँ पहुँचने पर तुम्हें पिछले रिकॉर्ड के आधार पर ही नरक भेज दिया गया तब तुम्हारे दोनों लोक बिगड़ जाएँगे।’

लल्लूलाल सोच में पड़ गया।

बड़े बाबू उसे पुचकार कर बोले, ‘लल्लूलाल, तुम तो आजकल काफी पढ़ते हो। यह सब माया है। न कोई किसी से लेता है, न कोई किसी को देता है। सब अपनी प्रकृति से बँधे कर्म करते हैं। तुम बेकार भ्रम में पड़े हो।’

लल्लू लाल और गहरे सोच में पड़ गया, बोला, ‘लेकिन पुराने कर्मों का प्रायश्चित तो करना ही पड़ेगा दद्दा।’

बड़े बाबू बोले, ‘अरे, तो प्रायश्चित करने का यह तरीका थोड़े ही है जो तुम सोच रहे हो। इस तरीके से तो तुम्हारे साथ-साथ दस और लोगों को कष्ट होगा। दूसरों को कष्ट देना धर्म की बात नहीं है।’

लल्लूलाल चिन्तित होकर बोला, ‘तो फिर क्या करें?’

बड़े बाबू उसकी पीठ पर हाथ रख कर बोले, ‘मूरख! हमारे यहाँ तो पाप धोने का सीधा तरीका है। गंगा स्नान कर आओ।’

लल्लूलाल गंगा स्नान के लिए राजी हो गया। फटाफट उसकी तैयारी कर दी गयी। साहब का हुकुम हुआ कि छोटेलाल भी उसके साथ जाए, कहीं लल्लूलाल बीच में ही फिर पटरी से न उतर जाए।

छोटेलाल कुनमुनाया, बोला, ‘अभी से क्या गंगा स्नान करें?’

बड़े बाबू बोले, ‘बेटा, पिछला साफ कर आओ, फिर आगे की फिकर करो। ज्यादा एरियर एकत्र करना ठीक नहीं।’

उसने पूछा, ‘खर्च का इन्तजाम कहाँ से होगा?’

बड़े बाबू ने साहब से पूछा। साहब ने कहा, ‘छज्जूमल के यहांँ से पाँच हजार रुपया उठा लो। कह देना, धरम खाते में डाल देगा।’

और एक दिन लल्ल्रूलाल को उसकी बीवी और छोटेलाल के साथ ट्रेन में बैठा दिया गया। स्टेशन पर साहब भी उसे विदा करने आये। ट्रेन रवाना हो जाने पर उन्होंने लम्बी साँस छोड़ी।

दफ्तर लौटने पर बड़े बाबू जैसे थक कर कुर्सी पर पसर गये। मिश्रा से बोले, ‘भइया, यह अन्तरात्मा जब एक बार सो कर बीच में जाग जाती है तो बहुत गड़बड़ करने लगती है।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 232 ☆ व्यंग्य – एक रोमांटिक की त्रासदी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर विचारणीय व्यंग्य ‘एक रोमांटिक की त्रासदी’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 232 ☆

☆ व्यंग्य –  एक रोमांटिक की त्रासदी

नन्दलाल हमारी मित्र-मंडली में भीषण रोमांटिक आदमी है, बर्नार्ड शॉ के शब्दों में ‘लाइलाज रोमांटिक स्वभाव वाला।’ बाकी हम सब लोग खाने-कमाने और ज़मीन पर रहने वाले लोग हैं। नन्दलाल अपने ऊपर ज़बरदस्ती साहित्यिक मुद्रा ओढ़े रहता है। वैसे उसकी साहित्यिक समझ खासी घटिया है, लेकिन उसे उस पर बेहद नाज़ है। सस्ते बाज़ारू शेर सुनकर उन पर घंटों सिर धुनता है। इश्क, माशूक और चांद-सितारों वाले शेरों से उसने कई कॉपियां भर रखी हैं। उनमें से कई उसे याद भी हैं, भले ही कुछ शब्द और टुकड़े छूट जाएँ। लेकिन उसे परेशानी इसलिए नहीं होती कि उन शेरों का मतलब उसे खुद भी नहीं मालूम।

तलफ्फुज़ के मामले में उसकी हालत दर्दनाक है, ‘शेर’ को ‘सेर’ और ‘माशूक’ को ‘मासूक’ कहने वाला। उसके ‘सेर’ सुनकर जानकारों का रक्तचाप बढ़ जाता है, सिर फोड़ लेने की इच्छा बलवती हो जाती है, लेकिन नन्दलाल इस स्थिति से बेखबर ‘सेर’ पर ‘सेर’ मारे जाता है। उर्दू के किसी विद्वान को आत्महत्या के लिए प्रेरित करने हेतु नन्दलाल का उपयोग सफलता से किया जा सकता है।

नन्दलाल का पूरा व्यक्तित्व रूमानियत से सराबोर है। बादशाह अकबर की तरह बैठकर फूल सूँघते रहना उसे बहुत प्रिय है। लड़कियों के मामले में अपने दीवानेपन के लिए वह कुख्यात है। लेकिन उसका प्रेम विशुद्ध अफलातूनी होता है। लड़कियों को ख़त लिखना और उनके ख़तों पर आहें भरना उसका प्रिया शग़ल है। बाज़ार में किसी सुन्दर लड़की को देखकर उसकी आत्मा शरीर का साथ छोड़ देती है। वह किसी ‘ज़ोम्बी’ की तरह विदेह हुआ, लड़की के पीछे खिंचा चला जाता है। उस वक्त उसे हिला-डुला कर ज़मीन पर वापस लाना पड़ता है।

नन्दलाल अपने दोस्तों को धिक्कारता रहता है। कहता है, ‘तुम लोगों को रोटी-दाल के सिवा इस दुनिया में कुछ दिखाई नहीं पड़ता। दुनिया कितनी खूबसूरत है, जरा आँखें खोल कर देखो। यों ही एक दिन रोटी कमाते कमाते मर जाओगे।’ और फिर वह दो तीन ‘सेर’ जड़ देता है।

चाँदनी रातों में नन्दलाल बदहवास हो जाता है। कहीं मैदान में घंटों चाँदनी के नीचे लुढ़कता रहता है और हम लोगों को अपने पास पकड़ कर घंटों ‘बोर’ करता है। माशूक के मुखड़े की चाँद से तुलना करने वाले पचास साठ ‘सेर’ सुना देता है।

उसके आनन्द में सबसे ज़्यादा बाधा छुट्टन डालता है। जब नन्दलाल आँखें बन्द करके ‘सेर’ सुनाता होता है, तभी वह कसमसाने लगता है। कहता है, ‘यार, मैं चलूँ। भैंस को चारा डालना है। बाबूजी गुस्साएँगे।’

छुट्टन ‘गुस्साएँगे’ जैसे नूतन शब्द प्रयोग करने के लिए विख्यात है। नन्दलाल उसकी बात सुनकर भिन्ना जाता है। जबड़े भींच कर कहता है, ‘भैंसों को पालते पालते तुम भी भैंसा हो गये। जाओ, किसी चरई के किनारे खड़े होकर पूँछ हिलाओ।’

छुट्टन पर कोई असर नहीं होता। वह अपनी पतलून की घास झाड़ता उठ खड़ा होता है। कहता है, ‘कल से वह ठीक से खा-पी नहीं रही है। ढोर-डाक्टर को दिखाना पड़ेगा। तुम्हारे शेरों से दूध नहीं निकलने वाला।’

गुस्से में नन्दलाल के मुँह से एक मिनट तक शब्द नहीं निकलते। चेहरा लाल भभूका हो जाता है। शेर सब लटपट हो जाते हैं। छुट्टन के जाने पर हिकारत से कहता है, ‘साला बिना सींग- पूँछ का जानवर। ढोर कहीं का।’

लेकिन एक दिन नन्दलाल का रूमानीपन सूली पर चढ़ गया। कम से कम हमारे सामने तो उसने रूमानियत झाड़ना बन्द ही कर दिया। हमें काफी राहत महसूस हुई।

बात यह हुई कि एक दिन छुट्टन मुझे, नन्दलाल और राजू को बीस पच्चीस मील दूर एक गाँव में ले गया जहाँ उसकी ज़मीन थी। नन्दलाल बहुत उत्साह में गया क्योंकि उसे आवारागर्दी बहुत पसन्द है।

छुट्टन का गाँव सड़क से काफी हटकर था। सड़क भी ऐसी कि जहाँ से दिन भर में मुश्किल से तीन चार बसें निकलती हैं। हम लोग सुबह दस ग्यारह बजे बस से उतरे। फिर हमें करीब तीन मील पैदल चलना पड़ा। तीन मील धूप में चलने में नन्दलाल की हुलिया बिगड़ गयी। उसका उत्साह आधा हो गया। किसी तरह मुँह बनाते, रोते- झींकते उसने सफर पूरा किया।

बहुत छोटा सा गाँव था, करीब पच्चीस तीस घर का। लेकिन गाँव के नज़दीक पहुँचकर नन्दलाल का उत्साह लौट आया। खेतों में खड़ी फसल देखकर उसकी रूमानियत फिर जाग गयी। वैसे उसके लिए गन्ने को छोड़कर और किसी पौधे को पहचानना मुश्किल था, लेकिन हरियाली को देखकर उसका दिल भी हरा हो जाता था।

छुट्टन का घर उसके खेतों के बीच में था जिसको देखने के लिए उसने एक कारिन्दा रख छोड़ा था। वह खपरैल वाला कच्चा घर था। उसे देखकर नन्दलाल बाग़ ब़ाग हो गया। झूम कर बोला, ‘क्या खूबसूरत घर है, खेतों के बीच में। एकदम फिल्मी चीज है। शहर के मकान देखते देखते जी भर गया।’

छुट्टन बोला, ‘बेटा, एक रात गुजारोगे तो आसमान से जमीन पर आ जाओगे।’

वहाँ पहुँचकर छुट्टन तो कामकाज में लग गया और हम लेट कर सुस्ताने लगे। नन्दलाल कूदफाँद मचाये था। कभी घर में घुस जाता, कभी दौड़कर खेतों की मेड़ पर खड़ा हो जाता। वह बहुत खुश था।

छुट्टन का कारिन्दा एक पंडित था। थोड़ी देर में वह अपने घर से खाना बनवा कर ले आया। मोटी मोटी रोटियाँ, पनीली दाल, लौकी की सब्ज़ी और कैथे की चटनी। भूख के मारे बहुत अच्छा लगा। नन्दलाल खाने पर लट्टू हो रहा था। गाँव की मोटी मोटी रोटियों के प्रति भी लोगों के मन में एक रोमांस होता है। वह उसी का शिकार था। ‘वाह वाह’ करते उसने खाना खाया।

थोड़ी देर बाद छुट्टन हमें कुछ दूर नदी किनारे ले गया। छायादार बड़े-बड़े पेड़ थे और साफ, नीला पानी शोरगुल करता, उछलता- कूदता बह रहा था। सामने नीला आसमान था और रुई के टुकडे़ जैसे तैरते बादल। खेत सोने के रंग में रंगे लगते थे।

देखकर नन्दलाल पर जैसे दौरा पड़ गया। उसके मुँह से मशीनगन की गोलियों की तरह ‘सेर’ छूटने लगे। किसी तरह उसके मुँह पर ढक्कन रखने में हम सफल हुए, फिर वह आहें भरते भरते सो गया। खुर्राटे भरने लगा। करीब दो घंटे तक बेहोश सोता रहा।

जब वह जागा तो साये लंबे होने लगे थे। सूरज झुक आया था। अब छुट्टन हड़बड़ी मचाये था। सड़क से आखिरी बस छः बजे निकलती थी। उसके बाद सबसे पहली बस सुबह सात बजे ही थी।

लेकिन नन्दलाल अपनी जगह से नहीं हिला। वह इधर-उधर आँखें पसारकर आहें भरता रहा। बार-बार कहता, ‘अबे, चलते हैं। वहाँ शहर में यह नजारा कहाँ मिलने वाला।’

उसकी रंगीन तबियत के  फलस्वरूप हम लोग पाँच बजे तक गाँव से रवाना नहीं हो पाये। फिर रास्ते भर हम लोग उसे जल्दी चलने के लिए धकियाते रहे, लेकिन उसके पाँव जैसे मन-मन भर के हो गये थे।

नतीजा यह हुआ कि जब हम लोग सड़क से करीब आधा मील दूर थे तभी हमें बस आती दिखी। हम लोग दौड़े, हाथ हिलाया, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। हम लोगों ने नन्दलाल को पेट भर गालियाँ दीं। वह चुप्पी साध कर रह गया।

हम फिर लौट कर गाँव गये। अब की बार नन्दलाल की हालत खराब हो गयी। अब किसी प्राकृतिक दृश्य का उस पर असर नहीं पड़ रहा था। वह मरियल टट्टू की तरह सिर लटकाये,  पाँव घसीटता चलता रहा। घर पहुँच कर वह ऐसे पड़ रहा जैसे उसके प्राण निकल गये हों।

पंडित जी ने फिर भोजन का प्रबंध किया, लेकिन अब नन्दलाल ‘वाह वाह’ करना भूल गया था। वह सिर झुकाये, मातमी चेहरा बनाये भोजन ठूँसता रहा।

घर में सिर्फ दो खाटें थीं, जिन में से एक पर पंडित जी सोते थे। पंडित जी ने प्रस्ताव रखा कि दो तीन खाटें गाँव से मँगा लें, लेकिन हमने मना कर दिया। फिर उन्होंने कहा कि हम लोग दो खाटों पर सो जाएँ, वे ज़मीन पर सो जाएँगे। लेकिन हमने ज़मीन पर सोने का निश्चय किया।

हम ज़मीन पर दो दरियाँ बिछाकर लेट गये। पंडित जी थोड़ी दूर खाट पर लेटकर नाक बजाने लगे। नन्दलाल चुपचाप लेट गया। उसकी बोली बन्द हो गयी थी।

रात घुप्प अँधेरी थी। दूर कहीं कोई रोशनी कभी-कभी टिमटिमाती थी। हवा चलती तो पेड़ ‘खड़ खड़ सूँ सूँ ‘ करने लगते। दिन का सुहावना दृश्य अब खासा भयानक हो गया था। मच्छरों का भीषण आक्रमण हुआ। छोटे मच्छर थे, बिना आवाज़ किये मार करते थे। नन्दलाल शरीर पर पट्ट पट्ट हाथ मारने लगा। फिर उठकर बैठ गया, बोला, ‘बड़े बगदर हैं।’

मैंने कहा, ‘शुद्ध भाषा बोलो। ‘बगदर’ नहीं, ‘मच्छर’ कहो।’

वह चिढ़कर बोला, ‘चुप रह बे,’ और वापस लेट गया। लेकिन उसकी और हम सब की नींद हराम थी। मच्छरों को शहरी खून काफी पसन्द आ रहा था।

नन्दलाल ने थोड़ी देर में फिर आँखें खोलीं। इधर-उधर देखकर बोला, ‘बाप रे, कैसा डरावना लगता है। मुझे तो डर लग रहा है।’

फिर थोड़ा रुक कर उसने मुझे हिलाया, कहा, ‘दत्तू, सो गये क्या यार?’

मैंने आँखें बन्द किये ही कहा, ‘जाग रहा हूँ। क्या बात है?’

वह कुछ लज्जित होकर बोला, ‘कुछ नहीं’, और चुप हो गया।

थोड़ी देर में सामने कहीं से एक औरत की चीखें आने लगीं। ऐसा लगता था जैसे चीखने वाला इधर-उधर दौड़ रहा हो। बड़ी भयानक और रोंगटे खड़ी कर देने वाली चीखें थीं। हम सब की नींद खुल गयी। लेकिन पंडित जी अब भी नाक बजा रहे थे।

छुट्टन ने पंडित जी को जगा कर पूछा। पंडित जी उठकर बैठ गये, फिर दाढ़ी खुजाते हुए बोले, ‘एक काछी की बहू है। पागल हो गयी है। रोज ऐसा ही करती है। अभी घर के लोग पकड़ कर ले जाएँगे।’ फिर वे दाढ़ी खुजाते खुजाते  लेट कर सो गये।

और सचमुच थोड़ी देर में चीखें  बन्द हो गयीं। हम लोग फिर ऊँघने लगे। लेकिन नन्दलाल को बड़ी देर तक नींद नहीं आयी। वह देर तक मेरा हाथ पकड़े रहा। बार-बार कहता, ‘यार, सो गये क्या?’ और मैं आधी  नींद में जवाब देता, ‘नहीं।’

किसी तरह राम राम करते सवेरा हुआ। सवेरे नन्दलाल की हालत दयनीय थी। बिखरे बाल, नींद न आने के कारण गुलाबी आँखें, भारी पलकें और उतरा हुआ बासी मुँह। चुपचाप मुँह धोकर वह एक तरफ खड़ा हो गया।

छुट्टन ने चाय पीने का प्रस्ताव रखा तो नन्दलाल ने जोर से प्रतिवाद किया। बोला, ‘नहीं, नहीं, वहीं सड़क पर पियेंगे।’

हम वहाँ से चल दिये। नन्दलाल अब सबसे आगे तेज़ी से चल रहा था। चिड़ियों की आवाज़ से वातावरण भरा था। मैंने देखा, पूर्व में सूरज का नारंगी गोला धीरे-धीरे उठ रहा था।

मैंने नन्दलाल को आवाज़ देकर कहा, ‘देख नन्दू, सूरज कैसा सुन्दर लग रहा है।’

लेकिन हमारा परम रोमांटिक नन्दू, इन सब बातों से बेखबर, सिर झुकाये, बस के लिए दौड़ा जा रहा था।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 230 ☆ व्यंग्य – साहित्य में फौजदारी तत्व ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय व्यंग्य – साहित्य में फौजदारी तत्व। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 230 ☆

☆ व्यंग्य –  साहित्य में फौजदारी तत्व

मुकुन्दीलाल ‘दद्दा’ नगर के सयाने कवि हैं। वैसे ‘दद्दा’ हर विधा में दख़ल रखते हैं। रचना की कूवत यह कि रात भर में सौ डेढ़-सौ पन्ने की किताब लिखकर फेंक देते हैं। अब तक तिरपन किताबें छपवा चुके हैं। नगर के साहित्यकारों में उनका पन्द्रह बीस का गुट है जो उन्हें ‘दद्दा’ कह कर पुकारते हैं। इसीलिए मुकुन्दीलाल जी ने अपना उपनाम ही ‘दद्दा’ रख लिया है।

‘दद्दा’ के गुट के लोग उनके प्रति समर्पित हैं। उनके इशारे पर उनके विरोधियों पर शब्द-बाण चलाते हैं। ज़रूरत पड़ने पर असली लाठी भाँजने को भी तैयार रहते हैं। तीन-चार सेवाभावी चेले सबेरे गुरू जी के घर पहुँच जाते हैं। गुरुपत्नी के आदेश पर बाजार से सौदा-सुलुफ ले आते हैं।

‘दद्दा’ के शिष्यों का उनके प्रति भक्ति-भाव ऐसा है कि उन्होंने आपस में निर्णय कर लिया है कि ‘दद्दा’ के स्वर्गवासी होने पर उनकी मूर्ति नगर के किसी चौराहे पर लगवाएंँगे, जैसी साहित्यकारों की मूर्तियाँ रूस में लगी हैं। साथ ही यह निर्णय हुआ है कि ‘दद्दा’ के घर की गली को ‘दद्दा मार्ग’ का नाम भी दिलाया जाएगा। ‘दद्दा’ के स्वर्गवासी होते ही इस दिशा में युद्ध-स्तर पर काम शुरू हो जाएगा।

फिलहाल खबर यह है कि ‘दद्दा’ जी को लेकर एक सनसनीखेज़ घटना घट गयी। नगर के गांधी भवन में ‘दद्दा’ की चौंवनवी किताब पर कार्यक्रम था। किताब ‘दद्दा’ के निबंधों की थी। शीर्षक था ‘दद्दाजी कहिन’। किताब पर बोलने के लिए ‘दद्दा’ जी के एक शिष्य ने नागपुर के एक विद्वान श्री विपिन बिहारी ‘निर्मम’ का नाम सुझाया था। ‘निर्मम’ जी की स्वीकृति भी प्राप्त हो गयी थी और उन्हें किताब भेज दी गयी थी।

‘दद्दा’ जी के चेलों ने कार्यक्रम की पूरी तैयारी की थी। चालीस पचास लोगों को बार-बार फोन करके खींच लाये। एक भूतपूर्व मंत्री को अध्यक्षता के लिए ले आये। सभी स्थानीय अखबारों में समाचार दे दिया।

कार्यक्रम के संचालक ‘दद्दा’ जी के शिष्य थे। उन्होंने ‘दद्दा’ जी का परिचय देते हुए उन्हें प्रेमचंद और ‘प्रसाद’ की पाँत का लेखक बता दिया। इसके बाद बोलने की बारी ‘निर्मम’ जी की आयी। उन्होंने शुरू में किताब की खूबियाँ बतायीं, फिर खामियों पर आ गये।

‘निर्मम’ जी ने कहा कि ‘दद्दा’ जी की भाषा अच्छी और प्रभावशाली है, लेकिन उनके सोच में आधुनिकता और वैज्ञानिकता का अभाव दिखता है। कई निबंधों में उनकी सोच रूढ़िवादी दिखायी पड़ती है। दुनिया अब बहुत आगे बढ़ गयी है और आदमी के जीवन और व्यवहार में आमूल-चूल परिवर्तन हो गये हैं। ‘दद्दा’ जी इन परिवर्तनों को उस हद तक नहीं पकड़ सके हैं जैसी उनसे उम्मीद थी।

‘निर्मम’ जी अभी बोल ही रहे थे कि श्रोताओं में से ‘दद्दा’ जी के एक शिष्य ने उठकर उनके हाथ से माइक छीन लिया, बोला, ‘आप यह बकवास बन्द करें। आपमें ‘दद्दा’ जी के लेखन को समझने की क्षमता नहीं है। ‘दद्दा’ जी को समझने के लिए बहुत गहरे उतरना पड़ता है। यह काम आपके बस का नहीं है। हमसे गलती हुई जो इस कार्यक्रम में आपको बुला लिया।’

‘निर्मम’ जी सिटपिटाकर बैठ गये। श्रोताओं में से एक चिल्लाकर बोला, ‘आप बाहर आइए। हम आपका आलोचना का सारा भूत उतार देंगे। आपकी इतनी हिम्मत कि हमारे ‘दद्दा’ जी की आलोचना करते हैं? बाहर निकलिए, फिर हम आपको बताते हैं।’

‘निर्मम’ जी भयभीत होकर कुर्सी में धँसे रह गये। जैसे तैसे अध्यक्ष जी का भाषण हुआ। कार्यक्रम समाप्त होने पर ‘दद्दा’ जी के शिष्य बाहर ‘निर्मम’ जी का ‘अभिनन्दन’ करने के लिए उनका इन्तज़ार करने लगे।

‘निर्मम’ जी ने हवा का रुख भाँप लिया। ‘दद्दा’ जी के जिन शिष्य ने उन्हें बुलाया था उनसे 100 नंबर पर फोन कराके पुलिस की मदद माँगी। थोड़ी देर में पुलिस की जीप आ गयी और उनकी कैफियत लेकर उन्हें रेलवे स्टेशन ले गयी जहाँ उन्हें रेलवे पुलिस की अभिरक्षा में सौंप दिया गया। कार्यक्रम स्थल से जीप चली तो पीछे से ‘दद्दा’ जी के शिष्य चिल्लाये, ‘बच्चू, इस बार तो बच गये। अगली बार हमारे शहर में आओगे तो बिना पूजा कराये नहीं जा पाओगे।’

रेलवे पुलिस के थाने में पहुँचकर ‘निर्मम’ जी एक कुर्सी में दुबके राम राम जपते रहे। उनकी गाड़ी रात में थी। गाड़ी का समय हुआ तो उन्होंने थानेदार से इल्तिजा की कि उनके साथ दो सिपाहियों को भेज दें जो उन्हें डिब्बे में बैठा दें और गाड़ी रवाना होने तक वहीं रुके रहें।

अन्ततः गाड़ी रवाना हुई तो चोटी पर चढ़े ‘निर्मम’ जी के प्राण वापस उतरे।

आइए,अब  हम सब मिलकर मनाएँ  कि जैसे ‘निर्मम’ जी अपने घर सुरक्षित वापस लौटे वैसे ही सब आलोचक सुरक्षित अपने घर वापस लौटें।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 260 ☆ व्यंग्य – पुरस्कार ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य – पुरस्कार)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 260 ☆

? व्यंग्य – पुरस्कार ?

वरिष्ठ व्यंग्यकार को बड़ा नगद  पुरस्कार मिला था। दिलवाने वाले प्रकाशक के साथ सेलिब्रेट कर रहे थे। एक एक पैग लेने के बाद वरिष्ठ व्यंग्यकार ने प्रकाशक से कहा प्रकाशन के लिए होड़ की दौड़ है। व्यंग्य खतरे में है। काजू खाते हुए प्रकाशक ने हामी भरी। उसने कहा प्रूफ पढ़े बिना अप्रूव कर देते हैं। सोशल मीडिया के स्व संपादित त्वरित प्रकाशन से संपादन पर विराम लग गया है।

गिलास में सोडा मिलाकर अगला पैग बनाते हुए चर्चा बढ़ी, व्यंग्य लोकप्रिय विधा है। शीर्षक और कुछ अदल बदल कर वही लेख, अलग अलग प्रकाशनों से नई नई किताबों के रूप में छप रहे हैं। पैसे वाले लेखकों के लिए पुस्तक प्रकाशन अब निवेश है। नाम, सम्मान और पुरस्कार के लिए ये इन्वेस्टमेंट धड़ल्ले से किया जा रहा है।  पुरस्कार सैटिंग है।

प्रकाशक बोला ज्यादातर व्यंग्य लेखन, साहित्य, कला और बहुत हुआ तो राजनेताओं, पोलिस के गिर्द लिखे जा रहे हैं, शायद लेखक स्वयं पर कोई जोखिम नहीं उठाना चाहता।

लेखक ने बात बढ़ाई, साफगोई का अभाव बड़ा संकट लगता है। धर्म पर कुछ लिख दो बिना समझे ही फतवे लेकर भीड़ खड़ी मिलती है, भावनाए बहुत जल्दी आहत हो रही हैं। इसलिए व्यंग्यकार मेन प्लेटफार्म की जगह बाई पास से निकल जाना चाहता है।

प्रकाशक हंसा …जहां उसे यश तो मिल जाए पर खतरे न हो।

फिर गंभीर होकर बोला ये तो सब ठीक है, आपकी कोई भी नई पांडुलिपि दीजिए, सरस्वती  पुरस्कार वालों से आपके लिए बात हो गई है।

वरिष्ठ लेखक की आंखों में चमक आ गई। उन्होंने कहा, अरे अब क्या नया क्या पुराना, साहित्य तो साहित्य है। तुम तो ज्ञान  पुरस्कार के लिए जो किताब छापी थी उसी मैटर को हर पैरा के लघु व्यंग्य कथा बनाकर छाप लो और पुस्तक जमा करवा दो। पर यार इस बार कवर धांसू होना चाहिए, और हां संस्कृति सचिव से भूमिका जरूर लिखवा लेना।

दोनो मुस्कराते हुए अगला पैग गटकने लगे।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 225 ☆ “डिजिटल एनिमल” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय व्यंग्य – “डिजिटल एनीमल)

☆ व्यंग्य “डिजिटल एनीमल☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

इंसान के बारे में कहा जाता है कि वह सामाजिक प्राणी है। आप मानें या माने पर आज के इंसान को सामाजिक प्राणी की जगह डिजिटल एनीमल कहना ज्यादा उचित लग रहा है। अब इंसान को इंसान के साथ अच्छा नहीं लगता, इंसान का दिमाग विचित्र होता जा रहा है, हर कोई अपने मूड और मस्ती में रहना चाहता है। कान में आइपोड या प्लग्स लगाकर बैठे व्यक्ति से कुछ कहो तो वह चिढ़ जाता है, फिर आज के इंसान को कैसे कहें कि वह सामाजिक प्राणी है।

सभी के दोनों हाथों में मोबाइल है, मोबाइल के अलावा लेपटॉप या टेबलेट जैसा दूसरा कोई न कोई डिजिटल इंस्ट्रूमेंट भी साथ है, यार भाई… तू तो सामाजिक प्राणी है फिर एक घंटे मोबाइल से अलग रहने की बात से इतना तू अपसेट क्यूं होता है, यदि बैटरी लो हो रही हो तो तू डाउन क्यूं हो जाता है? आठ दस घंटे मोबाइल के चक्कर में तू असामाजिक होने जैसी हरकतें क्यूं करने लगता है? तू तो अपने आपको सामाजिक प्राणी कहता है फिर तुझे मोबाइल में वह अमुक चेहरा क्यूं अच्छा लगने लगता है, जिससे तू मिला भी नहीं है जिसे तू पहचानता भी नहीं है। फिर क्यूं दिनों रात उसी के बारे में सोचता रहता है? तेरे दिल दिमाग में वो अमुक हीरोइन छायी रहती है, ऐसा लगता है जैसे वो तुम्हारे साथ रहती है। यार भाई…तू जाग, तू तो सामाजिक प्राणी है तो तू हमेशा ख्यालों में क्यूं जीने लगा? ऐसा लग रहा है कि तू अपनी लवस्टोरी में अपने साथ एक वर्चुअल पार्टनर के संग जी रहा है, फेसबुक, वाट्स अप, इंस्टाग्राम में तुम्हारा प्यार और संबंध डिजिटल हो गए हैं। तुझे प्यार जैसा कुछ होता तो है पर वह लम्बे समय टिकता नहीं, ब्रेकअप के मामले में तू तो ज्यादा सामाजिक हो गया है।      

प्राइवेसी का नाम तू और तेरा मोबाइल हो गया है, दिखावे की दुनिया का तू सरताज हो गया है। याद है जब माता-पिता ने तेरा जबरदस्ती विवाह किया था तो बारात बिदा होते ही कार में बैठे बैठे तू तुरंत नव परिणित युगल स्टेट्स अपलोड करने में लग गया था, फूफा और जीजा की तरफ तो देखा भी नहीं था, फूफा बहुत नाराज हो गए थे तो तुम्हारे माता-पिता उनके चरणों में लोट गये थे पर तुम अपलोड करने और रील बनाने में बिजी हो गए थे। सब बाराती हंस रहे थे और तू नयी पत्नी से कह रहा था कि जब मैं मोबाइल में होऊं तो मुझे डिस्टर्ब नहीं करना, मैं क्या देख रहा हूं…क्या कर रहा हूं इस बारे में कभी कोई सवाल नही करना क्योंकि मेरे पांच हजार फ्रेंड हैं, हालांकि वे जब सामने मिलेंगे तो भले न हम पहचाने पर वे डिजिटल फ्रेंड की श्रेणी में तो आते हैं, यही फ्रेंड हमें दिन-रात लाइक और कमेंट देते हैं, ये हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है। नात- रिश्तेदार तो स्वार्थवश जुड़े होते हैं हमारी पोस्ट देखकर भी अनजान बन जाते हैं, आज के युग में नात रिश्तेदार सब असामाजिक प्राणी हो गए हैं पर लाइक और कमेंट देने वाले सच में सामाजिक प्राणी कहलाने लायक होते हैं। तुम्हें याद है शादी के दूसरे दिन तुम्हारा हनीमून था तो उस रात आकाश में पूरा मून तो निकला था पर उस रात को भी तुमने डिजिटल हनीमून मनाने का फैसला कर लिया था, और वह बेचारी रात भर तड़फती रह गई थी…

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 229 ☆ व्यंग्य – ख़ुदगर्ज़ लोग ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय व्यंग्य – ख़ुदगर्ज़ लोग। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 229 ☆

☆ व्यंग्य –  ख़ुदगर्ज़ लोग

वह आदमी सहमता, सकुचता मंत्री जी के बंगले में घुसा। भीतर पहुँचा तो देखा, लंबे चौड़े लॉन में बीस पच्चीस लोग इधर उधर आँखें मूँदे या आँखों पर बाँह धरे पड़े हैं। लगता था जैसे बीस पच्चीस लाशें बिछी हों। पास ही दो एंबुलेंस खड़ी थीं। उनमें से एक में दो लोगों को डंगाडोली बनाकर धरा जा रहा था।

आदमी उन ज़िन्दा लाशों के बगल से गुज़रा तो उनमें से एक ने आँखों पर से बाँह हटाकर उसे घूरा, फिर पूछा, ‘कौन हो भैया? कहाँ जा रहे हो?’

आदमी बहुत नम्रता से बोला, ‘मंत्री जी से मिलना था। वे हमें जानते हैं।’

ज़मीन पर लेटा आदमी बोला, ‘ज़रुर जानते होंगे, लेकिन अभी वे किसी से नहीं मिलेंगे। अभी वे शोककक्ष में हैं। ब्लड प्रेशर चेक करने के लिए डॉक्टर को चुप्पे-चुप्पे बुलाया है। विरोधी पार्टी वालों को मंत्री जी की तबियत पता नहीं लगना चाहिए।’

आगन्तुक  वहीं रुक गया। पूछा, ‘क्या हो गया मंत्री जी को?’

लेटा हुआ आदमी उठ कर बैठ गया। बोला, ‘वही राजरोग है। जो पार्टी हमें सपोर्ट कर रही थी उसने समर्थन वापस ले लिया है। राज्यपाल जी को लिखकर दे दिया है। बेईमानों से और क्या उम्मीद करेंगे? अब हमारी सरकार गिरी ही समझो। इसीलिए हम सब मंत्री जी के समर्थक ग़म में डूबे यहाँ बेसुध पड़े हैं। जब मंत्री जी पद पर नहीं रहेंगे तो हमारा क्या होगा? हमें कौन पूछेगा? अँधेरे के सिवा कुछ नहीं दिखता है। आप किस लिए आये थे?’

आगन्तुक बोला, ‘बेटे ने साल भर पहले पटवारी की परीक्षा पास की थी। अभी तक नियुक्ति पत्र नहीं मिला।’

बैठा हुआ आदमी व्यंग्य से बोला, ‘आप लोग, भैया, बड़े स्वार्थी हो। आपको अपना अपना दिखता है, हमारी परेशानी नहीं दिखती। वही नौकरी और मँहगाई का रोना। जरा सोचो, भैया जी मंत्री नहीं रहे तो हमारा क्या होगा? हमारे पास भैया जी की सेवा के सिवा कौन सा रोजगार है? कौन सा मुँह लेकर घर जाएँ?’

आगन्तुक दुखी स्वर में बोला, ‘बड़ी परेशानी है। बेटा चौबीस घंटे टेंशन में रहता है। क्या करें?’

बैठा हुआ आदमी क्रोधित हो गया, बोला, ‘बस अपनी ढपली, अपना राग। हम यहाँ इतनी बड़ी परेशानी में पड़े हैं और आप अपना बेसुरा राग अलापे जा रहे हैं। गज़ब की खुदगर्ज़ी है,भई। क्या आपका दुख हमारे दुख से बड़ा है? ये जो इतने लोग यहाँ बेहाल पड़े हैं इनका दुख आपको दिखाई नहीं देता? अब आप यहांँ से तशरीफ ले जाएँ। आप जैसे खुदगर्ज़ लोगों के कारण ही हमारे देश की जगहँसाई होती है। शर्म आनी चाहिए आपको। ‘

आगन्तुक, सोच में डूबा, धीरे-धीरे बंगले से बाहर हो गया

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 259 ☆ व्यंग्य – घर की सरकार का बजट ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य – घर की सरकार का बजट)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 259 ☆

? व्यंग्य – घर की सरकार का बजट ?

बतंगड़ जी मेरे पड़ोसी हैं। उनके घर में वे हैं, उनकी एकमेव सुंदर सुशील पत्नी है, बच्चे हैं। मैं उनके घर के रहन सहन परिवार जनो के परस्पर प्यार, व्यवहार का प्रशंसक हूं। जितनी चादर उतने पैर पसारने की नीति के कारण इस मंहगाई के जमाने में भी बतंगड़ जी के घर में बचत का ही बजट रहता है। परिवार में सदा सादा जीवन उच्च विचार वाली आदर्श आचार संहिता का सा वातावरण होता है। देश, प्रदेश में हर साल प्रस्तुत होते बजट, बजट के पूर्व एवं पश्चात टी वी डिबेट डिस्कशन का असर बतंगड़ जी के घर पर भी हुआ। बतंगड़ जी की पत्नी, और बच्चो के अवचेतन मस्तिष्क में लोकतांत्रिक भावनाये संपूर्ण परिपक्वता के साथ घर कर गई। उन्हे लगने लगा कि घर में जो बतंगड़ जी का राष्ट्रपति शासन चल रहा है जो नितांत अलोकतांत्रिक है। बच्चो को लगा उनके खर्चों में कटौती होती है। पत्नी को अपनी किटी पार्टी में बजट बढ़ोतरी की आवश्यकता याद आई।

बतंगड़ जी को अमेरिका से कंम्पेयर किया जाने लगा, जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लोकतांत्रिक सिद्धांतो की सबसे ज्यादा बात तो करता है पर करता वही है जो उसे करना होता है। बच्चो के सिनेमा जाने की मांग को उनकी ही पढ़ाई के भले के लिये रोकने की विटो पावर को चैलेंज किया जाने लगा, पत्नी की मायके जाने की मंहगी डिमांड बलवती हो गई। मुझे लगने लगा कि एंटी इनकंम्बेंसी फैक्टर बतंगड़ जी को कही का नही छोड़ेगा। अस्तु, एक दिन चाय पर घर की सरकार के लोकतांत्रिक स्वरूप को लेकर खुली बहस हई। महिला आरक्षण का मुद्दा गरमाया। संयोग वश मै भी तब बतंगड़ जी के घर पर ही था, मैने अपना तर्क रखते हुये भारतीय संस्कृति की दुहाई दी और बच्चो को बताया कि हमारे संस्कारो में विवाह के बाद पत्नी स्वतः ही घर की स्वामिनी होती है, बतंगड़ जी जो कुछ करते, कहते है उसमे उनकी मम्मी की भी सहमति होती है। पर मेरी बातें संसद में विपक्ष के व्यक्तव्य की तरह अनसुनी कर दी गई।

तय हुआ कि घर के सुचारु संचालन के लिये बजट बनाया जाए जिसे सभी सदस्यों की सहमति से पारित किया जाए। बजट प्रस्तुती हेतु बतंगड़ जी मुझसे सलाह कर रहे थे, तो आय से ज्यादा व्यय अनुमान देख मैने उन्हें बताया कि जब खर्च के लिये देश चिंता नही करता तो फिर आप क्यों कर रहे हैं ? देश विश्व बैंक से लोन लेता है, डेफिशिट का बजट बनाता है, आप भी लोन लेने के लिये बैंक से फार्म ले आयें। बतंगड़ जी के घर के बजट में बच्चो के मामा और बुआ जी के परिवार अपना प्रभाव स्थापित करने के पूरे प्रयास करते दिख रहे है, जैसे हमारे देश के बजट में विदेशी सरकारे प्रगट या अप्रगट हस्तक्षेप करती है। स्वतंत्र व निष्पक्ष आब्जरवर की हैसियत से बतंगड़ जी के दूसरे पड़ोसियो को भी बजट के डिस्कशन के दौरान उपस्थिति का बुलावा भेजा गया है।

 बजट पर बहस के नाम पर ही बतंगड़ जी के घर में रंगीनियो का सुमधुर वातावरण है, और हम सब उसका लुत्फ ले रहे हैं।

यूं भी बजट आश्वासनों का पुलिंदा ही तो होता है। घर की सरकार चलानी है तो बजट बनेगा। तय है कि विपक्ष अच्छे से अच्छे बजट को भी पटल पर रखे जाते ही बिना पढ़े ही उसे आम आदमी के लिये बोझ बढ़ाने वाला निरूपित करेगा। वोटर भी जानता है कि चुनावो वाले साल में बजट ऐसा होगा जिससे भले ही देश को लाभ न हो पर बजट बनाने वाली पार्टी को वोट जरूर मिलें।

शब्दो, परिभाषाओ में उलझा वोटर प्रतिक्रिया में कुछ न कुछ अच्छा बुरा कहेगा, ध्वनिमत से बजट पास भी हो जायेगा। पता नही कितना आबंटन उसी मद में खर्च होगा जिस के लिये निर्धारित किया जायेगा। पता नही कब कैसी विपदा आयेगी और सारा बजट धरा रह जायेगा, खर्च की कुछ नई ही प्राथमिकतायें बन जायेंगी, पर हर हाल में बजट की चर्चा और उम्मीद के सपने संजोये बजट हमेशा प्रतिक्षित रहेगा। बजट में योजना का प्रावधान ही जनता को आनंदित करने में सक्षम है। बजट प्रस्तुत होने के बाद भी जब जीवन में कोई क्रांतिकारी बदलाव नही ला पायेगा तो हम सब पागल अगले साल के बजट से उम्मींदें करने की गलतफहमियां पाल लेंगे। फिलहाल बतंगड़ जी के घर की सरकार के बजट की आहट से उन के दिल में शेयर बाजार के केंचुए की चाल की तरह धड़कने ऊपर नीचे होती दिख रही हैं, और उनकी पत्नी, बच्चो सहित कुछ आबंटन की आशा में प्रसन्न दिखती हैं।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

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हिंदी साहित्य – व्यंग्य ☆ “बेगुनाही की सजा” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ व्यंग्य – “बेगुनाही की सजा 📚 सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

‘—- ज़ाहिर सी बात है जो अंधेरे में देख सकता है उसे ज्ञानी कहते हैं। ज्ञान के आलोक में तीसरी आँख खुल जाती है। ऐसे में उल्लू की खूबियों के मद्देनज़र उसे उल्लू (मूर्ख) उलूक या घुबड़ कहना सरासर अपमान है। लक्ष्मीजी के पर्यटन मंत्री की ऐसी अवमानना। ऐसी तौहीन !

मुंबई एअरपोर्ट पर जेट एअरवेज़ के बोइंग 777 के काॅकपिट में उल्लू घुस गया। खबर बन गई।खबर तो उल्लुओं (परंपरागत अर्थ में) की ही बनती है। उल्लुओं को पेड़ों पर होना चाहिए पर 21 वीं सदी में विकास चरम पर है। अतः उसका सोचना भी स्वाभाविक है। शहर की चकाचौंध और पाँच सितारा सुविधाओं पर उल्लुओं का भी हक है। यूं कहें कि उल्लुओं का ही हक है।

समझ में नहीं आता आखिर उल्लू जेट से क्यों उतारा गया।शायद उसने हवाई चप्पल नहीं पहनी थी। कहते हैं देश में ऐसा समाजवाद आएगा कि हवाई चप्पल वाले हवाई यात्रा कर सकेंगे। वे हवाई किले भी बना पायेंगे। श्रीदेवी वाला मिस्टर इंडिया का हवा हवाई गाना भी गा सकेंगे।

जेट से निकाल बाहर करनेवाले कर्मचारी के हाथों में उल्लू बेहद भोलीभाली सवालिया मुद्रा में नज़र आया। बस हैरान परेशान सा अपनी गोल गोल आँखों से मटर मटर देखता रहा। वह अभी तक समझ नहीं पाया है  कि सारे गुनहगार देश से बेखौफ बेखटके उड़ जाते हैं । फिर लौटकर नहीं आते। उसने तो कोई गुनाह नहीं किया। वक्त बुरा हो तो बेगुनाही भी गुनाहों में शुमार की जाती है। नसीब कि उसे जेल में नहीं डाला। ई डी नहीं छुलाई।

उल्लू सोचने लगा अच्छा हुआ वह दिन में ढंग से देख नहीं पाता वर्ना उसे जाने क्या क्या देखना पड़ता। ये आदमजात भी इतनी बेढंगी और दोगली है कि क्या कहने। मूर्ति बनाकर घर में रखती है, दीवाली पर पूजा करती है, और जिन्दा उल्लुओं को दुत्कारती है। उन्हें गाली बतौर इस्तेमाल करती है। तांत्रिक भी उल्लुओं के जरिए अपना उल्लू सीधा करते हैं।

उल्लू मन में सोच रहा था – मैं काॅकपिट में ही घुसा था ना। किसी की कुर्सी पर तो नहीं बैठा था। अजीब लोग हैं एक तरफ तो कहते हैं मेरे रहने से किसी की बुरी नज़र नहीं लगती। मैं जेट में रहता तो सभी सुरक्षित और बेफिक्र रहते पर नहीं—आदमी की बुद्धि कब कौन सा रंग बदल ले कहना मुश्किल है। गिरगिट भी आदमी से चिढ़े हुये हैं। वे भी मानहानि का दावा दायर करने की सोच रहे हैं।

काश मुझे मनुष्य की भाषा आती ! टी वी के बेहूदे बेसुरे अभद्र डिबेट में सभी की पोल खोलकर रख देता। “पैचान कोन” वाले काॅमेडियन की तर्ज पर जरूर पूछता “बोलो बोलो उल्लू कौन!”

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©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 258 ☆ व्यंग्य – सुपारी लाखों की ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य – सुपारी लाखों की)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 258 ☆

? व्यंग्य – सुपारी लाखों की ?

बिदा होते हुये सहज ही किसी भी मेहमान को सुपारी प्रस्तुत किये जाने की परंपरा हमारी संस्कृति में है। बड़े प्रेम से सरौते से काट कर हाथ की गदेली में सुपारी दी ली जाती रही है। कच्ची सुपारी, सिकी सुपारी, खाने से लेकर पूजा अनुष्ठान तक, सुपारी के कई तरह के प्रयोग होते हैं। सुपारी को तांबूल फल की श्रेणी में गिना जाता है। पूजा पाठ में पंडित जी सहंगी सुपारियों से नवग्रह बनाने की क्षमता रखते हैं। विवाह में सोने, चांदी जड़ित सुपारी वर को देने की परंपरा भी हैं। आयुर्वेद में भी सुपारी से कई तरह के रोगों के उपचार किये जाते है। वास्तु विशेषज्ञ भी सुपारी का इस्तेमाल कई सारे उपाय के लिए करते हैं। सुपारी से पान पराग माउथ फ्रेशनर और गुटखा बनाकर करोड़ो के वारे न्यारे हो रहे हैं। सुप्रसिद्ध फिल्मी हीरो इन गुटखों के विज्ञापन करते नजर आते हैं। हर शहर में किसी चौराहे का कोई न कोई पान कार्नर दुनियां भर की चर्चाओ का प्रमुख सेंटर होता है। यहां कान खोलकर खड़ा संवाददाता सरलता से अखबार के सिटी पेज का अगले दिन का पन्ना तैयार कर सकता है। खासकर बोल्ड लेटर में छपने वाले बाक्स न्यूज में तो निश्चित ही किसी न किसी पान सेंटर का ही योगदान होता है। साहित्यिक अभिरुचि के लेखको, कवियों को पान सेंटर कई कहानियों प्लाट मुफ्त ही प्रदान कर देते हैं। कुछ जीवंत प्रेम कथायें भी नुक्कड़ के इन्ही ठेलों के गिर्द रच जाती हैं। सुपारी का पौधा आकर्षक होता है इसकी खेती से वर्षों तक मुनाफा होता है। रींवा में तो सुपारी पर कार्विंग कर तरह तरह की कलाकृतियां बनाई जाती हैं। अस्तु, सुपारी का कारोबार कईयों को रोजगार देता है।

इस तरह की सारी आम लोगों की सुपारी हजारों की ही होती है। किन्तु भाई लोगों की सुपारी लाखों की होती है। जिसमें वास्तविक सुपारी नदारत होती है। वर्चुएल रूप से भाई लोगों के गैंग किसी को उठा लेने के लिये, किसी को उड़ा देने के लिये लाखों की सुपरी लेते हैं। आधी रकम लेकर भाई के हेडक्वार्टर पर डील फाइनल कर दी जाती है। फिर भाई वारंट निकाल देता है। वर्क किसी गुर्गे को एसाईन हो जाता है। और काम निपटते ही  सुपारी की तय शुदा कीमत अदा कर दी जाती है। पोलिस के सायरन बजाती गाड़ियों के चक्कर लगते हैं। घटना स्थल की फोरेंसिक जांच की जाती है। साक्ष्य जुटाने के लिये घटना का पुनः नाट्य रुपांतर किया जाता है। टी वी चैनलों, अखबार के क्राईम रिपोर्टरों को फिर पान सुपारी की गुमटियों, खोंखों पर हो रही सुगबुगाहट से क्लू मिलते हैं। पोलिस के मुखबिर सुपारी चबाते खबरें तलाशते हैं। चंद सिक्कों की फिजिकल सुपारी लाखों की वर्चुएल सुपारी के अपराधों के राज खोलने में बड़ी भूमिका निभाती है।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ हिन्साप (80 के दशक की कहानी) ☆ हेमन्त बावनकर ☆

हेमन्त बावनकर

☆ कथा कहानी ☆ हिन्साप ☆ श्री हेमन्त बावनकर ☆
(80 के दशक की कथा)

“हिन्साप”! कैसा विचित्र शब्द है; है न? मेरा दावा है की आपको यह शब्द हिन्दी के किसी भी शब्दकोश में नहीं मिलेगा। आखिर मिले भी कैसे? ऐसा कोई शब्द हो तब न। खैर छोड़िए, अब आपको अधिक सस्पेंस में नहीं रखना चाहिये। वैसे भी अपने-आपको परत-दर-परत उघाड़ना जितना अद्भुत होता है, उतना ही शर्मनाक भी होता है। आप पूछेंगे कि- “हिन्साप की चर्चा के बीच में अपने-आपको उघाड़ने का क्या तुक है? मैं कहता हूँ तुक है भाई साहब, “हिन्साप” जैसे शब्द के साथ तुक होना सर्वथा अनिवार्य है। आखिर हो भी क्यों न; हिन्साप”  की नींव जो हमने रखी है? आप सोचेंगे कि “हिन्साप” की नींव हमने क्यों रखी? चलिये आपको सविस्तार बता ही दें।

कार्यालय में राजभाषा के प्रचार-प्रसार के लिये विभागीय स्तर पर प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया था। साहित्य में रुचि के कारण मैंने भी प्रतियोगिता में भाग लिया। पुरस्कार भी प्राप्त किया। किन्तु, साथ ही ग्लानि भी। ग्लानि होना स्वाभाविक था क्योंकि प्रतियोगिता, प्रतियोगिता के तौर पर आयोजित ही नहीं हुई थी। क्योंकि प्रतियोगिता विभागीय स्तर की थी तो निर्णायक का किसी विभाग का अधिकारी होना भी स्वाभाविक था, बेशक निर्णायक को साहित्य का ज्ञान हो या न हो। फिर, जब निर्णायक अधिकारी हो तो स्वाभाविक है कि पुरस्कार भी किसी परिचित या किसी को स्वार्थवश ही मिले, चाहे वह हिन्दी शब्द का उच्चारण इंदी या “इंडी” ही क्यों न करे। अब आप सोच रहे होंगे कि मुझे पुरस्कार इसलिए मिला होगा क्योंकि मैं परिचित हूँ? आप क्या कोई भी यही सोचेगा। किन्तु, मैं आपको स्पष्ट कर दूँ कि मैं कोई परिचित भी नहीं हूँ। अब मुझे यह भी स्पष्ट करना पड़ेगा कि- फिर मुझे पुरस्कार क्यों मिला? इसका एक संक्षिप्त उत्तर है स्वार्थ। वैसे तो यह उत्तर है किन्तु आप इसका उपयोग प्रश्न के रूप में भी कर सकते हैं। फिर मेरा नैतिक कर्तव्य हो जाता है कि मैं इस प्रश्न का उत्तर दूँ।

चलिये आप को पूरा किस्सा ही सुना दूँ। हुआ यूँ कि- प्रतियोगिता के आयोजन के लगभग छह-सात माह पूर्व वर्तमान निर्णायक महोदय जो किसी विभाग के विभागीय अधिकारी थे उनके सन्देशवाहक ने बुलावा भेजा कि- साहब आपको याद कर रहे हैं। मेरे मस्तिष्क में विचार आया कि भला अधिकारी जी को मुझसे क्या कार्य हो सकता है? क्योंकि न तो वे मेरे विभागीय अधिकारी थे और न ही मेरा उनसे दूर-दूर तक कोई व्यक्तिगत या विभागीय सम्बंध था। खैर, जब याद किया तो मिलना अनिवार्य लगा।

अधिकारी जी बड़ी ही प्रसन्न मुद्रा में थे। अपनी सामने रखी फाइल को आउट ट्रे में रख मेरी ओर मुखातिब हुए “सुना है, आप कुछ लिखते-विखते हैं? मैंने झेंपते हुए कहा- “जी सर, बस ऐसे ही कभी-कभार कुछ पंक्तियाँ लिख लेता हूँ।”

शायद वार्तालाप अधिक न खिंचे इस आशय से वे मुख्य मुद्दे पर आते हुए बोले- “बात यह है कि इस वर्ष रामनवमी के उपलक्ष में हम लोग एक सोवनियर (स्मारिका) पब्लिश कर रहे हैं। मेरी इच्छा है कि आप भी कोई आर्टिकल कंट्रिब्यूट करें।”

उनकी बातचीत में अचानक आए अङ्ग्रेज़ी के पुट से कुछ अटपटा सा लगा। मैंने कहा- “मुझे खुशी होगी। वैसे स्मारिका अङ्ग्रेज़ी में प्रकाशित करवा रहे हैं या हिन्दी में?” वे कुछ समझते हुए संक्षिप्त में बोले – “हिन्दी में।”

कुछ देर हम दोनों के बीच चुप्पी छाई रही। फिर मैं जैसे ही जाने को उद्यत हुआ, उन्होने आगे कहा- “आर्टिकल हिन्दी में हो तो अच्छा होगा। वैसे उर्मिला से रिलेटेड बहुत कम आर्टिकल्स अवेलेबल है।  मैंने उठते हुए कहा- “ठीक है सर, मैं कोशिश करूंगा।”

फिर मैंने कई ग्रन्थ* एकत्रित कर एक सारगर्भित लेख तैयार किया “उर्मिला – एक उपेक्षित नारी”।

(* 80 के दशक में इंटरनेट नहीं हुआ करता था)

कुछ दिनों के पश्चात मुझे स्मारिका के अवलोकन का सुअवसर मिला। लेख काफी अच्छे गेटअप के प्रकाशित किया गया था। आप पूछेंगे कि फिर मुझे अधिकारी जी से क्या शिकायत है? है भाई, मेरे जैसे कई लेखकों को शिकायत है कि अधिकारी जी जैसे लोग दूसरों की रचनाएँ अपने नाम से कैसे प्रकाशित करवा लेते हैं? अब आप इस प्रक्रिया को क्या कहेंगे? बुद्धिजीवी होने का स्वाँग रचकर वाह-वाही लूटने की भूख या शोषण की प्रारम्भिक प्रक्रिया!  थोड़ी देर के लिए मुझे लगा कि उर्मिला ही नहीं मेरे जैसे कई लेखक उपेक्षित हैं। यह अलग बात है कि हमारी उपेक्षाओं का अपना अलग दायरा है। अब यदि आप चाहेंगे कि स्वार्थ और उपेक्षित को और अधिक विश्लेषित करूँ तो क्षमा कीजिये, मैं असमर्थ हूँ।

शायद अब आपको “हिन्साप” के बारे में कुछ-कुछ समझ में आ रहा होगा। यदि न आ रहा हो तो तनिक और धैर्य रखें। हाँ, तो मैं आपको बता रहा था कि- मैंने और शर्मा जी ने “हिन्साप” की नींव रखी। वैसे मैं शर्मा जी से पूर्व परिचित नहीं था। मेरा उनसे परिचय उस प्रतियोगिता में हुआ था जो वास्तव में प्रतियोगिता ही नहीं थी। मैंने अनुभव किया कि उनके पास प्रतिभा भी है और अनुभव भी। यह भी अनुभव किया कि हमारे विचारों में काफी हद तक सामंजस्य भी है। हम दोनों मिलकर एक ऐसे मंच की नींव रख सकते हैं जो “हिन्साप” के उद्देश्यों को पूर्ण कर सके। अब आप मुझ पर वाकई झुँझला रहे होंगे कि- आखिर “हिन्साप” है क्या बला? जब “हिन्साप” के बारे में ही कुछ नहीं मालूम तो उद्देश्य क्या खाक समझ में आएंगे? आपका झुँझला जाना स्वाभाविक है। मैं समझ रहा हूँ कि अब आपको और अधिक सस्पेंस में रखना उचित नहीं। चलिये, अब मैं आपको बता दूँ कि “हिन्साप” एक संस्था है। अब तनिक धैर्य रखिए ताकि मैं आपको “हिन्साप” का विश्लेषित स्वरूप बता सकूँ। फिलहाल आप कल्पना कीजिये कि- हमने “हिन्साप” संस्था की नींव रखी। उद्देश्य था नवोदित प्रतिभाओं को उनके अनुरूप एक मंच पर अवसर प्रदान करना और स्वस्थ वातावरण में प्रतियोगिताओं का आयोजन करना जिसमें किसी पक्षपात का अस्तित्व ही न हो।

कई गोष्ठियाँ आयोजित कर प्रतिभाओं को उत्प्रेरित किया। उन्हें “हिन्साप” के उद्देश्यों से अवगत कराया। सबने समर्पित भाव से सहयोग की आकांक्षा प्रकट की। हमने विश्वास दिलाया कि हम एक स्वतंत्र विचारधारा की विशुद्ध साहित्यिक पत्रिका भी प्रकाशित करना चाहते हैं, जो निष्पक्ष और बेबाक हो तथा जिसमें नवोदितों को भी उचित स्थान मिले। सब अत्यन्त प्रसन्न हुए। सबने वचन दिया कि वे तन-मन से सहयोग देंगे। किन्तु, धन के नाम पर सब चुप्पी साध गए। भला बिना अर्थ-व्यवस्था के कोई संस्था चल सकती है? खैर, “हिन्साप” की नींव तो हमने रख ही दी थी और आगे कदम बढ़ाकर पीछे खींचना हमें नागवार लग रहा था।

“हिन्साप” की अर्थ व्यवस्था के लिए शासकीय सहायता की आवश्यकता अनुभव की गई। संस्थागत हितों का हनन न हो अतः यह निश्चय किया गया कि विभागीय सर्वोच्च अधिकारी को संरक्षक पद स्वीकारने हेतु अनुरोध किया जाए। इस सन्दर्भ में प्रशासनिक अधिकारियों के माध्यम से विभागीय सर्वोच्च अधिकारी को अपने विचारों से अवगत कराया गया। विज्ञापन व्यवस्था के तहत आर्थिक स्वीकृति तो मिल गई किन्तु, “हिन्साप” को इस आर्थिक स्वीकृति की भारी कीमत चुकानी पड़ी। पवित्र उद्देश्यों पर आधारित संस्था में शासकीय तंत्र की घुसपैठ प्रारम्भ हो गई और विशुद्ध साहित्यक पत्रिका की कल्पना मात्र कल्पना रह गई जिसका स्वरूप एक विभागीय गृह पत्रिका तक सीमित रह गया। फिर किसी भी गृह पत्रिका के स्वरूप से तो आप भी परिचित हैं। इस गृह पत्रिका में अधिकारी जी जैसे लेखकों की रचनाएँ अच्छे गेट अप में सचित्र और स्वचित्र अब भी प्रकाशित होती रहती हैं।

इस प्रकार धीरे धीरे अधिकारी जी ने “हिन्साप” की गतिविधियों में सक्रिय भाग लेकर अन्य परिचितों, परिचित संस्थाओं के सदस्यों आदि आदि के प्रवेश के लिए द्वार खोल दिये। फिर उन्हें महत्वपूर्ण पदों पर बैठा कर “हिन्साप” की गतिविधियों में हस्तक्षेप करने का सर्वाधिकार सुरक्षित करा लिया। हम इसलिए चुप रहे क्योंकि वे विज्ञापन-व्यवस्था के प्रमुख स्रोत थे।

जब अर्थव्यवस्था सुदृढ़ हो गई तो कई मौकापरस्त लोगों की घुसपैठ प्रारम्भ हो गई। पहले जो लोग तन-मन के साथ धन सहयोग पर चुप्पी साध लेते थे आज वे ही सक्रिय कार्यकर्ताओं का स्वाँग रचा कर आर्थिक सहयोग की ऊँची-ऊँची बातें करने लगे। अध्यक्ष और अन्य विशेष पदों पर अधिकारियों ने शिकंजा कस लिया। और शेष पदों के लिए कार्यकर्ताओं को मोहरा बना दिया गया। फिर, वास्तव में शुरू हुआ शतरंज का खेल।

हमें बड़ा आश्चर्य हुआ कि- शासकीय तंत्र के घुसपैठ के साथ ही “हिन्साप” अतिसक्रिय कैसे हो गई? लोगों में इतना उत्साह कहाँ से आ गया कि वे “हिन्साप” में अपना भविष्य देखने लगे। कर्मचारियों को उनकी परिभाषा तक सीमित रखा गया और अधिकारियों को उनके अधिकारों से परे अधिकार मिल गए या दे दिये गए। इस तरह “हिन्साप” साहित्यिक और संस्कृतिक युद्ध का एक जीता-जागता अखाड़ा बन गया।

सच मानिए, हमने “हिन्साप” की नींव इसलिए नहीं रखी थी कि- संस्थागत अधिकारों का हनन हो; प्रतिभाओं का हनन हो? उनकी परिश्रम से तैयार रचनाओं का कोई स्वार्थी अपने नाम से दुरुपायोग करे? विश्वास करिए, हमने “हिन्साप” का नामकरण काफी सोच विचार कर किया था। अब आप ही देखिये न “हिन्साप” का उच्चारण “इन्साफ” से कितना मिलता जुलता है? अब जिन प्रतिभाओं के लिए “हिन्साप” की नींव रखी थी उन्हें “इन्साफ” नहीं मिला, इसके लिए क्या वास्तव में हम ही दोषी हैं? खैर, अब समय आ गया है कि मैं “हिन्साप” को विश्लेषित कर ही दूँ।

परत-दर-परत सब तो उघाड़ चुका हूँ। लीजिये अब आखिरी परत भी उघाड़ ही दूँ कि- “हिन्साप” का विश्लेषित स्वरूप है “हिन्दी साहित्य परिषद”। किन्तु, क्या आपको “हिन्साप” में “हिंसा” की बू नहीं आती? आखिर, किसी प्रतिभा की हत्या भी तो हिंसा ही हुई न? अब चूंकि, हमने “हिन्साप” को खून पसीने से सींचा है अतः हमारा अस्तित्व उससे कहीं न कहीं, किसी न किसी आत्मीय रूप से जुड़ा रहना स्वाभाविक है। किन्तु, विश्वास मानिए अब हमें “हिन्साप”, “हिन्दी साहित्य परिषद” नहीं अपितु, “हिंसा परिषद लगने लगी है।

अब हमें यह कहानी मात्र हिन्दी साहित्य परिषद की ही नहीं अपितु कई साहित्य और कला अकादमियों की भी लगने लगी है। आपका क्या विचार है? शायद, आपका कोई सुझाव हिं. सा. प. को “हिंसा. प. के हिसाब से बचा सके?

© हेमन्त बावनकर

पुणे 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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