हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार जन्म दिवस विशेष – 85 पार – साहित्य के कुंदन ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ – संपादक ई-अभिव्यक्ति (हिन्दी) ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है डॉ कुंदन सिंह परिहार जन्म दिवस पर विशेष – 85 पार – साहित्य के कुंदन। 

? डॉ कुंदन सिंह परिहार जन्म दिवस विशेष – 85 पार – साहित्य के कुंदन ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ?

☆ कुंदन सिंह परिहार … तय करना कठिन है कि वे पहले व्यंग्यकार हैं या कहानीकार ☆

(इस संदर्भ में ई-अभिव्यक्ति ने 85 पार – साहित्य के कुंदन शीर्षक से फ्लिप बुक एवं प्रिंट स्वरूप में प्रकाशित किया है।)

ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से हर हफ्ते वरिष्ठ व्यंग्यकार, कहानीकार श्री कुंदन सिंह परिहार जी को पढ़ने के अवसर सारी दुनियां को हर हफ्ते मिलते हैं। अब तक साप्ताहिक स्तंभ में उनकी २३८ रचनायें हम प्रकाशित कर चुके हैं। उनकी उम्र ८५ पार हो रही है, उनकी रचनायें पढ़ें तो स्पष्ट समझ आता है कि वे खामोशी से दुनियां को पढ़ कर ही परिपक्व अनुभव से लिखते हैं। उनकी एक कहानी है दद्दू। समाज में बुजुर्गों की जो स्थितियां बन रही हैं यह कहानी उस परिवेश, परिस्थितियों को रेखांकित करती है। परिहार जी के पांच कहानी संग्रह तथा तीन व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, उनका व्यंग्य संग्रह नबाब साहब का पडोस चर्चित रहा है। तीसरा बेटा, हासिल, वह दुनिया, शहर में आदमी एवं कांटा शीर्षकों से छपे उनकी कहानियों एवं विशेष रूप से लघुकथाओ में उनकी व्यंग्यात्मक लेखन शैली दृष्टिगत होती है। उन्हें १९९४ में ही हिन्दी साहित्य सम्मेलन का वागीश्वरी सम्मान प्राप्त हो चुका है। साहित्य की राजनीति और खेमेबाजी से दूर वे चिंतनशील, शांत लेकन करते नजर आते हैं। उनके लेखन में किंचित वामपंथी प्रभाव भी दिखता है। उनका समूचा जीवन जबलपुर में व्यतीत हुआ है, वे लगभग चालीस वर्षो तक महाविद्यालयीन शिक्षा से जुड़े रहे और वर्ष २००१ में जबलपुर के प्रतिष्ठित जी एस कालेज के प्राचार्य पद से सेवा पूरी कर अब पूर्णकालिक रचनाकार के रूप में साहित्यिक योगदान कर रहे हैं। उन्होंने अपने शैक्षिक जीवन में भांति भाति के छात्रों के जीवन को सकारात्मक दिशा दी। घर परिवार में भी वे साहित्यिक वातावरण और संस्कार अगली पीढ़ी तक पहु्चाने में सफल रहे हैं।

ई-अभिव्यक्ति में उनके साहित्य संसार की रचनाओ, कहानियो॓, व्यंग्य का इंतजार पाठक हर हफ्ते करते हैं।

🙏💐 ई-अभिव्यक्ति परिवार उनके सुखद, स्वस्थ्य दीर्घायु जीवन और सकारात्मक शाश्वत लेखन की शुभकामनाएं 💐🙏

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 192 ☆ लही न कतहु हार हिय मानी… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना लही न कतहु हार हिय मानी। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 192 ☆ लही न कतहु हार हिय मानी

हार जीत के साथ आगे बढ़ते हुए नए- नए मुद्दों का बनते जाना कोई नयी बात नहीं है। समय तेजी से बदल रहा है जो अपने अनुसार रणनीति बनाने में माहिर हो वही विजेता बनता है। एक – एक कदम चलते हुए जब व्यक्ति मंजिल पर पहुँचता है तो उसकी जीत सुनिश्चित होती है।वहाँ कोई प्रतिस्पर्धा नहीं रहती है। बस एकछत्र राज्य रहता है। इसका कारण साफ है कि निरन्तर कार्य करने की कला सबके बस की बात नहीं होती। आखिरी समय में जिसको होश आता है वो हड़बड़ाहट में उल्टे- सीधे पैतरे चलने लगता है जिससे उसके सारे कदम उसे गर्त में धकेलने लगते हैं।

जीवन के हर क्षेत्र में ऐसा ही होता है। शैक्षिक डिग्री पाने हेतु कुछ लोग 20 प्रश्नोत्तरी सीरीज पर भरोसा करके पास तो होते हैं किंतु उनकी विषय पर पकड़ मजबूत नहीं होती। सच कहूँ तो एक दो महीने बाद वे ये भी भूल जाते हैं कि कौन – कौन से पेपर इस सेमेस्टर में थे। आलसी लोगों को बड़बोले होते हुये देखना कोई नयी बात नहीं है। बिना सिर पैर की बातों को तर्क संगत बनाकर अपना उपहास करवाना साथ ही अपने समर्थकों को सिर नीचा करने को विवश करना किसी भी सूरत में अच्छा नहीं है। कहते हैं-

आछे दिन पाछे गए, गुरु सो किया न हेत।

अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गयी खेत।।

रोज गुरु बदलना, सलाहकार बदलना, स्थान बदलना, विचार बदलना, भेष भूषा बदलना, शब्दावली बदलना। जब इतना कुछ बदलता रहेगा तो लोग कैसे विश्वास करेंगे। माना कि स्थायी कुछ भी नहीं है किंतु जीते जी मक्खी कौन निगलना चाहेगा सो जनता जनार्दन है,भाग्यविधाता है, उसे सही गलत में भेद करना बखूबी आता है। तालियों की गड़गड़ाहट, विजयी चिन्ह सभी को दिखायी दे रहें हैं बस औपचारिक घोषणा बाकी है। आइए राष्ट्रवादी विचारों के पोषक बन भारतीय संस्कृति को आगे बढ़ाने में अपना भी अंशदान करें।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 349 ⇒ आदर्श विचार संहिता… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आदर्श विचार संहिता।)

?अभी अभी # 349 ⇒ आदर्श विचार संहिता? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 विचार का संबंध सोचने से होता है, और आचार का संबंध आचरण से। आहार विहार की तरह ही एक व्यक्ति का आचार विचार भी महत्वपूर्ण होता है। सामाजिक मापदंड के अनुसार हमारे आचरण को हम आचार विचार के रूप में परिभाषित कर सकते हैं।

चुनाव के मौसम में अचानक आचार संहिता लागू हो जाती है, जिसका संबंध सिर्फ राजनीतिक प्रचार के कोड ऑफ कंडक्ट से होता है। किसी व्यक्ति, दल (पार्टी) या संगठन के लिये निर्धारित सामाजिक व्यवहार, नियम एवं उत्तरदायित्वों के समूह को आचरण संहिता कहते हैं। कथनी और करनी अर्थात् व्यवहार और सिद्धांत में अंतर देखना हो तो जरा लकीर के फकीर बनकर आचार संहिता पर गौर कीजिए ;

1. सरकार के द्वारा लोक लुभावन घोषणाएँ नहीं करना।

2.चुनाव के दौरान सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग न करना।

3.राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के द्वारा जाति, धर्म व क्षेत्र से संबंधित मुद्दे न उठाना।

4.चुनाव के दौरान धन-बल और बाहु-बल का प्रयोग न करना।

5.आदर्श आचार संहिता लागू होने के बाद किसी भी व्यक्ति को धन का लोभ न देना।

6.आचार संहिता लागू हो जाने के बाद किसी भी योजनाओ को लागू नहीं कर सकते।

इतनी समझ तो एक बच्चे में भी है कि जो करना है, आचार संहिता लागू होने के पहले ही कर लो। कल्लो, अब क्या कर लोगे। पेट्रोल कल से महंगा हो रहा है, आज ही गाड़ी फुल कर लो, लेकिन वहां जाओ, तो पेट्रोल खत्म। तुम डाल डाल, तो हम पात पात। इधर किसी वस्तु के भाव बढ़े, और उधर वह वस्तु बाजार से गायब। गोडाउन सुरक्षा के लिए बनाए जाते हैं, जमाखोरी के लिए नहीं।।

हमारा व्यवहार ही आचरण के दायरे में आता है, हमारी सोच नहीं। हमारे जैसे विचार होंगे, वैसा हमारा आचरण होगा। लाइए कोई कानून, और लगाइए हमारी सोच पर आचार संहिता। मुख में राम हमारा आचरण है, और अब तो कंधे पर धनुष बाण भी है, विपक्षी रावण का वध करने के लिए।

एक आदर्श आचार संहिता वह होती है, जहां हमारी कथनी और करनी में अंतर नहीं होता। जब समाज में नैतिकता और आदर्श का स्थान, साम, दाम, दंड, और भेद ले लेगा, तो जीवन की सहजता समाप्त हो जाएगी। रिश्तों और प्यार में भी सौदेबाजी शुरू हो जाएगी। हमारा असली चेहरा हम ही नहीं पहचान पाएंगे। आचरण की शुद्धता के लिए एक आदर्श विचार संहिता भी जरूरी है, खुद पर खुद का शासन, आत्मानुशासन।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 278 ☆ आलेख – अमर रहेंगे मोहम्मद रफी साहब ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक आलेख  – अमर रहेंगे मोहम्मद रफी साहब । 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 278 ☆

? आलेख – अमर रहेंगे मोहम्मद रफी साहब ?

अच्छे से अच्छे गीतकार के शब्द तब तक बेमानी होते हैं जब तक उन्हें कोई संगीतकार मर्म स्पर्शी संगीत नही दे देता और जब तक कोई गायक उन्हें अपने गायन से श्रोता के कानो से होते हुये उसके हृदय में नही उतार देता. फिल्म बैजू बावरा का एक भजन है मन तड़पत हरि दर्शन को आज,  इस अमर गीत के संगीतकार नौशाद और गीतकार शकील बदायूंनी हैं,  इस गीत के गायक मो रफी हैं.रफी साहब की बोलचाल की भाषा पंजाबी और उर्दू थी, अतः इस भजन के तत्सम शब्दो का सही उच्चारण वे सही सही नही कर पा रहे थे. नौशाद साहब ने बनारस से संस्कृत के एक विद्वान को बुलाया, ताकि उच्चारण शुद्ध हो. रफी साहब ने समर्पित होकर पूरी तन्मयता से हर शब्द को अपने जेहन में उतर जाने तक रियाज किया और अंततोगत्वा यह भजन ऐसा तैयार हुआ कि आज भी मंदिरों में उसके सुर गूंजते हैं, और सीधे लोगो के हृदय को स्पंदित कर देते हैं.

मोहम्मद रफ़ी जी का जन्म 24 दिसंबर 1924 को हुआ था.  उन्होने अपनी गायकी की बारीकियो से हिन्दी सिनेमा के श्रेष्ठतम पार्श्व गायकों में अपना स्थान युगो युगो के लिये सुरक्षित कर लिया. एल पी, एस पी, कैसेट, सीडी, डी वी डी से पेन ड्राईव का डीजिटल सफर बदलता रहेगा पर रफी हर युग में अपनी आवाज के कारण अमर रहेंगे. उनके  समकालीन गायकों के बीच रफी साहब आवाज की मधुरता से  विशिष्ट पहचान बना सके. उन्हें शहंशाह-ए-तरन्नुम भी कहा जाने लगा. 1940 के दशक में रफी मात्र अठारह बीस बरस के थे, पर तब से ही वे व्यवसायिक गायक के रूप में पहचान बनाने लगे थे,  1980 में 31  जुलाई को वे हमें छोड़ गये पर इन लगभग ४० वर्षो की गायकी के सफर में उन्होने  26,000 से अधिक गाने गाए.  जिनमें मुख्यतः  हिन्दी फिल्मी गानों के अतिरिक्त ग़ज़ल, मेरे मन में हैं राम मेरे तन में हैं राम, सुख के सब साथी दुख में न कोई, ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, बड़ी देर भई नंदलाला जैसे भजन,सूफी,सुनो सुनो ऐ दुनिया वालों बापू की ये अमर कहानी..जैसे  देशभक्ति गीत, नन्हें मुन्ने बच्चे तेरी मुठ्ठी में क्या है, जैसे बाल गीत, क़व्वाली तथा अन्य भाषाओं में गाए गाने भी शामिल हैं.  उन्होने गुरु दत्त, दिलीप कुमार, देव आनंद, भारत भूषण, जॉनी वॉकर, जॉय मुखर्जी, शम्मी कपूर, राजेन्द्र कुमार, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, धर्मेन्द्र, जीतेन्द्र तथा ऋषि कपूर के अलावे स्वयं गायक अभिनेता किशोर कुमार के लिये भी फिल्मी पर्दे पर अपनी रोमांचक आवाज दी.

कभी कभी किस तरह छोटी सी घटना जीवन में बड़ा मोड़ ले आती है यह  मोहम्मद रफ़ी के पहले स्टेज प्रोग्राम से समझ आता है. उनका जन्म अमृतसर, के पास कोटला सुल्तान सिंह में हुआ था। उनके बचपन में ही उनका परिवार लाहौर से अमृतसर आ गया. जब रफी मात्र सात साल के थे तो वे अपने बड़े भाई की नाई की दुकान में बैठा करते थे. उधर से रोज गुजरने वाला एक फकीर मधुर स्वर में  गाता हुआ निकलता था. नन्हे रफी उस फकीर का पीछा किया करते और उसके जैसा ही गाने का प्रयत्न करते.शायद वह अनाम फकीर ही उनका प्रथम संगीत गुरू था. उनकी गायकी की  नकल के स्वर भी   लोगों को  पसन्द आते.  लोग नन्हें से रफी के गाने की प्रसंशा करने लगे.  रफी के बड़े भाई मोहम्मद हमीद ने  संगीत के प्रति उनकी रुचि को देख  उन्हें उस्ताद अब्दुल वाहिद खान के पास संगीत शिक्षा लेने को भेजा और इस तरह रफी को विधिवत संगीत की कुछ तालीम मिली. एक बार ऑल इंडिया रेडियो लाहौर में उस समय के प्रख्यात गायक व अभिनेता कुन्दन लाल सहगल कार्यक्रम देने आए थे, श्रोताओ में  रफ़ी और उनके बड़े भाई भी  थे. अचानक बिजली  गुल हो गई, जिससे श्रोता बेचैन होने लगे,रफ़ी के बड़े भाई ने आयोजकों से निवेदन किया की भीड़  को शांत करने के लिए मोहम्मद रफ़ी को गाने का मौका दिया जाय, उनको अनुमति मिल गई और बिना बिजली बिना माईक 13 वर्ष की आयु में मोहम्मद रफ़ी का यह पहला सार्वजनिक गायन था. उस समय के प्रसिद्ध संगीतकार  श्याम सुन्दर भी वहां उपस्थित थे  उन्होने जब नन्हें रफी को सुना तो उन्होने रफी की आवाज के हुनर को पहचाना, और उन्होने मोहम्मद रफ़ी को  गाने का न्यौता दिया. इस तरह  मोहम्मद रफ़ी का प्रथम गीत एक पंजाबी फ़िल्म गुल बलोच के लिए रिकार्ड हुआ था जिसे उन्होने श्याम सुंदर के निर्देशन में 1944 में गाया था. मुम्बई तब भी फिल्म नगरी थी, देश आजादी की लड़ाई लड़ रहा था, ऐसे समय में युवा रफी  ने फिल्मो में पार्श्व गायन को व्यवसाय के रूप में अपनाने का फैसला लिया और 1946 में वे  बम्बई आ गये.  जाति के आधार पर पाकिस्तान बनने के बाद भी उन्होने भारत के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को ही चुना. उन्होने जाने कितने हृदय स्पर्शी भजनो को स्वर देकर यह बता दिया कि भावना, स्वर और संगीत धर्म की सीमाओ से परे नैसर्गिक वृत्तियां हैं.

संगीतकार नौशाद जी ने “पहले आप” नाम की फ़िल्म में उन्हें गाने का अवसर दिया. और उनका फिल्मो में गायन का सफर चल निकला.  नौशाद द्वारा संगीत बद्ध गीत तेरा खिलौना टूटा, फ़िल्म अनमोल घड़ी, 1946 से रफ़ी को  हिन्दी फिल्म जगत में प्रसिद्धि मिली.  इसके बाद शहीद, मेला तथा दुलारी फिल्मो में भी रफ़ी ने गाने गाए जो  पसंद किये गये.   1951 में जब नौशाद फ़िल्म बैजू बावरा के लिए गाने बना रहे थे तो उन्होने  तलत महमूद के स्वर में रिकार्डिंग  करने की सोचा पर कहा जाता है कि नौशाद जी ने  एक बार तलत महमूद को धूम्रपान करते देखकर अपना मन बदल लिया और रफ़ी से ही गाने को कहा. बैजू बावरा के गानों ने रफ़ी को मुख्यधारा गायक के रूप में स्थापित कर  दिया. इसके बाद नौशाद ने रफ़ी को अपने निर्देशन में लगातार कई गीत गाने को दिए.  शंकर-जयकिशन की जोड़ी को भी उनकी आवाज पसंद आयी और उन्होंने भी रफ़ी से गाने गवाना आरंभ कर दिया। शंकर जयकिशन उस समय राज कपूर के पसंदीदा संगीतकार थे, पर राज कपूर अपने लिए सिर्फ मुकेश की आवाज पसन्द करते थे किन्तु  शंकर जयकिशन की सिफारिश पर रफी साहब की आवाज पर भी राजकपूर ने अभिनय किया. शंकर जयकिशन की जोड़ी ने उनके कम्पोज किये गये लगभग सभी गानो के पुरुष स्वर के लिये रफ़ी साहब को ही मौका दिया. अपनी आवाज के बल पर रफ़ी साहब संगीतकार सचिन देव बर्मन, ओ पी नैय्यर,रवि, मदन मोहन, गुलाम हैदर, जयदेव, सलिल चौधरी इत्यादि संगीतकारों की पहली पसंद  बन गए.

31 जुलाई 1980 को जब अचानक हृदयगति रुक जाने के कारण उनका देहान्त हुआ तो उनके गीतो से जागने और सोने वाले उनके प्रसंशको के लिये इस सत्य को स्वीकार करना बेहद दुष्कर था. उनकी असाधारण संगीत साधना के लिये उन्हें भारत सरकार से पद्मश्री सहित, अनेक बार फिल्मफेयर अवार्ड आदि अनेकानेक सम्मान समय समय पर मिले.  इन सम्मानो को प्रदान कर स्वयं सम्मान देने वाले ही उनसे सम्मानित हुये क्योकि रफी साहब का वास्तविक सम्मान तो यह ही है कि उनके इस दुनिया से बिदा हो जाने के वर्षो बाद भी हम उन्हें भुला नही सकते. वे धार्मिक नही मानवीय मूल्यो के प्रतीक थे.वे सहज सरल और अपने कार्य के प्रति समर्पित अनुकरणीय व्यक्तित्व थे.  वे संगीत के पुजारी मात्र नही उसके प्रतिष्ठाता थे.

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© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 348 ⇒ पिता और परम पिता… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पिता और परम पिता।)

?अभी अभी # 348 ⇒ पिता और परम पिता? श्री प्रदीप शर्मा  ?

Father & Godfather

जो हमें जन्म दे वह माता और जो हमें नाम और पहचान दे, वह पिता। पिता को हम पिताजी, पापा, डैडी, बाबूजी, कुछ भी कह सकते हैं, लेकिन हमारे केवल एक पिता होते हैं। अंग्रेजों में ऐसा नहीं है, उनके एक तो जन्म देने वाले फादर होते हैं, तो उनके दूसरे फादर चर्च में होते हैं, जहां उनके सामने वे कन्फेशन बॉक्स में अपने अपराध अथवा पाप कुबूल करते हैं और फादर उन्हें माफ कर देते हैं।

हमें ऐसे किसी फादर की जरुरत ही नहीं पड़ती। हमारे पिताजी को हमारे अपराध और गलतियां कुबूल करवाते आता है, उसके लिए हमें किसी मंदिर में नहीं जाना पड़ता। वे हमें सूतते रहते हैं, और हम गलतियां उगलते रहते हैं। एक बाप का फर्ज है कि वह अपने बालक को सुधारे और गलत रास्ते पर नहीं जाने दे।।

अंग्रेजी में एक तीसरे पिता भी होते हैं, जिन्हें गॉडफादर कहते हैं। होते हैं कुछ ऐसे दयालु इंसान, जिनका आपके जीवन में पिता जितना ही महत्व होता है। वे भगवान के रूप में मुसीबत के समय में आपकी मदद भी करते हैं और आपका मार्गदर्शन भी करते हैं। आप उन्हें ना तो पिता ही कह सकते और ना ही परम पिता, वाकई आपके गॉडफादर ही होते हैं वह।

एक लेखक हुए हैं मारियो पुज़ो (mario puzo) जिनका एक उपन्यास है, द गॉडफादर(The Godfather) जिनका धर्म से कुछ संबंध नहीं है। अपराध ही उनका धर्म है। लेकिन दुनिया उसे पूजती है। इस उपन्यास ने तो धर्म और पिता, दोनों की परिभाषा ही बदल दी। फिरोज खान ने भी एक अपराध फिल्म बनाई थी, धर्मात्मा। आज दोनों तरह के गॉडफादर यानी धर्मात्मा हमारे समाज में मौजूद हैं।।

हमारे जीवन में जितना महत्व रिश्तों का है, उतना ही धर्म का भी है। इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा कि जिस पत्नी को अंग्रेजी में वाईफ अथवा better half कहते हैं, उसे हम धर्मपत्नी कहते हैं। अन्य आत्मिक रिश्तों को हमने भले ही धर्म पिता, धर्म भाई और धर्म बहन का नाम दिया हो।

गुरु बिना ज्ञान कहां से पाऊं। कलयुग में आपको सतगुरु भले ही ना मिलें, लेकिन धर्मगुरु एक ढूंढो हजार मिलेंगे। धर्म की शिक्षा के प्रति सरकार भी सजग है। लखनऊ यूनिवर्सिटी से आप चाहें तो धर्मगुरु का कोर्स भी कर सकते हैं। एक बानगी और देखिए ;

सेना में धर्मगुरु बनने के लिए किसी भी विषय में स्नातक और संबंधित धर्म डिग्री या डिप्लोमा होना चाहिए. धर्मगुरुओं के लिए वही शारीरिक मापदंड निर्धारित किए गए हैं. धर्मगुरुओं को भी एक सैनिक की ही तरह कड़े प्रशिक्षण से गुजरना पड़ता है. इसके बाद भारतीय सेना में पंडित, मौलवी, ग्रंथी और पादरी जैसे पदों पर भर्ती हो सकते हैं।।

पिता और परम पिता के अलावा भी मेरे जीवन में कई ऐसे फरिश्ते आए हैं, जिन्हें मैं गॉडफादर मानता हूं। माता कहां जीवन भर साथ देती है, पिता का साया भी, एक उम्र तक ही नसीब होता है, लेकिन होते हैं कुछ रहबर, जो प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से हमें हमेशा राह दिखाते रहते हैं। आप उन्हें रिश्ते का कोई नाम दें ना दें, क्या फर्क पड़ता है ;

रिश्ता क्या है, तेरा मेरा।

मैं हूं शब, और तू है सवेरा

रिश्ता क्या है तेरा मेरा ….

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ विश्व पृथ्वी दिवस – मेरी मर्ज़ी ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ विश्व पृथ्वी दिवस – मेरी मर्जी ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

एक और पृथ्वी ढूँढ ली हमने।पहली तो संभाली न गई। चीन ने चेंगडू में चाँद बना लिया।  सूरज भी शायद। हम भी 2023 में चाँद पे जाने वाले थे। पानी लाने वाले थे मंगल से।

ब्रह्माण्ड ने पृथ्वी हमें खैरात में दी है। उसकी कीमत कैसे पता होती।

           एक नीला ग्रह

              गेंद जैसा बस।

साँसों का तरन्नुम, सपनों की श्वेतिमा,नेत्र मंजूषा में डूबती शाम के मंजर,कर्ण कुहरों में पेड़ों की सरगोशियां ,पहाड़ों तक पलकों का उठना,नज़रों से सुरचाप उठा लाना, घाटियों से मीठी सरगम का उमड़ना, झरने की बांहों में समा जाना——–

   सब कुछ उसी के बूते

🌹 हमने कहा – मैं जो चाहे करुं मेरी मर्जी

🌹 उसने भी दोहराया मैं जो चाहे करुं मेरी मर्जी

विश्व पृथ्वी दिवस मुबारक हो।

हमारे मन प्लास्टिक से मुक्त हों।

जय जय महीयसी मही

🌳🦚🐥

💧🐣💧

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 347 ⇒ सज्जन/सम्भ्रांत पुरुष… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सज्जन/सम्भ्रांत पुरुष।)

?अभी अभी # 347 ⇒ सज्जन/सम्भ्रांत पुरुष? श्री प्रदीप शर्मा  ?

सज्जन/सम्भ्रांत पुरुष (Thorough gentleman

एक सज्जन पुरुष की क्या परिभाषा है, वह भला भी होता है, सभ्य भी होता है और चरित्रवान भी होता है। शिक्षित, विनम्र, सरल, और संस्कारी व्यक्ति को आप संभ्रांत भी कह सकते हैं। जिस व्यक्ति में सभी पुरुषोचित गुण होते हैं, उसे अंग्रेजी में thorough gentleman कहा जाता है।

एक बड़ा प्यारा बंगाली शब्द है मोशाय जिसे हमारे यहां महाशय कहते हैं। यूं तो सभी अच्छाइयां एक व्यक्ति में होना संभव नहीं है, फिर भी हमारे सभ्य समाज की मान्यताओं पर जो व्यक्ति खरा उतरता है, उसे हमें सज्जन अथवा संभ्रांत मानने में कोई संकोच नहीं होता।।

अंग्रेजी शब्द thorough का मतलब ही होता है, पूर्ण रूप से, अथवा अच्छी तरह से। मनोयोग से अध्ययन को thorough study कहा जाता है। बीमारियों की गहन जांच को भी thorough check up ही कहा जाता है। जेंटलमैन तो कोई भी हो सकता है, लेकिन thorough gentleman हर व्यक्ति नहीं होता।

भला आदमी, सीधा सरल इंसान, जिसमें शराफत कूट कूटकर भरी हो, उसे भी हम सज्जन ही तो कहते हैं। कहीं कहीं तो पसीने की तरह, ऐसे व्यक्ति के चेहरे से शराफत टपक रही होती है। डर है, कहीं इतनी शराफत ना टपक जाए, कि कुछ बचे ही नहीं।।

अंग्रेजी में एक कहावत है, He is every inch a gentleman. यानी उस आदमी की शराफत इंच टेप से नापी जाती होगी। हमारे समाज में भी तो कुछ लोग रहते हैं, जिनका कद ऊंचा होता है। कुछ समाज के मापदंड हैं, जो व्यक्ति की ऊंच नीच निर्धारित करते हैं। शायद इसीलिए हर आदमी ऊपर उठना चाहता है, इंच इंच, सेंटीमीटर के लिए मिलीमीटर से प्रयास करना पड़ता है।

बंगाल में एक लाहिड़ी महाशय हुए हैं, उनकी आध्यात्मिक ऊंचाई नापना इतना आसान नहीं था। इनकी केवल एक तस्वीर ही उपलब्ध है, जिसके बारे में भी यह मान्यता है कि वह तस्वीर भी उनकी सहमति से ही कैमरे में कैद हो पाई, अन्यथा कोई फोटोग्राफर कभी उनकी तस्वीर कैद नहीं कर पाया।।

इतना ऊंचा कौन उठना चाहता है भाई। बस मानवीय गुण, नैतिकता, शराफत, ईमानदारी, विनम्रता, प्रेम और करुणा का समावेश हो हम सबमें। सबका उत्थान हो, लेडीज हों या जेंटलमैन, सभी thorough gentleman हों, सौम्य पुरुष हों, सौम्य महिला हों।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 80 – देश-परदेश – भविष्यवक्ता ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 80 ☆ देश-परदेश – भविष्यवक्ता ☆ श्री राकेश कुमार ☆

“कल आज और कल” हमारा जीवन इन्हीं तीन काल में सीमित रहता हैं। बीता हुआ काल (समय), वर्तमान याने आज और सबसे महत्वपूर्ण आने वाला काल।

हम सब अपने भविष्य को लेकर चिंतित रहते हैं। हमारे देश की ज्योतिष विद्या, विज्ञान और तर्क आधारित हैं। प्रतिदिन पेपर में सबसे पहले भविष्य फल और टीवी में भी आज का राशि फल की जानकारी सबसे अधिक पाठक/ श्रोता द्वारा प्राप्त की जाती हैं।

आम चुनाव के समय में भी विगत कुछ वर्षों से नए प्रकार के भविष्य वक्ता ” ओपिनियन पोल सर्वे” के नाम से दुकानें सजाए बैठे हैं।

प्री पोल,पोस्ट पोल सर्वे पर कुछ हद तक अंकुश भी लगाया गया हैं। लेकिन ये लोग भी बहुत ही चतुर प्राणी होते हैं। चुनाव से महीनों पूर्व भी ये लोग सर्वे करवाते रहते हैं।

सभी टीवी चैनल वाले आम जनता को मूर्ख बनाते हुए टीवी पर अपनी टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में इन सो कॉल्ड भविष्य के ज्ञानियों की रिपोर्ट पर भी कुत्तों को लड़वाते रहते हैं।

चुनाव के दिन मौसम कैसा रहेगा ? शादी का सीजन या कोई स्थानीय कारण से मतदान का प्रतिशत निर्भर करता है, इन सब बातों की चर्चा करते हुए ये लोग भी चुनाव परिणाम के साथ “अगर/ मगर” जोड़ कर परिणाम के भविष्य के साथ एक प्रश्न चिन्ह  खड़ा कर देते हैं।

हमारे विचार से पुराने समय के अच्छे भविष्य वक्ता ग्रह और नक्षत्र विज्ञान का सहारा लेते थे। वर्तमान में टीवी चैनल वाले भविष्य वक्ता हेलीकॉप्टर/ एसी कार में भ्रमण कर फर्जी आंकड़ों  को कंप्यूटर में डाल कर मंथन करते हुए अपने आप को ” राजनैतिक विशेषज्ञ” मान लेते हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 347 ⇒ साहित्य के ब्रांड – एंबेसडर… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हालचाल ठीक ठाक हैं।)

?अभी अभी # 347 ⇒ साहित्य के ब्रांड – एंबेसडर? श्री प्रदीप शर्मा  ?

रामायण काल में राजा के जो दूत होते थे, उन्हें भी राजदूत ही कहते थे। अपने स्वामी का जो संदेश लेकर जाए, वह दूत ! पूरे दरबार में दूत का सम्मान किया जाता है। और अगर दूत अंगद जैसा निकल जाए तो उसका पांव ही बहुत भारी पड़ जाता है।

अगर राजदूत पूरे देश के दूत बनकर विदेश जाते हैं, तो प्रचार और विज्ञापन की दुनिया में ब्रांड एंबेसडर यह दायित्व पूरा करते हैं। ब्रांड एम्बेसडर की एक छवि होती है जो लोगों को आकर्षित करती है। उसका उस विषय की जानकारी रखना कतई ज़रूरी नहीं। एक छोरा गंगा किनारे वाला, जब आपसे कहता है, कि कुछ दिन तो गुजारिए गुजरात में, तो आप गंगा को छोड़ साबरमती की राह पकड़ लेते हैं। ।

साहित्य एक ऐसा ब्रांड है, जहां सभी एंबेसडर है। जब कोई लेखक कोई रचना लिखता है, तो कोई अख़बार अथवा पत्रिका उसकी ब्रांड अम्बेसडर बन जाती है। कोई प्रकाशक जब किसी लेखक की कृति को प्रकाशित करता है तो वह उस लेखक का ब्रांड एम्बेसडर बन जाता है। पुस्तक का प्रचार प्रसार उसकी जिम्मेदारी हो जाती है।

कभी कभी कोई आलोचक अथवा समीक्षक भी स्वयं को साहित्य का ब्रांड एम्बेसडर समझ बैठता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ रामविलास शर्मा और नामवर सिंह क्या साहित्य के ब्रांड एंबेसडर नहीं ! लेखक किस ब्रांड का है, यह भी आजकल आलोचक ही तय करता है।

अगर कोई नया कवि स्थापित कवियों के लिए खतरे की घंटी है तो उसे बजाने में ही समझदारी है। उस पर रीतिकालीन अथवा अश्लील होने का भी आरोप लगाया जा सकता है। फिर वह ब्रांड बाज़ार में ज़्यादा नहीं चल सकता।।

साहित्य की ब्रांड एम्बेसडर कभी पुस्तक प्रदर्शनी होती थी, जो समय के साथ पुस्तक मेले और बुक फेस्टिवल में तब्दील हो गई।

हर प्रकाशक की अपनी स्टॉल होती है, जहां लेखक खुद ब्रांड एंबेसडर बन अपनी बेची जाने वाली पुस्तक पर ऑटोग्राफ देता रहता है। बिल्कुल चना ज़ोर गरम जैसा माहौल बन जाता है।

हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए जो संस्थाएं बनीं, क्या उनको आप ब्रांड एंबेसडर नहीं कहेंगे ! नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी की स्थापना की सन् 1893 में और श्री मध्य भारत हिंदी साहित्य समिति, इंदौर की स्थापना सन् 1910 में हुई। उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ और बिहार की बिहार राष्ट्रभाषा परिषद जैसी कई साहित्यिक संस्थाएं देश विदेश में ब्रांड एम्बेसडर की तरह हिंदी की ‌सेवा कर रही है। साहित्य अकादमी का गठन सन 1954 में किया गया। तब तक दिल्ली में भारतीय ज्ञानपीठ की सन 1944 में स्थापना भी हो चुकी थी। ये दोनों ही संस्थाएं साहित्य की स्थापित ब्रांड एम्बेसडर हैं। आप चाहें तो इन्हें आई एस आई मार्का ब्रांड एम्बेसडर कह सकते हैं। ।

साहित्य का सच्चा ब्रांड एम्बेसडर एक पाठक होता है जो न केवल किसी कृति का सच्चा प्रचारक होता है, बल्कि पोषक भी होता है। पाठक को साहित्यिक पुस्तकें उपलब्ध करवाने वाले पुस्तक विक्रेता और शहर शहर, नगर नगर में फैले सार्वजनिक वाचनालय को हम कैसे भूल सकते हैं।

साहित्य एक समग्र विषय है। जितने प्रदेश उतनी भाषाएं। जितने देश उनके उतने ही साहित्यकार। पुस्तकें ही पुस्तकें। आप भी जब लेखक की रचना खरीदकर पढ़ते हो, तो आप भी एक ब्रांड एम्बेसडर बन जाते हो। किसी पुस्तक की तारीफ का भी वही महत्व होता है जो एक ब्रांड एम्बेसडर का होता है। ज्ञान की ज्योत से ज्योत जलाना ही एक ब्रांड एम्बेसडर का काम है। आप भी साहित्य के ब्रांड एंबेसडर बनिए, अच्छा साहित्य पढ़िए, अच्छे साहित्य का प्रचार करिए।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 237 – समुद्र मंथन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 237 ☆ समुद्र मंथन ?

स्वर्ग की स्थिति ऐसी हो चुकी थी जैसे पतझड़ में वन की। सारा ऐश्वर्य जाता रहा। महर्षि दुर्वासा के श्राप से अकल्पित घट चुका था। निराश देवता भगवान विष्णु के पास पहुँचे।  भगवान ने समुद्र की थाह लेने का सुझाव दिया। समुद्र में छिपे रत्नों की ओर संकेत किया। तय हुआ कि सुर-असुर मिलकर समुद्र मथेंगे।

मदरांचल पर्वत की मथानी बनी और नागराज वासुकि बने नेती। मंथन आरम्भ हुआ। ज्यों-ज्यों गति बढ़ी, घर्षण बढ़ा, कल्पनातीत घटने की संभावना और आशंका भी बढ़ी।

मंथन के चरम पर अंधेरा छाने लगा और जो पहला पदार्थ बाहर निकला, वह था, कालकूट विष। ऐसा घोर हलाहल जिसके दर्शन भर से मृत्यु का आभास हो। जिसका वास नासिका तक पहुँच जाए तो श्वास बंद पड़ने में समय न लगे। हलाहल से उपजे हाहाकार का समाधान किया महादेव ने और कालकूट को अपने कंठ में वरण कर लिया। जगत की देह नीली पड़ने से बचाने  के लिए शिव, नीलकंठ हो गए।

समुद्र मंथन में कुल चौदह रत्न प्राप्त हुए। संहारक कालकूट के बाद पयस्विनी कामधेनु, मन की गति से दौड़ सकनेवाला उच्चैश्रवा अश्व, विवेक का स्वामी ऐरावत हाथी, विकारहर्ता कौस्तुभ मणि, सर्व फलदायी कल्पवृक्ष, अप्सरा रंभा, ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी, मदिरा की जननी वारुणी, शीतल प्रभा का स्वामी चंद्रमा, श्रांत को विश्रांति देनेवाला पारिजात, अनहद नाद का पांचजन्य शंख, आधि-व्याधि के चिकित्सक भगवान धन्वंतरि और उनके हाथों में अमृत कलश।

अमृत पाने के लिए दोनों पक्षों में तलवारें खिंच गईं। अंतत: नारायण को मोहिनी का रूप धारण कर दैत्यों को भरमाना पड़ा और अराजकता शाश्वत नहीं हो पाई।

समुद्र मंथन की फलश्रुति के क्रम पर विचार करें। हलाहल से आरंभ हुई यात्रा अमृत कलश पर जाकर समाप्त हुई। यह नश्वर से ईश्वर की यात्रा है। इसीलिए कहा गया है, ‘मृत्योर्मा अमृतं गमय।’

अमृत प्रश्न है कि क्या समुद्र मंथन क्या एक बार ही हुआ था?  फिर ये नित, निरंतर, अखण्डित रूप से मन में जो मथा जा रहा है, वह क्या है? विष भी अपना, अमृत भी अपना! राक्षस भी भीतर, देवता भी भीतर!… और मोहिनी बनकर जग को भरमाये रखने की चाह भी भीतर !

अपनी कविता की पंक्तियाँ स्मरण आती हैं-

इस ओर असुर,

उस ओर भी असुर ही,

न मंदराचल,

न वासुकि,

तब भी-

रोज़ मथता हूँ

मन का सागर…,

जाने कितने

हलाहल निकले,

एक बूँद

अमृत की चाह में..!

इस एक बूँद की चाह ही मनुष्यता का प्राण है।   यह चाह अमरत्व प्राप्त करे।…तथास्तु!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ श्रीरामनवमी  साधना पूरा करने हेतु आप सबका अभिनंदन। अगली साधना की जानकारी से शीघ्र ही आपको अवगत कराया जाएगा। 🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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