हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #225 ☆ सोच व संस्कार… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख सोच व संस्कार। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 225 ☆

☆ सोच व संस्कार… ☆

सोच भले ही नई रखो, लेकिन संस्कार पुराने ही अच्छे हैं और अच्छे संस्कार ही अपराध समाप्त कर सकते हैं। यह किसी दुकान में नहीं; परिवार के बुज़ुर्गों अर्थात् हमारे माता- पिता, गुरूजनों व संस्कृति से प्राप्त होते हैं। वास्तव में संस्कृति हमें संस्कार देती है, जो हमारी धरोहर हैं। सो!  अच्छी सोच व संस्कार हमें सादा जीवन व तनावमुक्त जीवन प्रदान करते हैं। इसलिए जीवन में कभी भी नकारात्मकता के भाव को पदार्पण न होने दें; यह हमें पतन की राह पर अग्रसर करता है।

संसार में सदैव अच्छी भूमिका, अच्छे लक्ष्य व अच्छे विचारों वाले लोगों को सदैव स्मरण किया जाता है– मन में भी, जीवन में भी और शब्दों में भी। शब्द हमारे सोच-विचार व मन के दर्पण हैं, क्योंकि जो हमारे हृदय में होता है; चेहरे पर अवश्य प्रतिबिंबित होता है। इसीलिए कहा जाता है कि चेहरा मन का आईना है और आईने में वह सब दिखाई देता है; जो यथार्थ होता है। ‘तोरा मन दर्पण कहलाए/ भले-बुरे सारे कर्मों को देखे और दिखाए।’ दूसरी ओर अच्छे लोग सदैव हमारे ज़ेहन में रहते हैं और हम उनके साथ आजीवन संबंध क़ायम रखना चाहते हैं। हम सदैव उनके बारे में चिन्तन-मनन व चर्चा करना पसंद करते हैं।

‘रिश्ते कभी ज़िंदगी के साथ नहीं चलते। रिश्ते तो एक बार बनते हैं, फिर ज़िंदगी रिश्तों के साथ चलती है’ से तात्पर्य घनिष्ठ संबंधों से है। जब इनका बीजवपन हृदय में हो जाता है, तो यह कभी भी टूटते नहीं, बल्कि ज़िंदगी के साथ अनवरत चलते रहते हैं। इनमें स्नेह, सौहार्द, त्याग व दैन्य भाव रहता है। इतना ही नहीं, इंसान ‘पहले मैं, पहले मैं’ का गुलाम बन जाता है। दोनों पक्षों में अधिकाधिक दैन्य व कर्त्तव्यनिष्ठा का भाव रहता है। वैसे भी मानव से सदैव परहिताय कर्म ही अपेक्षित हैं।

इच्छाएं अनंत होती है, परंतु उनकी पूर्ति के साधन सीमित हैं। इसलिए सब इच्छाओं की पूर्ति असंभव है। सो! इच्छाओं की पूर्ति के अनुरूप जीने के लिए जुनून चाहिए, वरना परिस्थितियाँ तो सदैव मानव के अनुकूल नहीं, प्रतिकूल रहती हैं और उनमें सामंजस्य बनाकर जीना ही मानव का लक्ष्य होना चाहिए। जो व्यक्ति इन पर अंकुश लगाकर जीवन जीता है, आत्म-संतोषी जीव कहलाता है तथा जीवन के हर क्षेत्र व पड़ाव पर सफलता प्राप्त करता है।

लोग ग़लत करने से पहले दाएँ-बाएँ तो देख लेते हैं, परंतु ऊपर देखना भूल जाते हैं। इसलिए उन्हें भ्रम हो जाता है कि उन्हें कोई नहीं देख रहा है और वे निरंतर ग़लत कार्यों में लिप्त रहते हैं। उस स्थिति में उन्हें ध्यान नहीं रहता कि वह सृष्टि-नियंता परमात्मा सब कुछ देख रहा है और उसके पास सभी के कर्मों का बही-खाता सुरक्षित है। सो! मानव को सत्य अपने लिए तथा सबके प्रति करुणा भाव रखना चाहिए – यही जीवन का व्याकरण है। मानव को सदैव सत्य के मार्ग पर चलना चाहिए तथा उसका हृदय सदैव दया, करुणा, ममता, त्याग व सहानुभूति से आप्लावित होना चाहिए– यही जीने का सर्वोत्तम मार्ग है।

जो व्यक्ति जीवन में मस्त है; अपने कार्यों में तल्लीन रहता है;  वह कभी ग़लत कार्य कर ही नहीं सकता, क्योंकि उसके पास किसी के विषय में सोचने का समय ही नहीं होता। इसलिए कहा जाता है कि खाली दिमाग़ शैतान का घर होता है अर्थात् ऐसा व्यक्ति इधर-उधर झाँकता है, दूसरों में दोष ढूंढता है, छिद्रान्वेषण करता है  और उन्हें अकारण कटघरे में खड़ा कर सुक़ून पाता है। वैसे भी आजकल अपने दु:खों से अधिक मानव दूसरों को सुखी देखकर परेशान रहता है तथा यह स्थिति लाइलाज है। इसलिए जिसकी सोच अच्छी व सकारात्मक होती है, वह दूसरों को सुखी देखकर न परेशान होगा और न ही उसके प्रति ईर्ष्या भाव रखेगा। इसके लिए आवश्यक है प्रभु का नाम स्मरण– ‘जप ले हरि का नाम/ तेरे बन जाएंगे बिगड़े काम’ और ‘अंत काल यह ही तेरे साथ जाएगा’ अर्थात् मानव के कर्म ही उसके साथ जाते हैं।

‘प्रसन्नता की शक्ति बीमार व दुर्बल व्यक्ति के लिए बहुत मूल्यवान है’–स्वेट मार्टिन मानव मात्र को प्रसन्न रहने का संदेश देते हैं, जो दुर्बल का अमूल्य धन है, जिसे धारण कर वह सदैव सुखी रह सकता है। उसके बाद आपदाएं भी उसकी राह में अवरोधक नहीं बन सकती। कुछ लोग तो आपदा को अवसर बना लेते हैं और जीवन में मनचाहा प्राप्त कर लेते हैं। ‘जीवन में उलझनें बहुत हैं, सुलझा लीजिए/ यूं ही बेवजह न ग़िला किया कीजिए’ अर्थात् जो व्यक्ति आपदाओं को सहर्ष स्वीकारता है, वे उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं। इसलिए बेवजह किसी से ग़िला-शिक़वा करना उचित नहीं है। ऐसा व्यवहार करने की प्रेरणा हमें अपनी संस्कृति से प्राप्त होती है और ऐसा व्यक्ति नकारात्मकता से कोसों दूर रहता है।

 

गुस्सा और मतभेद बारिश की तरह होने चाहिए, जो बरसें और खत्म हो जाएं और अपनत्व भाव हवा की तरह से सदा आसपास रहना चाहिए। क्रोध और लोभ मानव के दो अजेय शत्रु हैं, जिन पर नियंत्रण कर पाना अत्यंत दुष्कर है। जीवन में मतभेद भले हो, परंतु मनभेद नहीं होने चाहिएं। यह मानव का सर्वनाश करने का सामर्थ्य रखते है। मानव में अपनत्व भाव होना चाहिए, जो हवा की भांति आसपास रहे। यदि आप दूसरों के प्रति स्नेह, प्रेम तथा स्वीकार्यता भाव रखते है, तो वे भी त्याग व समर्पण करने को सदैव तत्पर रहेंगे और आप सबके प्रिय हो जाएंगे।

 

ज़िंदगी में दो चीज़ें भूलना अत्यंत कठिन है; एक दिल का घाव तथा दूसरा किसी के प्रति दिल से लगाव। इंसान दोनों स्थितियों में सामान्य नहीं रह पाता। यदि किसी ने उसे आहत किया है, तो वह उस दिल के घाव को आजीवन भुला नहीं पाता। इससे विपरीत स्थिति में यदि वह किसी को मन से चाहता है, तो उसे भुलाना भी सर्वथा असंभव है। वैसे शब्दों के कई अर्थ निकलते हैं, परंतु भावनाओं का संबंध स्नेह,प्यार, परवाह व अपनत्व से होता है, जिसका मूल प्रेम व समर्पण है।

इनका संबंध हमारी संस्कृति से है, जो हमारे अंतर्मन को  आत्म-संतोष से पल्लवित करती है। कालिदास के मतानुसार ‘जो सुख देने में है, वह धनार्जन में नहीं।’ शायद इसीलिए महात्मा बुद्ध ने भी अपरिग्रह अर्थात् संग्रह ना करने का संदेश दिया है। हमें प्रकृति ने जो भी दिया है, उससे आवश्यकताओं की आपूर्ति सहज रूप में हो सकती है, परंतु इच्छाओं की नहीं और वे हमें ग़लत दिशा की ओर प्रवृत्त करती हैं। इच्छाएं, सपने, उम्मीद, नाखून हमें समय-समय पर काटते रहने का संदेश हमें दिया गया है अन्यथा वे दु:ख का कारण बनते हैं। उम्मीद हमें अनायास ग़लत कार्यों करने की ओर प्रवृत्त करती है। इसलिए उम्मीदों पर समय-समय पर अंकुश लगाते रहिए से तात्पर्य उन पर नियंत्रण लगाने से है। यदि आप उनकी पूर्ति में लीन हो जाते हैं, तो अनायास ग़लत कार्यों की ओर प्रवृत्त होते हैं और किसी अंधकूप में जाकर विश्राम पाते हैं।

ज्ञान धन से उत्पन्न होता है, क्योंकि धन की मानव को रक्षा करनी पड़ती है, परंतु ज्ञान उसकी रक्षा करता है। संस्कार हमें ज्ञान से प्राप्त होते हैं, जो हमें पथ-विचलित नहीं होने देते। ज्ञानवान मनुष्य सदैव मर्यादा का पालन करता है और अपनी हदों का अतिक्रमण नहीं करता। वह शब्दों का प्रयोग भी सोच-समझ कर सकता है। ‘मरहम जैसे होते हैं कुछ लोग/ शब्द बोलते ही दर्द गायब हो जाता है।’ उनमें वाणी  माधुर्य का गुण होता है। ‘खटखटाते रहिए दरवाज़ा, एक

दूसरे के मन का/ मुलाकातें ना सही आहटें आनी चाहिए’ द्वारा राग-द्वेष व स्व-पर का भाव तजने का संदेश प्रदत्त है। सो! हमें सदैव संवाद की स्थिति बनाए रखनी चाहिए,  अन्यथा दूरियाँ इस क़दर हृदय में घर बना लेती है, जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है। हमारी संस्कृति एकात्मकता, त्याग, समर्पण, समता, समन्वय व सामंजस्यता का पाठ पढ़ाती है। ‘सर्वेभवंतु सुखिनाम्’ में विश्व में प्राणी मात्र के सुख की कामना की गयी है। सुख-दु:ख मेहमान है, आते-जाते रहते हैं। सो! हमें निराशा का दामन नहीं थामना चाहिए और निरंतर खुशी से जीवन-यापन करना चाहिए। ‘यह दुनिया है दो दिन का मेला/ हर शख़्स यहाँ है अकेला’ के माध्यम से मानव को आत्मावलोकन करने व ‘एकला चलो रे’ का अनुसरण कर खुशी से जीने का संदेश दिया गया है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

23 फरवरी 2024**

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 325 ⇒ || मिलीभगत ||… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “|| मिलीभगत ||।)

?अभी अभी # 325 ⇒ || मिलीभगत || ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

Connivance

कुछ शब्द बड़े मासूम नजर आते हैं। अब भगत शब्द को ही ले लीजिए। नरसिंह भगत से चेतन भगत तक की यात्रा कर चुका है यह शब्द। भगत के बस में हैं भगवान लेकिन जैसे ही इस शब्द का मेल मिलाप, मिली जैसे शब्द से होता है, हमें कोई सांठ गांठ अथवा साजिश नजर आने लगती है। शब्द, सत्संग से, क्या से क्या हो जाए।

मिलीभगत शब्द का प्रयोग भले ही अच्छे अर्थ में नहीं किया जाता हो, लेकिन फिर भी यह एक सामूहिक प्रयास का ही नतीजा है।

अकेला व्यक्ति तो सिर्फ भक्ति ही कर सकता है, मराठी में एक म्हण भी है, एकटा जीव सदाशिव।

एक अकेला जीव बगुला भी है, जो भक्ति नहीं ध्यान करता है। उसकी भी ख्याति बगुला भगत की तरह ही है। अर्जुन को मछली की सिर्फ आंख नजर आती थी, हमारे बगुला भगत के ध्यान में तो हमेशा पूरी मछली नजर आती है।।

अगर सभी बगुले एक ही जगह एकत्रित हो जाएं तो क्या यह उनकी मिलीभगत नहीं कहलाएगी। मिलीभगत के लिए व्यक्ति में बगुले के गुण कूट कूटकर भरे होना जरूरी है। मिलीभगत का परिणाम बड़ा कारगर होता है। अपराध और क़ानून की मिलीभगत आप अपराधी और पुलिस और वकील और अदालत के बीच आसानी से देख सकते हैं। तारीख पर तारीख और जमानत पर जमानत।

जीयो और जीने दो।

अफसर व्यापारी और नेता उद्योगपति के बीच का मधुर मेलजोल क्या मिलीभगत का परिणाम नहीं। संसार में सबसे अटूट रिश्ता स्वार्थ का होता है। पूरे देश को एक सूत्र में बांधने के लिए आपस में प्रेम और सौहार्द्र के अलावा एक बॉन्ड की भी आवश्यकता होती है।

भाषा की गरिमा को बनाए रखते हुए हमें सांठ गांठ, साज़िश अथवा मिलीभगत जैसे शब्दों से परहेज़ करना चाहिए। आज हमारे पास इसके विकल्प के रूप में इलेक्टोरल बॉन्ड हैं, जो देश को विकास की ओर ले जाते हुए सभी को आपस में जोड़ भी रहा है।।

हमें अपने दृष्टिकोण को सकारात्मक और उदार बनाना होगा। हमारे रोजमर्रा के जीवन में एक और बड़ा प्यारा सा शब्द है, जो सनातन और शाश्वत है। मैं अतिथि देवो भव का जिक्र नहीं कर रहा, आवभगत शब्द का कर रहा हूं।

भक्ति भाव से किसी का स्वागत ही तो आवभगत है। शब्द वही है, लेकिन सब सत्संग का प्रभाव है। अच्छी आवभगत, आदर सत्कार और सम्मान भी आजकल व्यक्ति देखकर ही किया जाता है। जितने अच्छे तोहफे, उतनी ही शानदार आवभगत। और ऊपर से थैंक्यू थैंक्यू, इसकी क्या जरूरत थी। जामनगर जैसे आयोजन में तो आवभगत और मिलीभगत की सुंदर जुगलबंदी नजर आई। रिश्तों का मान रखते हुए खाना भी खाकर ही जाना पड़ेगा। आखिर बहुत पुराना याराना जो है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #208 ☆ आलेख – अंतरात्मा की आवाज ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख बिन पानी.! मुश्किल जिंदगानी..! आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 206 ☆

☆ आलेख – अंतरात्मा की आवाज ☆ श्री संतोष नेमा ☆

हर व्यक्ति के अंदर जो परमात्मा के अंश स्वरूप आत्मा विद्यमान है, वह हमारे हर कार्य की साक्षी है और हमें अच्छे बुरे का आभास कराते हुए बुरे कार्य करने से रोकने के लिए प्रेरित भी करती है.! दूसरे शब्दों में हम इसे  विवेक भी कह सकते हैं जो बुरे- भले को कसौटी में कसते हुए,हमें सचेत करता है एवं अच्छाई का मार्ग प्रशस्त करता है.! कुछ लोग इसे वॉइस ऑफ गार्ड भी कहते हैं..!! परंतु यह विवेक या अंतरात्मा व्यक्ति के संस्कारों,पृष्ठभूमि,चरित्र,मानसिकता, एवं धर्म आदि पर निर्भर होती है.!

आजकल राजनीति में अंतरात्मा शब्द का इस्तेमाल बहुत आम हो गया है.! अब इन नेताओ का आए दिन अंतरात्मा की आवाज के नाम पर दल-बदल एवं सिद्धांतों से समझौता करना आम हो गया है.? और आधुनिकता एवं स्वार्थ के इस दौर में हो भी क्यों न.? अब व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्ध करना एवं अपना फायदा पहले देखना क्या कोई बुरी बात है.? नेता ही क्यों किसी भी क्षेत्र के व्यक्ति को देख लो चाहे वह व्यापारी हो लोकसेवक हों संत हों साधु हों महात्मा हों कितने लोग अपनी अंतरात्मा की आवाज को सुनते हैं.? यदि आसाराम बापू ने अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनी होती तो आज जेल में नहीं होते.! ना जाने ऐसे कितने बाबा हैं जो अपने तात्कालिक फायदे के लिए, अपनी अंतरात्मा की आवाज को कुचल देते हैं ! आम जिंदगी में यहां हर कोई लूट- खसोट और एक दूजे को बेवकूफ बनाने में लगे हुए.!  अब कुछ लोग कहते हैं कि ऐसे लोगों की आत्मा मर गई है.? अब इन्हें कौन समझाए कि आत्मा कभी मरती नहीं है..! समाज में चोरी करने वाला भी जानता है कि वह गलत काम कर रहा है ऐसे ही हर गलत काम करने वाला व्यक्ति जानता है कि वह यह अनैतिक,अवैधानिक कार्य कर रहा है.! पर सभी जानते हुए भी यह सब किये जा रहे हैं.? अब यहां प्रश्न यह उठता है कि आखिर इनकी विबसता  क्या है.? इस प्रश्न के जवाब व्यक्ति के हिसाब से अलग-अलग हो सकते हैं.! हालांकि अपने अंतरात्मा की आवाज को दबाने का सिलसिला नया नहीं है.यह प्राचीन काल से ही चला आ रहा है.त्रेता में  रावण,द्वापर में कंस जैसे हर युग में अनेकानेक व्यक्ति हैँ जो विशेष रूप से चर्चाओं के साथ इतिहास का हिस्सा रहे.! कलयुग में तो अब यह आम हो गया है.! स्वार्थ और लोभ इस कदर बढ़ गया है कि व्यक्ति पग पग पर आत्मा की आवाज की अनसुनी कर रहा है.! कहते हैं कुछ तो मजबूरियां रही होंगी यूँ ही कोई बेवफा नहीं होता.!

राजनीति में तो अंतरात्मा की आवाज बहुत सुनाई देती है और नेता लोग अंतरात्मा की आवाज के नाम पर जब चाहे तब सिद्धांतों से समझौता दल बदल ग्रुप बाजी , आराम से अपनी सहूलियत एवं सुविधाओं के हिसाब से कर लेते हैं.? अभी विगत दिनों राज्यसभा चुनाव में हिमाचल,उत्तर प्रदेश एवं , कर्नाटक में अंतरात्मा की आवाज कहकर पाले बदल लिए.? राजनीति मैं तो अंतरात्मा की आवाज का अपना एक लंबा चौड़ा इतिहास है विभिन्न अवसरों पर संसद एवं विधान सभाओं में अंतरात्मा की आवाज का आव्हान भी किया जाता है और बहुतेरे नेता, इस लालच रूपी आव्हान में अपनी असल आवाज को भूल कर चक्कर में आ जाते हैं.! अब आएं भी क्यों ना उन्हें भी अपने भविष्य के बारे में चिंता करने का अधिकार जो है.? सब कुछ आम लोगों के हिसाब से थोड़ी चलेगा.!! लोग है कि बेवजह है नेताओं को बदनाम करते हैं..! कितने लोग हैं जो अपनी अंतरात्मा की आवाज को सुन रहे हैं..?  यह तो भला हो नेताओं का जो अपनी अंतरात्मा की आवाज के नाम पर कुछ तो फैसले कर रहे हैं.!! फिर यह सतयुग थोड़ी ही है जो हर कोई अपनी अंतरात्मा की आवाज सुन ले.! यह कलयुग है भाई.! यहाँ तो बेटे बाप की नहीं सुनते .? पत्नी पति की नहीं सुनती.,भाई भाई का नहीं सुनता,हर कोई अपनी धुन में अपने हिसाब से जी रहा है.! फिर इस दौर में यदि नेता अपनी अंतरात्मा की आवाज के नाम पर अपना फायदा खोजते हैं तो इसमें हर्ज ही क्या है.? अब कुछ विश्लेषक अंतरात्मा की आवाज का भी विश्लेषण करने उतारू हो जाते हैं.! हम तो बस यही कह सकते हैं कि किसी के कृत्यों से अंतरात्मा की आवाज का विश्लेषण करना क्या उचित है. ?

चुनाव के समय भी कई बार मतदाताओं से भी अपील की जाती है कि आप अपनी अंतरात्मा की आवाज पर वोट करें.! अनेकों बार ऐसा लगता है कि कैसे अपने लक्ष्य को साधने के लिए अंतरात्मा की आवाज के नाम का उपयोग किया जाता है.! पर यह क्या कुछ लोग तो अपनी इस आवाज को ही बेच देते हैं.? आखिर इससे भी तो उन्हें कुछ फायदा तो हुआ ना.!

हमारा तो बस यही कहना है की अंतरात्मा की आवाज की यह सुर्खियां हमेशा बनी रहें और लोग, अपनी अंतरात्मा की आवाज को सतत सुनते भी रहें.! क्योंकि एक यही आवाज है जो आपको अपने असल वजूद का एहसास कराती है.!

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 188 ☆ मधु भिक्षा की रटन अधर में पर की महिमा… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना मधु भिक्षा की रटन अधर में पर की महिमा। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 188 ☆ मधु भिक्षा की रटन अधर में पर की महिमा

बहुत ही लोकप्रिय शब्द है प्रजातंत्र, कुछ भी करो सब जायज हो जाता है आखिर प्रजा की ताकत तो राजतंत्र से ही चली आ रही है। चुनाव के समय पर इसकी पूछ – परख कुछ ज्यादा ही होती है। एक साहित्यिक गोष्ठी चल रही थी उसमें परजा को लेकर एक से एक विचार आने लगे एक ने कहा पर जा अर्थात दूर हो जा तो दूसरे ने चौका मारते हुए कहा पर होते तो उड़ न जाते। तीसरे ने भी शब्दों का छक्का जड़ते हुए कहा, बिन पर जा राजा की भी कोई कीमत नहीं होती।

पर, किन्तु, परन्तु से लोग त्रस्त ही रहते हैं। पर इसकी शक्ति का कोई सानी नहीं होता तभी तो इनकी शक्ति का लोहा बड़े- बड़े वीरों को भी मानना पड़ा। पर जब भी उपसर्ग के रूप में आया तब उसने अपने से जुड़े हुए शब्द को महान बना दिया।

अब तो तीनों तरकश से परजा की तारीफ में तीर निकलने लगे किसी ने अपने गुरु को याद किया तो किसी ने गुरु घण्टाल को तो किसी ने एकता की शक्ति में भक्ति को समाहित करते हुए मुक्तक के तार छेड़ दिए। आस-पास बैठे लोग भी खुश हुए चलो कुछ तो हाथ लगा दिन भर से पर फड़फड़ा रहे थे अब जाकर दाना पानी हाथ लगा आखिर समय और निष्ठा की भी तो कोई ताकत होती है।

चुनावी जोड़तोड़ से कोई भी अछूता नहीं है जिसे जहाँ मन आ रहा है वहीं की राह पकड़ने लगा है। कोई भक्ति की शक्ति में डूबकर शक्ति प्रदर्शन करता है तो कोई कुर्सी की आशक्ति में बिना सिर पैर की कोशिश कर रहा है।कोशिशें वही कामयाब होंगी जिसमें सर्वजन हिताय का भाव हो। दूरदर्शिता के साथ आगे बढ़िए विश्व आपकी अगुआई चाहता है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 323 ⇒ हंसने का मौसम… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हंसने का मौसम।)

?अभी अभी # 323 ⇒ हंसने का मौसम? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जिस तरह प्यार का मौसम होता है, उसी तरह हंसने का मौसम भी होता है। होली के मौसम को आप हंसी खुशी का मौसम कह सकते हैं, क्योंकि प्यार का सप्ताह, यानी वैलेंटाइन्स वीक तो, कब का गुजर चुका होता है। होली पर जो पानी बचाने की बात करते हैं, और दिन भर एसी में पड़े रहते हैं, वे परोक्ष रूप से हंसी खुशी और मस्ती घटाने की ही बात करते हैं।

हंसना सबकी फितरत में नहीं। जिन्हें कब्ज़ होती है, वे खुलकर हंस भी नहीं सकते। हंसने से भूख भी बढ़ती है, और पाचन शक्ति भी। चिकित्सा विज्ञान ने अनिद्रा का निदान तो नींद की गोलियों में तलाश लिया लेकिन अवसाद का उनके पास कोई इलाज नहीं। घुट घुटकर, घूंट घूंट पीना और यह गीत गुनगुनाना ;

हंसने की चाह ने

इतना मुझे रुलाया है।

कोई हमदर्द नहीं,

दर्द मेरा साया है।।

होली का मतलब है, ठंड गई, गर्मी आई। होली का एक मतलब और है, ठंडाई। ठंडाई पीसी जाती है, मिक्सर में नहीं, सिल बट्टे पर, और वह भी उकड़ू बैठकर। पिस्ता, बादाम, केसर, खसखस, इलायची, काली मिर्च, और मगज के बीजों को पीसकर जब दूध और शकर में मिलाया जाता है, तब जाकर बनती है ठंडाई। अगर ठंडाई पीसी जाती है, तो विजया घोटी जाती है। आयुर्वेदिक औषधि भांग को ही विजया कहते हैं। असली विजयादशमी तो कायदे से होली ही है।

भांग को शिव जी की बूटी भी कहा जाता है। ठंडाई और भांग के गुणगान का हंसने और खुलकर हंसने से बहुत गहरा संबंध है। विजया पाचक तो है ही, इससे खुलकर दस्त भले ही ना लगें, लेकिन हंसी ऐसी खुलती है कि बंद होने का नाम ही नहीं लेती।।

जो लोग बिना बात के भी हंस लेते हैं, इसमें उनकी अपनी कोई विशेषता नहीं, यह विजया का ही प्रभाव होता है। आश्चर्य होता है उन लोगों पर, जो हंसने के लिए लाफ्टर क्लब जॉइन करते हैं। अधिक व्यंग्य कसने वाले और कसैला व्यंग्य लिखने वाले न जाने क्यों हास्य रस से परहेज़ करते नजर आते हैं। इन्हें तो हंसने वालों पर भी हंसी नहीं, रोना आता है।

भांग यानी विजया आपको बिना बात के हंसने की गारंटी देती है। वैसे आज के राजनीतिक परिदृश्य में, जब पूरे कुएं में ही भांग पड़ी हो, तब हंसने के लिए, अतिरिक्त प्रयास नहीं करना पड़ता। रमजान की अजान की तरह और विष्णु सहस्त्रनाम की तरह जब आकाशवाणी की तरह पूरी कायनात में एक ही आवाज गूंजती है, तुम मुझे वोट दो, मैं तुम्हें गारंटी दूंगा, तो नर तो क्या, किसी खर को भी बरबस हंसी छूट जाती होगी।।

लोग पहले होली के इस मौसम में बुरा नहीं मानते थे, लेकिन अब मौसम न तो प्यार का है और न ही हंसने का। इंसान की नफरत और बदले की आग ने, मौसम को भी बेईमान कर दिया है।

प्रेम और हंसी खुशी बाज़ार से खरीदी नहीं जाती। रोते हुए बच्चे को हंसाने का फार्मूला बहुत पुराना हो गया। हंसी खुशी और मस्ती की पाठशाला का पहला पाठ खुद पर ही हंसना है, दूसरों पर हंसना नहीं, उन्हें भी हंसाना है।

नफरत के बीज की जगह अगर जरूरत पड़े तो प्रेम और हंसी खुशी का, विजया का पौधा लगाएं।

मित्रता हो अथवा दोस्ती हो, पहले घुटती है, और उसके बाद ही छनती है। मौका और दस्तूर बस हंसने और मस्ती छानने का है। अगर आप हंसना, मुस्कुराना, खिलखिलाना और ठहाके लगाना भूल गए हैं, तो शिवजी की बूटी की शरण में आएं। आप नॉन स्टॉप हंसते रहेंगे, यह विजया की गारंटी है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 233 – विश्व रंगमंच दिवस विशेष – जगत रंगमंच है ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 233 ☆ विश्व रंगमंच दिवस विशेष – जगत रंगमंच है ?

‘ऑल द वर्ल्ड इज़ अ स्टेज एंड ऑल द मेन एंड वूमेन मिअरली प्लेयर्स।’ सारा जगत एक रंगमंच है और सारे स्त्री-पुरुष केवल रंगकर्मी।

यह वाक्य लिखते समय शेक्सपिअर ने कब सोचा होगा कि शब्दों का यह समुच्चय, काल की कसौटी पर शिलालेख  सिद्ध होगा।

जिन्होंने रंगमंच शौकिया भर किया नहीं किया अपितु रंगमंच को जिया, वे जानते हैं कि पर्दे के पीछे भी एक मंच होता है। यही मंच असली होता है। इस मंच पर कलाकार की भावुकता है, उसकी वेदना और संवेदना है। करिअर, पैसा, पैकेज की बनिस्बत थियेटर चुनने का साहस है। पकवानों के मुकाबले भूख का स्वाद है।

फक्कड़ फ़कीरों का जमावड़ा है यह रंगमंच। समाज के दबाव और प्रवाह के विरुद्ध यात्रा करनेवाले योद्धाओं का समवेत सिंहनाद है यह रंगमंच।

रंगमंच के इतिहास और विवेचन से ज्ञात होता है कि लोकनाट्य ने आम आदमी से तादात्म्य स्थापित किया। यह किसी लिखित संहिता के बिना ही जनसामान्य की अभिव्यक्ति का माध्यम बना। लोकनाट्य की प्रवृत्ति सामुदायिक रही।  सामुदायिकता में भेदभाव नहीं था। अभिनेता ही दर्शक था तो दर्शक भी अभिनेता था। मंच और दर्शक के बीच न ऊँच, न नीच। हर तरफ से देखा जा सकनेवाला। सब कुछ समतल, हरेक के पैर धरती पर।

लोकनाट्य में सूत्रधार था, कठपुतलियाँ थीं, कुछ देर लगाकर रखने के लिए मुखौटा था। कालांतर में आभिजात्य रंगमंच ने  दर्शक और कलाकार के बीच अंतर-रेखा खींची। आभिजात्य होने की होड़ में आदमी ने मुखौटे को स्थायीभाव की तरह ग्रहण कर लिया।

मुखौटे से जुड़ा एक प्रसंग स्मरण हो आया है। तेज़ धूप का समय था। सेठ जी अपनी दुकान में कूलर की हवा में बैठे ऊँघ रहे थे। सामने से एक मज़दूर निकला; पसीने से सराबोर और प्यास से सूखते कंठ का मारा। दुकान से बाहर  तक आती कूलर की हवा ने पैर रोकने के लिए मज़दूर को मजबूर कर दिया। थमे पैरों ने प्यास की तीव्रता बढ़ा दी। मज़दूर ने हिम्मत कर  अनुनय की, ‘सेठ जी, पीने के लिए पानी मिलेगा?’ सेठ जी ने उड़ती नज़र डाली और बोले, ‘दुकान का आदमी खाना खाने गया है। आने पर दे देगा।’ मज़दूर पानी की आस में ठहर गया। आस ने प्यास फिर बढ़ा दी। थोड़े समय बाद फिर हिम्मत जुटाकर वही प्रश्न दोहराया, ‘सेठ जी, पीने के लिए पानी मिलेगा?’ पहली बार वाला उत्तर भी दोहराया गया। प्रतीक्षा का दौर चलता रहा। प्यास अब असह्य हो चली। मज़दूर ने फिर पूछना चाहा, ‘सेठ जी…’ बात पूरी कह पाता, उससे पहले किंचित क्रोधित स्वर में रेडिमेड उत्तर गूँजा, “अरे कहा न, दुकान का आदमी खाना खाने गया है।” सूखे गले से मज़दूर बोला, “मालिक, थोड़ी देर के लिए सेठ जी का मुखौटा उतार कर आप ही आदमी क्यों नहीं बन जाते?”

जीवन निर्मल भाव से जीने के लिए है। मुखौटे लगाकर नहीं अपितु आदमी बन कर रहने के लिए है।

सूत्रधार कह रहा है कि प्रदर्शन के पर्दे हटाइए। बहुत देख लिया पर्दे के आगे मुखौटा लगाकर खेला जाता नाटक। चलिए लौटें सामुदायिक प्रवृत्ति की ओर, लौटें बिना मुखौटों के मंच पर। बिना कृत्रिम रंग लगाए अपनी भूमिका निभा रहे असली चेहरों को शीश नवाएँ। जीवन का रंगमंच आज हम से यही मांग करता है।

विश्व रंगमंच दिवस की हार्दिक बधाई।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ महाशिवरात्रि साधना पूरा करने हेतु आप सबका अभिनंदन। अगली साधना की जानकारी से शीघ्र ही आपको अवगत कराया जाएगा। 🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 322 ⇒ सीने में जलन… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सीने में जलन।)

?अभी अभी # 322 ⇒ सीने में जलन? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हर इंसान में एक शायर होता है, जो अकेलापन देख बाहर निकल आता है।कुछ बोल गुनगुना लेने से थोड़ी तसल्ली और सुकून मिल जाता है। बस इसी स्थिति में हम भी कुछ इस तरह मन बहला रहे थे ;

सीने में जलन, आंखों में तूफ़ान सा क्यूं है।

इस शहर में, हर शख्स

परेशान सा क्यूं है।।

अचानक कहीं से धर्मपत्नी प्रकट हो गईं। वे धार्मिक हैं, शेरो शायरी से उनका कोई वास्ता नहीं। आते से ही चिंतित स्वर में बोली, क्या हो गया है आपको, शहर की छोड़ो, आप अपनी बात करो। पूरे शहर में वायरल फैल रहा है, मेरा हाथ थामकर बोली, अरे आपका तो हाथ भी गर्म है, अभी डॉक्टर के पास चलो। अब पत्नी की चिंता को आप त्रियाहठ तो नहीं कह सकते। आखिर तूफान आ ही गया।

डॉक्टर के पास केवल मरीज ही जाता है। हम भी कतार में ही थे। अपना नंबर आया, डॉक्टर पहले आंख देखता है, फिर जबान बाहर करवाता है। पहले कलाई थामता है और फिर कान में यंत्र लगा लेता है।सांस भरने और छोड़ने की औपचारिकता के बाद दिल की धड़कन नापता है। बीपी भी चेक करता है। हमें भी सीने में जलन और अपनी परेशानी का कारण पता चल जाता है।।

वह दिन है और आज का दिन, हमने उस गीत को फिर कभी नहीं गुनगुनाया।लेकिन चोर चोरी से जाए, हेरा फेरी से नहीं जाए, एक बार फिर हम तलत साहब को दोहराते पकड़े गए ;

सीने में सुलगते हैं अरमां

आँखों में उदासी छाई है

ये आज तेरी दुनिया से हमें

तक़दीर कहाँ ले आई है

सीने में सुलगते हैं अरमां ..

पत्नी का ध्यान कहीं भी हो, उनके कान हमेशा हमारी ओर ही लगे रहते हैं। हमारी बहुत चिंता करती है वह। दौड़कर आई, क्या कह रहे थे आप ? इतनी उदासी, सीने का सुलगना तो ठीक, इस उम्र में तो आप तकदीर को भी कोसने लगे, हाय मेरी तो किस्मत ही खराब है। और वे अपनी किस्मत को मेरी खराब तबीयत से जोड़ लेती हैं। वे बहुत पजेसिव हैं, थोड़ी भी रिस्क नहीं लेना चाहती। मुंह पर नहीं बोली, लेकिन समझ गई, यह डिप्रेशन का मामला है।

लेकिन इस बार किसी न्यूरोलॉजिस्ट के पास जाने की नौबत नहीं आई क्योंकि उन्होंने गलती से यू ट्यूब पर तलत महमूद को सुन लिया।बस तब से ही भजन के अलावा उनकी भी शेरो शायरी में रुचि जाग्रत हो गई है। जब घर में दिल के दो बीमार हों, तो अच्छी दिल्लगी होती है।।

कुछ लोग इसे सीना कहते हैं तो कुछ छाती। यहीं कहीं बेचारा दिल भी है।सुना है, सीना फुलाने से छाती चौड़ी हो जाती है।सीने में सिर्फ जलन ही नहीं होती, कभी कभी यहां सांप भी लोटता है। हमें तो वैसे ही सांप से डर लगता है, ऐसी स्थिति में अगर कहीं सीने पर सांप लोट गया तो समझो हम भी हमेशा के लिए ही लेट गए।

कुछ लोग सीने पर पत्थर रख लेते हैं तो हमारे कुछ भाई लोग छाती पर मूंग दलने बैठ जाते हैं। हमारा तो यह सब सुन सुनकर दिल ही बैठ जाता है।।

वैसे हमारे दिल की बात हम सीने में ही छुपाकर रखना चाहते हैं, लेकिन बता दें, यह बात हमें फिर भी हजम नहीं हुई ;

कोई सीने के दिलवाला, कोई चाँदी के दिलवाला

शीशे का है मतवाले मेरा दिल

महफ़िल ये नहीं तेरी दीवाने कहीं चल ..

लेकिन आप कहीं भी चले जाएं, सीने का दर्द और छाती की जलन कम नहीं होने वाली। तलत साहब कितना सही कह गए हैं ;

जाएँ तो जाएँ कहाँ

समझेगा कौन यहाँ

दर्द भरे दिल की जुबाँ

रुह में ग़म, दिल में धुआँ

जाएँ तो जाएँ कहाँ…।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ‘सावधान! शांति कोर्ट में चली गई है!’ – ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

☆ आलेख ☆ ‘सावधान! शांति कोर्ट में चली गई है!’ – श्री विश्वास देशपांडे ☆ भावानुवाद – डाॅ. मीना श्रीवास्तव

वर्तमान समय की परिस्थिति को देखते हुए ऐसा लगता है कि ‘सुबह के रमणीय और शांत समय में…’ जैसे वाक्य अधिकतर कहानियों तथा उपन्यासों में ही पढ़े जा सकते हैं। भोर या सुबह के शांत और सुखद होने की छवि अब दुर्लभ ही समझिये। तरह-तरह की ध्वनियों ने सुबह की खूबसूरत और शांत बेला को प्रदूषित कर रक्खा है। प्रभात समय के मात्र पाँच बजते ही वाहनों की कर्कश आवाजें आरम्भ हो जाती हैं। चूँकि कुछ गाड़ियाँ जल्दी स्टार्ट नहीं होती इसलिए उनके मालिक इसपर अक्सीर इलाज ढूंढने की बजाय गाड़ी का एक्सीलेटर बढ़ाकर उसे काफी देर तक सक्रिय रखे रहते हैं| आसपास के कुछ मंदिरों और मस्जिदों के भोंगे, आरती, प्रार्थना और अज़ान आदि जोरशोर से शुरू हो जाते हैं। आपके पास ये तेज तर्रार आवाजें सुनने के अलावा कोई विकल्प बचता है क्या? ऐसा माना जाता है कि, प्रभात की परम पवन घड़ियाँ तन्मयता से ध्यान और अध्ययन के लिए सबसे अनुकूल होती हैं। अब इस शोरगुल में ध्यान और पढ़ाई करें तो कैसे करें? सुबह करीबन ६ बजे से स्कूल जाने वाले बच्चों के रिक्शा और बसें कोलाहल मिश्रित हॉर्न बजाना शुरू कर देती हैं। निश्चित जगह से काफी लंबी दूरी से हॉर्न बजाते हुए उनका आगमन होता है, इसलिए कि बच्चे सावधान हो कर लाइन में खड़े रहें| अक्सर बच्चे स्कूल जाने के लिए तैयार होकर खड़े रहते ही हैं, लेकिन इन बस वालों की हॉर्न बजाने की आदत छूटे नहीं छूटती! इस ध्वनि प्रदूषण पर ना तो कोई टैक्स अथवा जुरमाना है, न ही कोई रोकटोक| बिल्ली के गले में भला कौन घंटी बांधे? कोई पहल कर बोल भी दे, तो उसे ही बुरा भला सुनना पड़ता है|


श्री विश्वास देशपांडे 

बच्चों के स्कूल जाने पर जरासी राहत की साँस ली नहीं कि, सब्जियां एवं फल बेचने वाले और A to Z कबाड़ खरीदने वाले चिल्लाने को तैयार ही रहते हैं। आप चाहें या न चाहें उनकी गुहार आप को सुननी तो पड़ेगी! यहीं नहीं, अब तो रिकॉर्ड की हुई उन्नत स्वरावली में उनके गाने या कथन गाड़ियों पर लगाए गए स्पीकर्स पर सारे मोहल्ले में गुंजायमान होते रहते हैं| इस कारनामे से भले ही उनके चिल्लाने का तनाव कम होता है, लेकिन जनता के पास इन स्वघोषित वक्ताओं की आवाज सहने के अलावा कोई चारा नहीं बचता| फिर नगर निगम जैसी कार्यक्षम सरकारी संस्था पीछे क्यों रहे? स्वच्छता दूतों के कचरे के ट्रक के आगमन की सुमधुर (?) सूचना देती घंटी बजती है| बीच में उसके स्पीकर से विभिन्न सामाजिक सन्देश, निर्देश एवं उपदेशात्मक गीत अनायास ही बजते रहते हैं| हमारे कर्णरन्ध्रों पर यह अत्याचार शायद सुफल सम्पूर्ण नहीं हुआ, इसलिए कोई पडोसी जोरदार ध्वनि के साथ टीव्ही और/ या रेडिओ लगाने पर उतारू हो जाता है| अब मोबाईल से भिड़े जन कहाँ पीछे हटने वाले हैं? वे गाने सुनने में मशगूल होते हैं, या किसी के साथ बड़ी आवाज में बातचीत करते हुए घर के बाहर आ जाते हैं (पता नहीं उनके मोबाईल की रेंज घर के बाहर ही क्यों प्रतीक्षा करती है)! कुत्तों की ईमानदारी के गुन गाते गाते हमारी उम्र ढल गई, पर अपनी इसी ईमानदारी का सुबूत पेश करने के लिए उनके लावारिस प्रतिनिधि गहन रात्रि के प्रहर क्यों चुनते हैं, यह संशोधन करने का विषय है| इससे मानवजाति की रात की मीठी नींद और प्रभात बेला के गुलाबी स्वप्न में खलल पड़ने का इन मनुष्य जाति के बड़े ही करीबी दोस्तों को रत्तीभर भी अंदाजा क्यों नहीं होता भला? (सोचना उन्हें है, हमें नहीं!) क्या अब भी हम कहें कि, सुबह की सुन्दर घडी शांति से समृद्ध होती है? मुझे विश्वास है कि, पुरातन काल में कहीं न कहीं यह ‘भोर की बेला सुहानी’ रही होंगी तथा उसके सानिध्य से अभिभूत हो कर ही हमारे ऋषिमुनियों एवं लेखक मंडली को इतनी सौंदर्यशाली साहित्यरचनाऐं रचने की प्रेरणा मिली होगी|

अब परसों की ही बात है, एक विवाह के स्वागत समारोह (रिसेप्शन) में जाने का निमंत्रण मिला| उस दिन कई रिश्तेदार और मित्रगण काफी अन्तराल के बाद एक दूसरे से मिल रहे थे| चूंकि यह भेंट काफी दिनों बाद हो रही थी, इसलिए हर एक को बहुतसी बातें करनी थीं| लेकिन कार्यक्रम के आयोजकों ने उसी वक्त संगीत के कार्यक्रम का भी आयोजन किया था| एक ही सभागृह में स्टेज पर दूल्हा-दुल्हन और वहीं एक कोने में भोजन की भी व्यवस्था थी | पार्श्वभूमि में ऑर्केस्ट्रासहित गाने बजाने की आयोजकों की मंशा अच्छी हो, लेकिन गानों की आवाज़ें इतनी तेज़ थीं कि, लंबे समय बाद वहाँ मिले अभिजनों के लिए एक-दूसरे से बातचीत करना मुश्किल हो रहा था| अधिकतर लोग गाने सुनने के मूड में नहीं लग रहे थे| इस कोलाहल में अगर आपको किसी से बात करनी हो तो, अपना मुँह दूसरे के कान से सटाकर ही बोलना जरुरी था। उसी माहौल में उपस्थित लोगों का भोजन संपन्न हुआ और वर-वधू को बधाई एवं शुभाशीर्वाद दिए गए| अगर उन कर्कश गीतों की जगह वातावरण को प्रसन्नता से भर देने वाली शहनाई की मंगलमय मद्धम धुन बजती  रहती, तो सोचिये क्या ही अच्छा होता!

एक और प्रसंग! मेरे घर के निकट ही एक विवाह समारोह था| विवाह की पूर्व संध्या पर हल्दी का कार्यक्रम हुआ| घर के सामने ही मंडप लगा था| कार्यक्रम स्थल पर शाम पांच बजे से डीजे प्रारम्भ हो गया। हल्दी का सम्पूर्ण कार्यक्रम खत्म होने तक डीजे बजता रहा। उसके ख़त्म होने पर मुझे थोड़ी राहत महसूस हुई| परन्तु मित्रों, यह सुख अल्पजीवी साबित हुआ (वैसे भी प्राचीन ग्रन्थ-सन्दर्भों के अनुसार सुख के क्षण थोड़े ही होते हैं)| भोजन अवकाश के ख़त्म होते ही नयी ऊर्जा के साथ डीजे फिर कार्यान्वित हुआ| देर रात तक वहाँ उपस्थित सभी लोग डीजे की धुन पर थिरकते रहे। यह आम बात है कि, सार्वजनिक स्थानों पर, सड़क पर मंडप खड़े होते हैं, कर्णकटु डी.जे. चिल्लाते हैं| इस बात का किसी के मन में जरासा भी ख़याल नहीं आता कि, आसपास रहने वाले या वहाँ से गुजरने वाले किसी अन्य व्यक्ति को तकलीफ़ हो सकती है| इसके बजाय क्या ऐसे कार्यक्रम इस तरह आयोजित नहीं किये जा सकते, जिससे दूसरों को परेशानी न हो? इस पर सामाजिक विचारमंथन क्या जरुरी नहीं? या ‘तेरी भी चुप, मेरी भी चुप’ वाला अनकहा नियम है यहाँ? लगता है इस कर्ण-कठोर ध्वनि के कारण हमारे कानों के परदों को पक्षाघात का सदमा पहुँच चुका है| नतीजन हमारी सामाजिक चेतना भी लुप्त होती जा रही है। ऐसे अवसरों पर कृपया आयोजकों के कुछ ‘उच्चकोटि’ के विचार जान लीजिये| “दूसरों को क्या लेना देना? कार्यक्रम मेरा, पैसा मेरा! अगर किसी को कष्ट हो रहा है तो मुझे क्या! जब दूसरों के ऐसे प्रोग्राम चलते रहते हैं, तब ये लोग कहाँ होते हैं?” इस प्रकार हर कोई अपने दायरे में सहजता से और बिना किसी अपराधबोध के इन गतिविधियों को दुगनी ऊर्जा से जारी रखता है|

एक कल का जमाना था, जब सिर्फ दीपावली के पर्व पर ही पटाखे फोड़े जाते थे| आज का जमाना यह है कि, सम्पूर्ण साल भर बस मौका मिल जाए, जब भी हो, जहाँ भी हो, पटाखों को फूटना ही है| शादी, जुलूस, जन्मदिन, नए साल का आरम्भ, पार्टी, क्रिकेट मैच, छोटी मोटी जीत या उपलब्धि हों तो जश्न होना ही है, जो आतिशबाजी और डीजे के बिना अधूरा है| कई लोग अपनी बहादुरी दर्शाने के लिए आधी रात के बाद का मुहूर्त खोजते हैं पटाखे फोड़ने के लिए, शायद  लोगों की नींद उड़ाने से उनकी ख़ुशी दुगुनी हो जाती है| यह राहत की बात है कि, फ़िलहाल किसी व्यक्ति के स्वर्ग सिधारने पर यह सिलसिला शुरू नहीं हुआ है| 

मित्रों, एक मजेदार किस्सा याद आया| कुछ दिन पहले एक प्रसिद्ध धार्मिक स्थल पर जाने का अवसर प्राप्त हुआ। वहां विभिन्न राज्यों से लोग दर्शन के लिए आये थे| मंदिर में दर्शन के लिए जाते समय खुली जीप में एक जुलूस रास्ते से गुजर रहा था| उसमें ‘उत्सवमूर्ति’ सेना से एक सेवानिवृत्त सैनिक के स्वागत का माहौल था| जगह जगह उनके स्वागत और अभिनन्दन के पोस्टर भी लगे थे| जीप के सामने कर्कश डीजे चल रहा था| उसके सामने जुलूस में शामिल कई महिला-पुरुष बेसुध हो कर नृत्य कर रहे थे| हैरानी की बात यह थी कि, वह रिटायर फौजी और उसकी पत्नी भी उनमें शामिल थे| शायद यह उन सभी के लिए खुशी और गर्व का अवसर हो, लेकिन जुलूस मंदिर के सामने की छोटी गली से गुजर रहा था, जिससे भक्तों को काफी असुविधा हो रही थी। परन्तु, इससे किसीको क्या लेना देना? यहाँ आवाज उठाने वाला कौन था? देश की सीमाओं की रक्षा करने वाले सैनिकों के प्रति मेरे मन में बहुत सम्मान और गर्व है। ये जवान देश में शांति बनाए रखने के लिए सीमा पर अपनी जान की बाजी लगाकर लड़ते हैं, लेकिन यह दृश्य देखकर मुझे बहुत हैरानी हो रही थी और दुःख भी!  

अहम प्रश्न यह है कि, क्या हम सचमुच शांति से ऊब चुके हैं? क्या ‘शोर’ ही हमारा पसन्दीदा उम्मीदवार बन चुका है? अंग्रेजी में कहते हैं “स्पीच इज सिल्वर एंड साइलेंस इज गोल्ड।” यानि, बेकार की बातचीत से मौन बेहतर है। शांति एक अमूल्य विरासत है| मनुष्य सहित सभी प्राणियों के स्वस्थ और सुन्दर जीवन के लिए शांति बहुत महत्वपूर्ण है। आजकल स्कूलों में पर्यावरण विज्ञान पढ़ाया जाता हैं। इसमें वायु, ध्वनि, जल आदि सम्मिलित हैं। हम प्रदूषण के अनेकानेक प्रकारों के बारे में सीखते हैं, उनपर चर्चा करते हैं। लेकिन क्या हम सम्बंधित नियमों को आचरण में लाते हैं? यह तो तोते की तरह रटने जैसा हुआ| देर रात डीजे बजाना और आतिशबाजी करना कानून के खिलाफ है। लेकिन जब तक ये कानून सख्ती से लागू नहीं किये जाते, तब तक इनका कोई फायदा नहीं है। निःसंदेह, कानून के परे सामाजिक जागरूकता का होना जरूरी है। वह दिन सौभाग्यशाली होगा जब हम महसूस करने लगेंगे कि, हमारा व्यवहार दूसरों के लिए परेशानी का कारण बन सकता है।

प्रसिद्ध साहित्यकार विजय तेंडुलकर का एक मराठी नाटक ‘शांतता कोर्ट चालू आहे’ बेहद लोकप्रिय हुआ था| अदालत की कार्यवाही के समय जिस निश्चल शांति की अपेक्षा की जाती है, वहीं शांति हम वास्तविक जीवन में भी चाहते हैं। अगर हम उसे प्राप्त न कर पाए तो वहीं शांति हमसे रूठ कर अदालत में ही अपना घर बसा ले तो?

मूल लेख (मराठी) – सावधान ! शांतता कोर्टात गेली आहे. ..! – श्री विश्वास विष्णु देशपांडे

मुक्त अनुवाद (हिंदी): डॉक्टर मीना श्रीवास्तव

ठाणे

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 96 – इंटरव्यू : 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  “इंटरव्यू  : 2

☆ कथा-कहानी # 96 –  इंटरव्यू : 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

अपेक्षा अक्सर घातक ही होती है अगर वह गलत वक्त पर गलत व्यक्तियों से की जाय और न तो न्याय संगत हो न ही तर्कसंगत. जहाँ तक साहब जी की मैडमकी बात है तो पुत्र का चयन भी राष्ट्रीय स्तर की प्रशासनिक परीक्षा में होने से उनके आत्मविश्वास, रौब और रुआब में कोई कमी नहीं आई थी.

नारी जहां अपनी सोच और अपने रूखे व्यवहार का स्त्रोत बदलने में देर नहीं लगातीं वहीं पुरुष का आत्मविश्वास और ये सभी दुर्गुण उसके पदासीन होने तक ही रह पाते हैं पर हां आंच ठंडी होने में समय लगता है जो व्यक्ति के अनुसार ही अलग अलग होता है. तो साहब को सरकारी बंगले से सरकारी वाहन , सरकारी ड्राईवर, माली और प्यून के बिना खुद के घर में रहने के शॉक से गुजरना पड़ा. वो सारे रीढ़विहीन जी हुजूरे अब कट मारने लगे और मोबाइल भी इस तरह खामोश हो गया जैसे उनकी पदविहीनता को मौन श्रद्धांजलि दिये जा रहा हो. ये समय उनके लिये बहुत घातक होता है जो उत्तम स्वास्थ्य, तनावरहित जीवन, सामाजिक सरोकार और अपनी कलात्मक रुचियों के लिये प्राप्त इस अवसर को नज़रअंदाज कर उसी मानसिक स्थिति में रहने की मृगतृष्णा में उलझे रहते हैं और वास्तविकता को अंगीकार करना ही नहीं चाहते.

अगर रचनात्मकता और पॉजीटिव सोच न हो तो फिर निराशा, उपेक्षा से जनित फ्रस्ट्रेशन की दीवार व्यक्ति को मानसिक अवसाद की ओर ले जाती है. तो साहब के साथ भी वही हुआ और वो गये या जाना पड़ा डॉक्टर की शरण में.

जारी रहेगा :::

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 321 ⇒ रीच बिच ऊँच नीच… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “रीच बिच ऊँच नीच…।)

?अभी अभी # 321 ⇒ रीच बिच ऊँच नीच? श्री प्रदीप शर्मा  ?

अमीरी गरीबी के बीच तो ऊँच नीच हमने सुनी है, जातियों की ऊँच नीच भी कहां इतनी आसानी से जाती है, लेकिन आज फेसबुक की सबसे ज्वलंत समस्या रीच की है। अमीर को अगर अंग्रेजी में रिच कहते हैं तो पहुंच को रीच। जिनकी रीच पहुंचे हुओं तक होती है, वे जीवन में कहां से कहां पहुंच जाते हैं। ऊपर तक पहुंचने के लिए आज इंसान, जितना चाहो उतना, नीचे गिरने को तैयार है।

महंगाई हो या बेरोज़गारी, अशिक्षा हो अथवा अंधविश्वास, इनके घटने बढ़ने का भी एक ग्राफ होता है। जीवन में वैसे भी ऊंच नीच कहां नहीं होती। उतार चढ़ाव ही तो जीवन है। सुख दुख, हानि लाभ, यश अपयश तो जिंदगी में लगे ही रहते हैं।।

व्यक्तित्व की ऊंचाई ही इंसान को महान बनाती है और उसका घटिया आचरण ही उसे नीच बनाता है। वैसे घटिया शब्द उतना घटिया नहीं, जितना घटिया नीच शब्द है। वैसे भी नीच शब्द मेरी नजरों से इतना गिरा हुआ है कि मैं इसका प्रयोग कम ही करता हूं, लिखने में तो यदा कदा चलता है, लेकिन बोलने में, मैं कभी इस शब्द का प्रयोग नहीं करता। इस विषय में संत मेरे आदर्श हैं। संत अपने इष्ट के सामने स्वयं को ही दीन हीन, पतित और हीन ही मानते हैं, किसी और को नहीं। प्रभु मोरे अवगुण चित ना धरो।

आप भोजन कितना भी खराब हो, उसे घटिया तो कह सकते हैं, लेकिन नीच नहीं। शब्द में भी भाव होता है, छलिया, चितचोर और बैरी शब्द में जो प्रेम भरी उलाहना है, वह नीच शब्द में कहां। ऐसा प्रतीत होता है, इस शब्द का प्रयोग करते वक्त, व्यक्ति के मन में घृणा और क्रोध के भावों का संचार हो रहा हो।।

लेकिन जब इसी शब्द को ऊंच शब्द का संग मिल जाता है, तो वाक्य कितना सहज हो जाता है। ऊंच नीच कहां नहीं होती। शब्दों का भी आपस में सत्संग होता है। नीच से ही नीचे शब्द बना है। लेकिन एक मात्रा ने देखिए शब्द के भाव को कितना उठा दिया है। नीची नज़र कितनी शालीन होती है।

उठेगी तुम्हारी नजर धीरे धीरे।

बात फेसबुक पर पोस्ट की रीच की हो रही थी, और हम कहां पहुंच गए। रीच में तो खैर ऊंच नीच होती ही रहती है। अच्छी और रोचक पोस्ट को जब रीच नहीं मिलती, तो उसका भी मन उदास हो जाता है। सुबह पांच बजे की पोस्ट की ओर अगर कोई आठ बजे तक झांके ही नहीं, तो इससे तो बोरिया बिस्तर उठाना ही भला।।

बड़ा कलेजा लगता है साहब दिन भर आठ दस लाइक के साथ पूरा दिन काटने में। फेसबुक के बाज़ार में इतनी मंदी कभी नहीं हुई। जिनके पास दूसरा काम धंधा है वे तो तत्काल दुकान उठा जाते हैं, लेकिन कुछ लोग बेचारे आस लगाए बैठे रहते हैं ;

जाएं तो जाएं कहां।

समझेगा कौन यहां

पोस्ट की जुबां …..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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