English Literature – Poetry ☆ – Enigmatic Illusion… – ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present his awesome poem ~ Enigmatic Illusion… ~We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji, who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages for sharing this classic poem.  

☆ Enigmatic Illusion… ?

Apparently, life itself is an illusion…

–more realistic than the existence…

–a reflection of enigmatic virtual mind…!

Exposing man’s frailty and weaknesses,

falling for the detrimental effects

of luring tenacity of the ever-tempting illusion,

For, illusion knows no bounds,

swallowing the inherent vulnerability of

the human sensory impulses,

especially, targeting one’s eyes..

But, must not, one should blame the illusion,

Man treading cautiously and attempting

to complete the earthly sojourn,

must have strike a balance between the

illusionary senses and the stark ground realities.!

~ Pravin Raghuvanshi

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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Poetry,
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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 300 ⇒ महात्मा और मोबाइल… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “महात्मा और मोबाइल।)

?अभी अभी # 300 ⇒ महात्मा और मोबाइल? श्री प्रदीप शर्मा ?

आत्मा तो अदृश्य है, उसे किसने देखा है, लेकिन महात्मा को तो आप देख भी सकते हैं, और छू भी सकते हैं। अगर महात्मा का संधि विच्छेद किया जाए तो वह महान आत्मा हो जाता है। आत्मा छोटी और बड़ी भी होती है, हमें मालूम न था। एक महात्मा की आत्मा कितनी महान हो सकती है, हम तो सोच भी नहीं सकते।

ईश्वर तो खैर निरंजन, निराकार है, फिर भी सब उसे ही ढूंढ रहे हैं, जब कि ईश्वर तुल्य कई महान आत्माएं हमारे आसपास विचरण कर रही हैं, जिनमें से कुछ अगर आपको ईश्वर का पता बता सकती हैं, तो कुछ में हो सकता है, साक्षात ईश्वर ही विद्यमान हो।।

ऐसा माना जाता है कि एक महात्मा ईश्वर के अधिक करीब होता है और शायद इसीलिए हर जिज्ञासु और मुमुक्षु महात्मा द्वारा बताए मार्ग पर चलना चाहता है। इधर उसने ध्यान लगाया और उधर वह ईश्वर से जुड़ा। कवि की तरह भी वह कहीं आता जाता नहीं है, फिर भी उसकी पहुंच रवि से भी आगे तक रहती है।

एक संसारी अगर संसार में उलझा रहता है तो महात्मा ईश्वर द्वारा उसे प्रदत्त शुभ कार्य में। वह तो वीरान जंगल में रहकर भी सातों लोकों की यात्रा अपने ध्यान धारणा और समाधि के दौरान कर लेता है फिर भी जन जन के कल्याण के संकल्प के कारण उसे हम जैसे क्षुद्र संसारी जीवों के संपर्क में रहना पड़ता है और इसी कारण हमें अपने आसपास इतने मठ, आश्रम और महात्माओं की कुटियाएं नजर आती हैं।।

आप इन्हें ईश्वर के दूत कहें अथवा मैसेंजर, केवल हमारे आत्मिक उत्थान के लिए ही तो इन्होंने यह देह धारण की है। हम इतने पहुंचे हुए भी नहीं कि बिना आधुनिक संसाधनों के इन तक पहुंच भी पाएं। मजबूरन हमारी ही सुविधा के खातिर इन्हें भी आजकल गाड़ी घोड़े और मोबाइल जैसे माध्यमों से भी जुड़ना पड़ता है।

आप अगर अपने पुरुषार्थ अथवा सांसारिक कर्तव्य में अनवरत व्यस्त हैं, तो टीवी और सोशल मीडिया पर इनके कथा प्रवचन सुन सकते हैं, फोन से संपर्क कर इनके आश्रमों में सत्संग हेतु जा सकते हैं, दान अनुदान द्वारा इनकी सेवा कर पुण्य प्राप्त कर सकते हैं। ये आजकल इतने डिजिटल हो गए हैं कि चुटकियों में आप इनके बैंक खातों में अपनी सेवा भेंट ट्रांसफर कर सकते हैं।।

हर महात्मा का आजकल अपना आश्रम है, अपने शिष्य हैं और अपनी वेबसाइट है। दंड कमंडल के साथ, झोले में एक अदद मोबाइल आम है। साधु, संत और महात्मा का भेद तो कब का मिट चुका है।

प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी की तर्ज पर प्रभु जी हम शिष्य तुम स्वामी।

ईश्वर के नेटवर्क से हमारे मोबाइल का संपर्क कोई महात्मा ही करवा सकता है। भिक्षा, दीक्षा और दान दक्षिणा आजकल सब ऑनलाइन उपलब्ध है। आप भी ट्राई करें, किसी महात्मा का मोबाइल। हो सकता है, बात बन जाए।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ भैय्या ले चल हमको… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता भैय्या ले चल हमको…’।)

☆ कविता – भैय्या ले चल हमको… ☆

भैय्या ले चल,हमको,

बाबुल की नगरिया में,

गोद में मां की बचपन बीता,

घर की गैल डगरिया में,

मां का आंचल छूटा जबसे,

तपते रहे दुपहरिया में,

भैय्या ले चल हमको,

बाबुल की नगरिया में,

सुख दुख हमने जहां बिताए,

काटे दिन और रतियाँ,

देर रात तक खत्म नहीं

होती थीं मां की बतियां

भैय्या ले चल,,,

सूना होगा घर का आंगन,

सूनी सब दीवारें,

सूनी सूनी आंखों से,

बाबुल राह निहारें,

भैया ले चल हमको,,

झूला आम की डार पे अब,

किसने डाला होगा,

कौन झूलता होगा उसमे,

कौन निराला होगा,

भैय्या ले चल हमको,,

गैय्या भी तो हार से आकर,

मुझको तकती होगी,

याद में मेरी,आंखों से

गंगा  बहती होगी,

भैय्या ले चल हमको,,

सावन आया,सारी सखियां,

मायके आई होंगी,

रचा के मेंहदी हाथों में सब,

बाट जोहती होंगी,

भैया ले चल हमको,,,,

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 167 ☆ # मधुमास # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# मधुमास  #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 167 ☆

☆ # मधुमास #

पतझड़ का मौसम बीत गया

रुत बसंत की आई है

भीनी भीनी मनमोहक सुगंध

संग संग लाई है

*

नई कोपलें फूट रही हैं

हर्षित मन को लूट रही हैं

नये नये परिधानों में सजकर

मेलों में तरूणाई जुट रही है

*

हर मन में नयी उमंग है

पुलकित सबके अंग अंग है

मादक बयार बह रही है

नयनों में लहराती नयी तरंग है

*

आम्रवृक्ष कैसे बौराये हैं

पीली पीली सरसों मन भाये है

पलाश के फूलों का सौंदर्य

जंगल में आग लगाये है

*

यह मौसम है राग रंग का

साजन-सजनी के संग का

प्रीत में डूबा यह मधुमास

है प्रणय में व्याकुल अंग अंग का

*

नये सपने, नयी आशाऐं

लेकर आया यह मधुमास

टूटे, जख्मी हुए दिलों में

जागी है जीने की आस

क्या पीड़ादायक पतझड़ की रुत

अब सचमुच बीत गई है ?

क्या उल्लासित बसंत बहार का

वाकई होगा अब एहसास ? /

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचनाएँ/Information ☆ साहित्य के गुरू द्रोण : डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” जी – विनम्र श्रद्धांजलि ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

🙏 💐 साहित्य के गुरू द्रोण : डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” जी – विनम्र श्रद्धांजलि 💐🙏

विगत दिवस ‘जबलपुर व्यंग्यम परिवार’ के सदस्यों द्वारा साहित्य के गुरु द्रोण डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र ” जी को भाव भीनी श्रद्धांजलि अर्पित की गई।

जय नगर में आयोजित श्रद्धांजलि सभा में देश के ख्यातिलब्ध कथाकार एवं व्यंग्यकार डॉ. कुंदन सिंह परिहार ने श्री ‘सुमित्र’ जी के साथ बीते हुए समय को याद करते हुए कहा कि श्री सुमित्र जी के जाने से वह पीढ़ी समाप्त हो गई जो जबलपुर और देश प्रदेश के साहित्यकारों के व्यक्तिव और कृतित्व के इतिहास के साथ उन्होंने ख्याति लब्ध साहित्यकारों के साथ समय गुजारा था. सुमित्र जी ने नये लोगों को भरपूर प्रोत्साहन दिया और लेखकों की एक पीढ़ी तैयार की. सुमित्र जी का एक व्यंग्य संग्रह भी प्रकाशित हुआ, उन्होंने नयी पीढ़ी को व्यंग्य लिखने की प्रेरणा दी.

प्रसंगवश वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री अभिमन्यु जैन ने स्व. सुरेश सरल जी के संदर्भ में कहा कि जैसा उनका नाम है वे उतने ही सरल और सहज थे उन्होंने कहा जब व्यंग्य स्थापित होने के लिए संघर्ष कर रहा था एसे समय उन्होंने बहुत ही उत्कृष्ट व्यंग्य के साथ साथ व्यंग्य कॉलम भी लिखे.  उनके लिखे व्यंग्य से व्यंग्य लिखने वालों की एक पीढ़ी तैयार हुई.  उन्होंने महान जैन साधक संत पर विद्याधर से विद्यासागर नामक उपन्यास लिखा जिसकी पूरे देश में चर्चा हुई.  उन्होंने अनेक जैन साधु संत पर पुस्तकें लिखी हैं. स्व सुमित्र जी ने नयी पीढ़ी को व्यंग्य लिखने की प्रेरणा दी.

श्रद्धांजलि सभा – रविवार 3 मार्च 2.30 से 4.30 बजे आर्य समाज भवन, नेपियर टाउन जबलपुर 👉 https://www.youtube.com/live/MrWWSEmoTp0?si=Cd5YwOdmbjvJbCn6 

वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री यशोवर्धन पाठक जी ने कहा मैं उनके कारण ही लेखक बना. व्यंग्यकार पत्रकार श्री प्रतुल श्रीवास्तव जी ने उनकी सरलता की चर्चा करते हुये उनके व्यक्तित्व और समाज को दिय अवदान को रेखांकित किया. कवि व्यंग्यकार श्री सुरेश विचित्र जी एवं कहानी-व्यंग्यकार रमाकांत ताम्रकार ने उनके साथ अपने अपने अनुभव साझा किए.

इस अवसर पर संस्कार धानी के व्यंग्यकार एवं जैन मुनियों पर केंद्रित साहित्य की रचना करने वाले सुप्रसिध्द श्री सुरेश सरल जी, साहित्यकार, शिक्षाविद श्री गोकर्ण नाथ शुक्ल जी तथा समाजसेविका, शिक्षाविद श्रीमती अंजलि शुक्ला के निधन पर श्रद्धांजलि अर्पित की.  इस अवसर पर जबलपुर व्यंग्यम परिवार के सर्व श्री द्वारका गुप्त,  श्री यू एस दुबे,  श्री ओ. पी.  सैनी,  श्री दया शंकर मिश्रा उपस्थित थे.  संचालन देश के प्रसिद्ध कहानी और व्यंग्य लेखक श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने किया।

🙏 ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ जी को विनम्र श्रद्धांजलि 🙏

 ≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ मराठी माऊली… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

श्री तुकाराम दादा पाटील

? कवितेचा उत्सव ?

☆ मराठी माऊली☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

भाषा मराठी माऊली मला कृपेची सावली

तिने लडिवाळपणे प्रजा मराठी जपली

पूर्वजांनी लेखनाने तिची खूप सेवा केली

लाख मराठी मुखांनी सिंहगर्जना ही केली…

*

ज्ञाना, तुका, नामा, एका, तिच्या भजनी लागले

सरस्वतीच्या मंदिरी दिव्य ज्ञान साठवले

ज्ञानसाठा पुरवाया झाली संस्कृत जननी

अनुवाद करण्याने भव्य तिजोरी भरली…

*

तेज लेवून स्वतंत्र नांदू लागली मराठी

भाषा भगिनींच्यासंगे तिच्या झाल्या गाठीभेटी

प्रगतीच्या वाटेवर खूप केली घोडदौड

झाली संमृद्ध संपन्न सा-या जगाने पाहिली…

*

प्रादेशिक वळणाची तिची खुमारी वेगळी

लळाजिव्हाळा जपतं दीर्घ बनली साखळी

तिच्या सामर्थ्याची आता झाली आहे परिसिमा

ज्ञान मिळवत  तिने  भारी  भरारी घेतली …

*

अध्यात्माचे अंतरंग मराठीनेच खोलले

सर्व धर्म समभाव हेच तत्व जोपासले

नीतिशास्त्र सांगताना हाच मांडला आदर्श

लोकसाहित्याची धारा साध्या शब्दात मांडली…

*

ज्ञानशाखा आळवत केली स्वतंत्र निर्मिती

जागतिक आकांक्षांची केली सारी परिपूर्ती

सर्वांगीण विकासाचा ध्यास मनात जपत

जागतिक स्तरावर तोलामोलाने वाढली…

*

ग्रंथ निर्मिती कराया थोर साहित्यिक आले

त्यांना पदरी घेवून तिने आपले मानले

आता घेतलाय वसा स्वयंस्फूर्त कर्तृत्वाचा

त्याने मराठी बाण्याची गोडी सर्वत्र वाढली…

*

आपल्याच कर्तृत्वाचा जपू आपण वारसा

जगी ध्वज फडकवू माझ्या मराठी भाषेचा

एकसंध होवूनीया लावू सामर्थ्य पणाला

तेज दाखवाया घेवू हाती मराठी मशाली…

*

आहे अंगात सर्वांच्या एक बळ संचारले

माय मराठी म्हणून मन आहे भारावले

करू मानाचा मुजरा आज मराठी भाषेला

तिच्या वैभवाची स्वप्ने आम्ही मनी साकारली…

© प्रा. तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 163 ☆ अभंग… दाता कैवल्याचा, मनोहर.!! ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 163 ? 

☆ अभंग… दाता कैवल्याचा, मनोहर.!! ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆/

मानव जीवन, खूप अवघड

साधा परवड, प्रत्येकाने.!!

*

इथे नाही सुख, दुःख ते सदैव

सर्वस्व अभाव, आयुष्यात.!!

*

अशातुनी काढा, अनमोल वेळ

स्मरणात काळ, घालवावा.!!

*

चक्रधारी कृष्ण, त्यास आठवावे

मनी साठवावे, प्रेमादरे.!!

*

कवी राज म्हणे, पुत्र देवकीचा

दाता कैवल्याचा, मनोहर.!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ बडबड बडबड – ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

सुश्री विभावरी कुलकर्णी

🔅 विविधा 🔅

बडबड बडबड ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

परिचित शब्द आणि कृती आहे ना? अगदी लहान असल्या पासून म्हणजे शब्दही बोलता येत नसतो तेव्हा पासून सुरु होणारी कृती. भावना शब्दात व्यक्त करण्याचे प्रभावी साधन म्हणजे बोलणे. जास्त बोलणे झाले, नकोसे वाटले की त्याची बडबड होते. मग मोठी माणसे म्हणतात कीती टकळी चालू आहे?   आणि बायका जमतात तिथे तर या बडबडीचा उच्चांक असतो. एक असेच हास्य चित्र बघण्यात आले होते. दोन महिलांच्या बोलण्यातून वीज निर्मिती करुन त्यावर रेल्वे चालली आहे असे चित्र होते. यातील अतिशयोक्ती सोडली तर महिला बडबड करतात हे सत्यच आहे. आणि त्याच मुळे त्या मानसिक ताणातून बाहेर पडतात. आणि सर्वात जास्त त्या कोणाशी बोलत असतील? असा विचार आला आणि जरा शोधशोध केली, मैत्रिणींशी चर्चा ( म्हणजे परत बडबडच )  केली. आणि आश्चर्य म्हणजे असे समोर आले, की महिला सर्वात जास्त स्वतःशी बोलतात. आणि  मग स्वतःच स्वतःचे निरीक्षण केले. आणि खूपच गंमत वाटली.

अगदी झोपेतून उठल्या पासून याची सुरुवात होते.

सकाळी उठताना

चला उठा, कामे खोळंबली आहेत. उशीर झाला तर सगळाच उशीर होणार. आयता चहा कोण देणार?  चला चहा करा आणि सगळ्यांना उठवा.

मॉर्निंग वॉकला गेल्यावर

जा बाई जोरात. स्लिम व्हायचे आहे ना. मला काही फरक पडत नाही. मी माझ्याच वेगाने चालणार.

कोणत्याही मीडियावर नवीन लेख दिसला

बरं हिला रोज सकाळी सकाळी मोबाईल घेऊन बसायला जमते. माझी तर कामेच संपत नाहीत. चला आवरायला हवे.

दुपारी विश्रांतीच्या वेळी

आता जरा पडते. फक्त कोणी यायला नको. आणि कंपनीचा फोनही यायला नको. त्यांना हिच वेळ सापडते. जरा पडले की ऑफरचा फोन करतात.

दुसऱ्याचे स्टेट्स बघून

बरा स्टेट्स बदलायला वेळ मिळतो. कुठे कुठे भटकतात कोण जाणे? आणि असले कपडे या वयात शोभतात का?

दुपारी उठल्यावर

चला आवरायला हवे. आता एकेक जण घरी यायला लागेल. मग त्यांचे चहा पाणी. मी घरीच असते ना, मला काय काम? (असे सगळे म्हणतात. एकदा घरातली कामे करुन बघा, म्हणजे कळेल. ) असे म्हणून सगळीच कामे करावी लागतात.

रात्री झोपताना

झालं एकदाचं आवरुन. कोणी मदत करत नाही. हातावर पाणी पडले की सगळे सोफ्यावर मस्त गप्पा मारत बसणार. आणि मी किचन आवरणार. कधी कधी वाटते तसेच पडू द्यावे. पण तो स्वभाव नाही ना.

मध्यरात्री जाग आल्यावर

अगं बाई आत्ता कुठे तीनच वाजले आहेत. झोपा अजून दोन तास. नाहीतर उठायच्या वेळी झोप लागायची.

अशी जास्तीत जास्त स्वतःशी बडबड चालू असते. इथे थोडीच बडबड दिली आहे. असे अनंत विचार चालू असतात. यात एक गोष्ट प्रकर्षाने जाणवते, उघडपणे ज्या भावना बोलू शकत नाही त्या मनात बडबड करतो. यात सगळेच असे तक्रार सूर असतात असेही नाही. बरेचदा मी किती नशीबवान आहे. घरातील माणसे माझे कौतुक करतात. नातेवाईक चांगले वागतात, मान देतात. अशीही विधाने असतात. पण ही चांगली विधाने आपण व्यक्त करू शकतो. त्याने कोणाचे मन दुखावले जात नाही. पण तक्रारी, दुखणी, कामे ज्या गोष्टी उघड बोलून कोणी दुखावेल असे वाटते त्याच गोष्टी मनाशी बडबड करतो.

आता मी नाही का मनातली बडबड तुम्हाला सांगितली. कारण तुम्ही सगळी आपली माणसे आहात. माझी ही मनातली बडबड तुम्हाला म्हणून सांगितली. माझी अजून एक गंमत तुम्हाला सांगते. मी ज्यावेळी एकटी वॉकिंग साठी जाते, त्यावेळी अशीच स्वतःशी बडबड करते. आणि गंमत म्हणजे त्यातून एखादी कविता तयार होते. ती विसरु नये म्हणून रस्त्यावरच्या एखाद्या दुकानात जाते आणि तेथून रद्दी पेपर घेऊन त्यावर उतरवते. आणि घरी येऊन डायरीत लिहिते.

तर माझ्या मनातले आज तुम्हाला सांगितले. तुम्ही पण मनातच ठेवा हं!

तुम्हाला म्हणून सांगते. सकाळ पासून लिहायचे म्हणते, पण वेळ कुठे होतोय. शेवटी आज संध्याकाळी फिरायला न जाता लिहिले तेव्हा कुठे हे लिहिता आले.

© सुश्री विभावरी कुलकर्णी

मेडिटेशन,हिलिंग मास्टर व समुपदेशक.

सांगवी, पुणे

📱 – ८०८७८१०१९७

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ (१) मिल्कपॉट आणि (२) नुकसान – श्री सीताराम गुप्ता (३) अनोखी पद्धत – सुश्री मधूलिका सक्सेना ☆ भावानुवाद – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆

सौ. उज्ज्वला केळकर

? जीवनरंग ?

(१) मिल्कपॉट आणि  (२) नुकसान – श्री सीताराम गुप्ता (३) अनोखी पद्धत – सुश्री मधूलिका सक्सेना ☆ भावानुवाद – सौ. उज्ज्वला केळकर 

तीन अनुवादित लघुकथा……

☆ (१) मिल्कपॉट ☆

आज जवळ जवळ एक आठवड्यानंतर घरात चैतन्यमय वातावरण निर्माण झालं होतं. अरुण प्रकाशाचा मुलगा अमोल, सून आभा आणि दोन वर्षाचा नातू प्रणव उन्हाळ्याच्या सुट्टीसाठी थंड हवेच्या ठिकाणी गेले होते. ती नसल्यामुळे घर कसं उजाड वाटत होतं. मुलांशिवाय कसलं घर? मुले खोड्या करत नसतील, तर घर, घर वाटतच नाही मुळी. मुलं आपली ट्रीप संपवून घरी परत आली आणि छोटा नातू प्रणव घराला पुन्हा घर बनवण्याच्या मागे लागला. तो येताच त्याच्या खोड्या सुरू झाल्या. सूटकेस आणि बॅगेमधील समान काढून तो बाहेर टाकू लागला. सामान काढता काढता त्याच्या हाताला एक गोष्ट लागली आणि ती दाखवण्यासाठी तो आपल्या आजोबांच्याकडे पळत पळत निघाला. त्याच्या हातात सुरेख असा मिल्क पॉट होता. अरुण प्रकाशला समजायला वेळ लागला नाही. त्यांनी आपल्या मुलाला म्हंटलं, ‘हा हॉटेलचा वाटतोय. ‘

‘होय बाबा, हा हॉटेलचाच आहे. ‘

ते ऐकून अरुण प्रकाशला आतल्या आत भूकंप झाल्यासारखं वाटलं. ते काहीच बोलले नाहीत. शून्यात बघत बसले. त्यांना वाटलं, मुलाने येताना तो पॉट उचलून आणलाय. असं काही घडलं, की त्यांना वाटतं, आपण केलेल्या संस्कारात काही कमतरता राहिलीय आणि ते स्वत:ला दोषी मानू लागतात. त्यांना दु:ख होतं.

नातवाच्या हातात हॉटेलचा मिल्क पॉट बघून त्यांना अंगात जाळ उठल्यासारखं वाटू लागलं. त्यांचं मन तडफडू लागलं.

वडलांच्या मनातील भाव मुलाच्या लक्षात आला. तो म्हणाला, ‘बाबा, दहा हजार रुपये रोजचे खोली भाडे होते. ’

तशी अरुण प्रकाश स्पष्टपपणे म्हणाले, ‘ एवढा खर्च करूनही शेपन्नास रूपायासाठी तू आपलं स्वत्व घालवलंस?’

मुलगा अमोल थेटपणे वडलांकडे बघत म्हणाला, ‘तुम्हाला वाटतं, तसं नाही आहे बाबा! आम्ही हा मिल्क पॉट उचलून आणलेला नाही. ‘चेक आऊट’च्या वेळी आपला लाडका नातू प्रणव हातातला मिल्क पॉट सोडेना, तेव्हा मी त्याची किंमत हॉटेल मालकाला देऊ केली, पण त्यांनी पैसे घेतले नाहीत. हा पॉट, आमच्यातर्फे या छोट्याला भेट, ’ ते म्हणाले. गिफ्ट म्हणून त्यांनी हा पॉट प्रणवला दिलाय.

आपल्याला वाटतय, आम्ही हॉटेलमधून हा पॉट उचलून आणला, पण तसं नाही आहे बाबा!’

अरुण प्रकाशने सुटकेचा श्वास सोडला. ‘नाही… नाही… मी दोषी नाही. ’ते मनातल्या मनात म्हणाले. ‘मी माझ्या मुलांनावर योग्य संस्कार केले आहेत. माझी मुलं कधीच चुकीचं वागणार नाहीत. ‘ त्यांना इतकं समाधान वाटलं, वाटलं, कॅन्सरसारख्या रोगापासून मुक्ती मिळालीय.

मूळ कथा – ‘मिल्क पॉट’

मूळ लेखक – श्री सीताराम गुप्ता, दिल्ली

अनुवाद – सौ. उज्ज्वला केळकर  

☆ (२) नुकसान ☆

डॉ. विश्वास यांचा आज या नव्या हॉस्पिटलमधला पहिलाच दिवस होता. मागच्या आठवड्यातच त्याची एम. डी. पूर्ण झाली होती. एका आठवड्यातच त्याला सरकारी हॉस्पीटलमध्ये नोकरी मिळाली होती. हॉस्पिटलमधून परतल्यावर विश्वास मोठा खुशीत दिसत होता. त्याला खूश पाहून त्याचे आई-वडील, बहीण सगळ्यांनाच आनंद झाला. बहीण म्हणाली,

‘दादा, वाटतय, नवी नोकरी आणि हॉस्पिटलचे वातावरण तुला खूप आवडलेलं दिसतय. ‘

‘ते तर आहेच, पण माझ्या खुशीचं आणखीही एक कारण आहे. ’  विश्वास म्हणाला.

‘काय?’

आता तो काय सांगतोय, याची उत्सुकता सगळ्यांनाच लागून राहिली होती.

विश्वास म्हणाला, ’ आज पाहिल्याच दिवशी दहा हजाराचं नुकसान झालं!’

‘कसं?’ सगळेच एकदम म्हणाले. आई म्हणाली, ‘नुकसान झाल्यावर कुणी खूश होतं का? ‘

‘असं घुमवत फिरवत बोलण्याऐवजी सरळ सरळ सांग ना, काय झालं? मोबाईल हरवला. खिसा कापला गेला? नुकसान कसं झालं?’ वडलांनी प्रश्नांची फैर झाडली.

‘नाही… नाही… आपण घाबरू नका. असं काहीही झालेलं नाही. ‘ विश्वास सगळ्यांना आश्वस्त करत म्हणाला.

‘आज एनजीओने एका फॅक्टरीवर छापा मारला आणि तिथे काम करणार्‍या अल्पवयीन मुलांना सोडवले. त्या मुलांच्या वयाची तपासणी करण्यासाठी पोलीस त्या मुलांना हॉस्पिटलमध्ये घेऊन आले. त्याच वेळी एक माणूस माझ्या केबीनमध्ये आला आणि टेबलावर काही पैसे ठेवत म्हणाला, ‘हे दहा हजार रुपये आहेत. हे आपण आपल्याजवळ ठेवा आणि असा रिपोर्ट लिहा, की सगळी मुले पंध्रा वर्षाच्या वर आहेत. ’

पण त्या मुलांपैकी कुणीच चौदा वर्षाच्या वर वाटत नव्हता. अनेक जण दहा – बारा वर्षाचीच वाटत होती. त्यांची परिस्थिती बघून मला अतिशय वाईट वाटलं. मी नोटांचं बंडल उचलून त्याच्या हातात देत, त्याला ताबडतोब बाहेर निघून जायला सांगितलं. ’

तो म्हणाला, ‘ डॉक्टरसाहेब, तुम्ही म्हणाल तितके पैसे देतो. ‘ तो खिशात हात घालू लागला. मला राग आला. शेवटी शिपायाला सांगून त्याला धक्के मारून बाहेर काढलं.

‘जे खरं वय होतं, तोच रिपोर्ट मी लिहिला. नेमक्या वयाची खात्री करण्यासाठी, ऑसिफिकेशन टेस्टसाठी केसेस पुढे पाठवल्या. ’

सगळी घटना विस्तारपूर्वक सांगून  विश्वासने कृत्रीम गंभिरता धरण करत म्हंटलं, ’मग झालं ना पहिल्याच दिवशी दहा हजाराचं नुकसान. ‘

वडील म्हणाले, ‘बेटा, असं नुकसान रोज रोज करत जा आणि आम्हाला सांग. मी खरोखरच खूश आहे, की माझी मुले नुकसान करायला शिकताहेत. असं नुकसान, हाच आमचा सगळ्यात मोठा फायदा आहे. ’ असं म्हणत वडलांनी आपला हात विश्वासच्या डोक्यावर ठेवला आणि विश्वासने आपले डोके त्यांच्या खांद्यावर ठेवले.

मूळ कथा – ‘ नुकसान ‘  

मूळ लेखक -सीताराम गुप्ता, दिल्ली.

अनुवाद – उज्ज्वला केळकर

☆ (३) अनोखी पद्धत ☆

‘काय चाललाय काय तुझं अंकित?’

‘काही नाही ग… ’ त्याने रेवाचं बोलणं टाळण्याचा प्रयत्न केला

‘सारखा सारखा मागे पडतोयस. ’ रेवाच्या बोलण्यात तक्रारीचा सूर होता.

‘येतोय ना!’ अंकित पुन्हा म्हणाला.

‘ओहो…. मोठ्या मुश्किलीने बरोबर फिरायला म्हणून बाहेर पडलो. माझ्याबरोबर चल ना!’ रेवा काही बोलणं सोडत नव्हती.

‘अग, येतोय ना!’

‘आता बागेची, रस्त्याची साफ-सफाई पण तुम्हीच करणार का?’

‘हं…. ’ अंकितने जमिनीवरचे कागदाचे तुकडे उचलत म्हंटलं.

‘आता चार तुकडे झाडीत पडून राहू देत नं! सफाईचा तर तुला जसा मॅनिया आहे. ’

रेवा वैतागली.

‘ही काही सफाई नाही. ’ अंकित म्हणाला.

‘मग काय आहे?’

‘सफाई नाही तर काय आहे अंकित? मी आत्ताच पाहीलं, जमिनीवरून उचललेले ते कागदाचे तुकडे तू आपल्या बॅगेत भरलेस….. कुणाचं प्रेमपत्र मिळालं की काय? मला तरी सांग. ‘ रेवाने चिडवले.

‘तसंच समज. ’ अंकितने संक्षिप्त उत्तर दिलं.

‘कसला विचार करतोयस?’

‘ये. स्कूटरवर बस. ’ यावेळी रेवा काही न बोलता स्कूटरवर मागे बसली.

दहा मिनीटानंतर अंकित एका घरापुढे थांबला आणि दारावरची बेल वाजवली. दोन-तीन वेळा बेल वाजवल्यावर दरवाजा उघडला गेला.

‘बोला, कुणाला भेटायचय?’

‘रमेशजी… ’

मीच रमेश…. बोला. काय काम आहे?’

‘या १२ एप्रील २०१५ आणि १६ नोहेंबर २०१८च्या पावत्या आपल्याच आहेत?’

‘अं… हो. पण आपल्याकडे कशा आल्या?’

‘आणा. एक हजार रुपये आणा. ’

‘साहेब, हा माझ्यासाठी कचरा आहे. आपणच ठेवून घ्या. ‘ रमेश काहीशा बेफिकीरीने म्हणाला.

‘मग कचरा गाडीत टाकायचं सोडून आपण हा कचरा झाडीत का फेकलात?’

‘काय म्हणायचय आपल्याला?’ रमेश चिडून म्हणाला.

आपलं ओळखपत्र दाखवत अंकित म्हणाला, ‘मी नगर निगमाचा स्वच्छता अधिकारी अंकित राव!’

मूळ कथा- अनूठा तरीका   

मूळ लेखिका – सुश्री मधूलिका सक्सेना  

अनुवाद – सौ. उज्ज्वला केळकर

अनुवादिका –  सौ. उज्ज्वला केळकर

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈संपादक –  श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ चिमणचारा… ☆ सौ राधिका -माजगावकर- पंडित ☆

सौ राधिका -माजगावकर- पंडित

? मनमंजुषेतून ?

☆ चिमणचारा☆ सौ राधिका -माजगावकर- पंडित

मंदिराच्या कट्ट्यावर विद्वानांचा मेळावा भरला होता. प्रत्येक जण आपल्या ज्ञानाचे दिवे पाजळत होता.

“अहो आहात कुठे ? मी या मंदिराला 1000 देणगी दिली. शिवाय सहस्त्र भोजनही घातलं. सगळ्यांनी आडवं पडेपर्यंत भोजनावर आडवा हात मारला. नको नको म्हणेपर्यंत ब्राह्मणांना भरपूर भोजन दिलय मी. ” मला या ढोंगीपणाची, आत्मस्तुतीची  चीड आली. बढायावर बढाया मारणं चाललं होतं. इतक्यात माझं लक्ष झाडाखाली बसलेल्या साधू बाबांकडे गेलं. शांतपणे डोळे मिटून ते पक्षांचा किलबिलाट ऐकत होते.

तुंदील तनुवर हात फिरवत बसलेल्या पंडितजींकडे मी बघितलं. त्यांच्यासाठीच  मी शिधा आणला  होता. मनात आलं ह्या भरगच्च जेवणावर  ताव मारून ढेकर देणाऱ्या पंडितजींना हा शिधा देण्यात काय अर्थ आहे? अन्नावर अन्न आणि  आणि वस्त्रावर वस्त्र  असंच नाही का होणार ते ? त्यापेक्षा या गरीब साधूला हे सगळं द्यायला काय हरकत आहे? विचारासारखी मी ताडकन उठलो. साधूबाबाच्या जवळ जात म्हणालो,

” बाबा एक विनंती आहे, तुमची काही हरकत नसेल तर हा शिधा देऊ का मी तुम्हाला? घ्याल? नाही म्हणू नका. ”.. माझ्या प्रश्नावर धीरगंभीर आवाजात उत्तर आलं ” बंधू निर्मळ, निरपेक्ष मनाने तू  हे शिधादान करतो आहेस. देवाच्या दरबारातला प्रसाद समजून अवश्य घेईन मी तुझे दान “. कुठली  हाव नाही, कुठलीही  आसक्ती नाही. मिळेल ते दान पदरांत पडल्यावर समाधान मानण्याची  त्यांची  वृत्ती बघून मला बरं वाटलं. लगबगीने मी पिशव्या  त्यांच्या स्वाधीन केल्या. आणि माझ्या लक्षात आलं बाबांना एकच हात आहे. पिशवी जवळजवळ माझ्या हातातून ओढून घेऊन, तांदुळाच्या पिशवीत हात घालून मुठभर तांदूळ बु्वांनी कट्ट्यावर फेकले. माझा राग अनावर झाला. ‘ केवढा हा माजोरेपणा? ‘  ‘ ‘भिकाऱ्याला ओकाऱ्या ‘ म्हणतात ते असंच असावं. पायरीवर बसलेले पंडितजी माझ्याकडे बघून कुचेष्टेने हसले. त्यांच्यासाठी आणलेला शिधा  मी साधूबाबांच्या झोळीत टाकला होता ना !

कुणीतरी म्हणाले सुद्धा, “ हे लेकाचे फार माजलेत. दान सत्पात्रीच द्यावं. अशा माजोरडयांना अशा भिकाऱ्यांना नाही. ”  

मी पण  तिरीमिरीत उठलो  साधूबाबांच्या अंगावर ओरडलो, “अहो काय केलंत हे ? मी तुम्हाला प्रेमाने धान्य दिलं आणि तुम्ही ते भिरकावून दिलंत ? अन्नपूर्णेचा अपमान आहे हा “. ‘ माजोऱ्या सारखा ‘ हा शब्द  मात्र मी गिळून  घेतला. शांतपणे  मान झुकवून ते म्हणाले, ” नाही बंधू.. धान्याचा असा अपमान मी कसा करेनं ? उलट तुमचं धान्य भुकेलेल्या मुक्या जीवांपर्यंत पोहोचवायचं होतं, म्हणून मी ते पारावर टाकलं. तुमचं दान सत्पात्री  पडलय. क्षुधा शांतीने तृप्त झालेली ती चिमणी पाखरं भरल्या पोटी आनंदाने घरट्याकडे वळलीत. तुमच्या धान्यातला कण न कण वेचला  आहे त्यांनी. तिकडे बघा  सहस्त्र भोजन  झालय. पण थाळीमध्ये लोकांनी टाकून दिल्यामुळे उकिरड्यावर  फेकलेलं अन्न वाया गेलंय. पोटभर भोजन करून चिमण्या उरलेले दाणे आपल्या चोचीत साठवून आपल्या बाळांना देण्यासाठी व घरट्यात जाण्यासाठी आसुसल्या आहेत. ”  

मी डोळे विस्फारून  पाराकडे बघतच राहिलो. चिवचिवणाऱ्या चिमण्यांचा थवा दाणा न दाणा टिपून घेत होता. साधूबाबा निर्मळ हसत म्हणाले, ” देख बंधू, ‘दाने दाने पर भगवान ने खानेवाले का नाम लिखा  है।”  आता मी हात जोडले आणि म्हणालो, ” बाबा खरंय तुमचं, बोलक्या जीवांना ओरडून अन्न मिळवता येतं. पण ही मुकी भुकेली पाखरं कशी मागणार धान्य आपल्याजवळ? “ साधू बाबा पुढे म्हणाले, ” चिमण्यांचा चिमणासाचं जीव आहे. पण त्यांनाही पोट आहेच ना?  बलवान पक्षी मारतात त्यांना. अन्यायाविरुद्ध समर्थपणे लढण्याची शक्ती ह्यांच्यातही यायला हवी आहे.. हो ना ? त्यांचा दुबळेपणा जाऊन त्यांनी बलवान व्हावं म्हणून मी हा चिमणचारा त्यांना चारला. क्षमा कर मला. ” …. हे तत्वज्ञान ऐकून मी अवाक झालो. माझ्या मनात आलं सगळीच माणसं ढोंगी लबाड नसतात. देवमाणसं पण जगात आहेत. गाभाऱ्यातल्या अन्नपूर्णा देवीला मी हात जोडले. तिच्या डोळ्यातलं वात्सल्य मला साधूबाबांच्या डोळ्यात दिसलं. साधू बाबा दुसऱ्या पाराकडे  वळले होते. आणि पुन्हा त्यांची पिशवीतल्या तांदुळानी मूठ भरली गेली होती. पाखरांची क्षुधा शांती करण्यासाठी… 

मी ओरडून म्हणालो, “बाबा आपके लिए भी कुछ रखो. “ हसून हात हलवत ते म्हणाले, ” फिकर  मत कर बेटा, तेरे जैसे भगवानने दिया हुआ प्रसाद हैं ये. मै भी उसमे भागीदार हो जाऊंगा…” 

काय किमया आहे बघा ! मलाच ते भगवान समजताहेत आणि मला त्यांच्यात  भगवान दिसतो आहे. मंदिरातली भगवती मात्र आम्हाला आशिर्वाद देत होती. आणि आपल्या सगळ्या लेकरांवरून वात्सल्यपूर्ण नजर फिरवत होती. खडतर आयुष्याचं गणित सोपं करून जगणाऱ्या ह्या निर्मळ मनाच्या साधूबाबांच्या पाठमोऱ्या आकृतीकडे बघून मी हात जोडले. काही प्रसंग साधे असतात. पण त्यात मोठा आशय भरलेला असतो नाही का ? आयुष्याचं तत्वज्ञान सहज सोपं करून सांगणारी अशी ही देवमाणसं जगात आहेत. आणि म्हणूनच जग चाललंय… म्हणूनच… जग चाललंय..

(धन्यवाद. मंडळी …  माणसांच्या मनाचे अनेक कंगोरे असतात. कुणी स्वतःच्या पोळीवर तूप ओढून  घेणारे असतात तर. आपल्या घासातला घासही दुसऱ्यासाठी राखून ठेवणारे दिलदारही या जगात आहेत. साधुबुवा एक हाताने अर्थार्जन नाही करू शकत. पण मिळालेल्या धान्यातून ‘चिमणचारा’ ते बाजूला काढू शकतात. एक तीळ सात जणांनी वाटून खावा ही म्हण त्यांना लागू पडते. स्वार्थ आणि परमार्थही ते साधू शकतात. आणि ‘ विश्वची माझे घर ‘ या आनंदात ते जगू शकतात. साधीच माणसं पण विचार मोठे याची प्रचिती मला आली…. म्हणून हा लेखप्रपंच )    

© सौ राधिका -माजगावकर- पंडित

पुणे – 51  

मो. 8451027554

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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