कविता, कथा कादंबरी आदी वाडंःमय प्रकार आपण नेहमी वाचत असतो. आणि त्यात लघुकथा आवडीने वाचल्या जातात. लघुकथेचा विषय छोटासा पण लक्ष वेधून घेणारा असल्याने मनात रेंगाळत रहातो. डॉ.ज्योती गोडबोले यांचा ‘मांडवावरची वेल’ हा असाच एक लघुकथा संग्रह आहेत.
डॉ. ज्योती या व्यवसायाने डॉक्टर असल्याने लोकांशी संपर्क तर रोजचाच. त्यातही वैविध्य फार ! वय, जात आणि स्त्री पुरुष फरक ज्याचा परिणाम माणसाच्या वागणुकीत दिसत असतो. त्याचे वेगळेपण टिपणे आणि ते कथारुपाने वाचकांपर्यंत पोचवणे यात डॉ ज्योती अगदी यशस्वी झाल्या आहेत.
डॉक्टरांकडे येणारा पेशंट हा त्याची व्याधी तर घेऊन येतोच पण खूपदा मनाची दुखणी खुपणी ही त्यांना सागतो, त्यांच्याकडून काही दिलासा मिळतोय का याची वाट बघतो. ‘ देव तारी त्याला ‘ या कथेतील रोजंदारीवर काम करणाऱ्या बाईचे जेमतेम १ किलो वजनाचे बाळ कसं वाचलं आणि पोलिस इन्स्पेक्टर झालं ही कथा, किंवा ‘ वठलेला मोहर ‘ ही अरूणाची कथा, या कथा वाचकांनाही आपल्यासमोर घडताहेत असे वाटावे इतके जिवंत चित्रण लेखिकेने केले आहे.
इतक्या वेगवेगळ्या विषयांवर कथा त्यांनी लिहिल्या आहेत कि त्यांच्याबरोबर आपणही जग फिरुन येतो. परदेशात स्थायीक झालेली भारतीय मुलगी व तिचा अमेरिकेन नवरा यांची ‘ मायबाप ‘ ही कथा आपल्याला एका वेगळ्या संस्कृतीत वाढलेल्या व्यक्तीला आपले संस्कार कसे लोभसवाणे वाटतात हे सांगते, तर ‘ रॉबर्ट आमचा शेजारी ‘ ह्या कथेत त्या एका जिद्दी निग्रो डॉक्टरची मनापासून तारीफ करतात . अशाच प्रकारची ‘ गराजसेल ‘ किंवा ‘ डाउनसायझिंग ‘ ह्या कथाही परदेशातील परिस्थितीचे वेगळे विषय मांडतात.
या दोन्हीपेक्षा वेगळे आहे ते त्यांचे समृद्ध भावविश्व ! माणसाच्या मनाचे कंगोरे कोपरे त्यांना सहज दिसतात आणि आपल्या प्रवाही भाषेत ते त्या मांडतातही … इतक्या सुबकपणे की अशा कथांना अगदी सहजपणे दाद दिली जाते.
‘ झोपाळ्यावर ‘ ही कथा अशीच सुंदर आहे. झोपाळ्याच्या सुरेल व सुरेख आठवणी त्यांनी सांगितल्या आहेत . तशीच एक छान गोष्ट म्हणजे ‘ ओंकारची शेळी ! ‘ खेड्यात रहाणारा ओंकार शेळीसाठी हट्ट करतो, आईच्या सगळ्या अटी पाळून अगदी प्रेमाने शेळीची काळजी घेतो. ती शेळीच त्याच्या शिक्षणाचा आधार बनते.
अजून एक प्रेरणादायी कथा मांडवावरची वेल ही शीर्षक कथा…. एक नाजुक साजूक वेल, पण जर तिला मांडवाचा घट्ट आधार मिळाला तर ती कशी बहरते, फुलते-फळते हे समजण्यासाठी पुस्तकच वाचायला पाहिजे.
या कथा संग्रहात एकूण पस्तीस कथा आहेत. सर्व कथांची मांडणी नेटकी असून कथेची गोडी वाढवणारे आहे.
अशा रितीने, अगदी हलक्या फुलक्या पण वाचता वाचता सहज शिक्षण देणाऱ्या या संग्रहातल्या कथा वाचताना वाचकाच्या मनात एक विचार शलाका नक्कीच जागृत करणाऱ्या आहेत. हा कथासंग्रह सादर करून डॉ. ज्योती यांनी आपले अनुभव उत्तम प्रकारे शेअर केले आहेत. त्यांचे हे अनुभव तुम्हीही वाचावेत अशी माझी प्रामाणिक इच्छा आहे.
परिचय : सुश्री प्रभा हर्षे
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख ख़ामोशियों का सबब… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 224 ☆
☆ ख़ामोशियों का सबब… ☆
‘कुछ वक्त ख़ामोश होकर भी देख लिया हमने / फिर मालूम हुआ कि लोग सच में भूल जाते हैं’ गुलज़ार का यह कथन शाश्वत् सत्य है और आजकल ज़माने का भी यही चलन है। ख़ामोशियाँ बोलती हैं, जब तक आप गतिशील रहते हैं। जब आप चिंतन-मनन में लीन हो जाते हैं, समाधिस्थ अर्थात् ख़ामोश हो जाते हैं, तो लोग आपसे बात तक करने की ज़ेहमत भी नहीं उठाते। वे आपको विस्मृत कर देते हैं, जैसे आपका उनसे कभी संबंध ही ना रहा हो। वैसे भी आजकल के संबंध रिवाल्विंग चेयर की भांति होते हैं। आपने तनिक नज़रें घुमाई कि सारा परिदृश्य ही परिवर्तित हो जाता है। अक्सर कहा जाता है ‘आउट ऑफ साइट, आउट ऑफ माइंड।’ जी हाँ! आप दृष्टि से ओझल क्या हुए, मनोमस्तिष्क से भी सदैव के लिए ओझल हो जाते हैं।
सुना था ख़ामोशियाँ बोलती है। जी हाँ! जब आप ध्यानस्थ होते हैं, तो मौन हो जाते हैं और बहुत से विचित्र दृश्य आपको दिखाई देने पड़ते हैं और बहुत से रहस्य आपके सम्मुख उजागर होने लगते हैं। उस स्थिति में अनहद नाद के स्वर सुनाई पड़ने लगते हैं तथा आप अपनी सुधबुध खो बैठते हैं। दूसरी ओर यदि आप चंद दिनों तक ख़ामोश अर्थात् मौन हो जाते हैं, तो लोग आपको भुला देते हैं। यह अवसरवादिता का युग है। जब तक आप दूसरों के लिए उपयोगी है, आपका अस्तित्व है, वजूद है और लोग आपको अहमियत प्रदान करते हैं। जब उनका स्वार्थ सिद्ध हो हो जाता है, मनोरथ पूरा हो जाता है, वे आपको दूध से मक्खी की भांति निकाल फेंक देते हैं। वैसे भी एक अंतराल के पश्चात् सब फ्यूज़्ड बल्ब हो जाते हैं, छोटे-बड़े का भेद समाप्त हो जाता है और सब चलते-फिरते पुतले नज़र आने लगते हैं अर्थात् अस्तित्वहीन हो जाते हैं। ना उनका घर में कोई महत्व रहता है, ना ही घर से बाहर, मानो वे पंखविहीन पक्षी की भांति हो जाते हैं, जिन्हें सोचने-समझने व निर्णय लेने का अधिकार नहीं होता।
बच्चे अपने परिवार में मग्न हो जाते हैं और आप घर में अनुपयोगी सामान की भांति एक कोने में पड़े रहते हैं। आपको किसी भी मामले में हस्तक्षेप करने व सुझाव देने का अधिकार नहीं रहता। यदि आप कुछ कहना भी चाहते हैं, तो ख़ामोश रहने का संदेश नहीं; आदेश दिया जाता है और आप मौन रहने को विवश हो जाते हैं। ख़ामोशियों से बातें करना आपकी दिनचर्या में शामिल हो जाता है। आपको आग़ाह कर दिया जाता है कि आप अपने ढंग व इच्छा से अपनी ज़िंदगी जी चुके हैं, अब हमें अपनी ज़िंदगी चैन-औ-सुक़ून से बसर करने दो। यदि आप में संयम है, तो ठीक है, नहीं है, तो आपको घर से बाहर अर्थात् वृद्धाश्रम का रास्ता दिखा दिया जाता है। वहाँ आपको हर पल प्रतीक्षा रहती हैं उन अपनों की, आत्मजों की, परिजनों की और वे उनकी एक झलक पाने को लालायित रहते हैं और एक दिन सदा के लिए ख़ामोश हो जाते हैं और इस मिथ्या जहान से रुख़्सत हो जाते हैं।
अतीत बदल नहीं सकता और चिंता भविष्य को संवार नहीं सकती। इसलिए भविष्य का आनंद लेना ही श्रेयस्कर है। उसमें जीवन का सच्चा सुख निहित है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। इसलिए ‘जो पीछे छूट गया है, उसका शोक मनाने की जगह जो आपके पास है, आपका अपना है; उसका आनंद उठाना सीखें’, क्योंकि ‘ढल जाती है हर चीज़ अपने वक्त पर / बस व्यवहार और लगाव ही है / जो कभी बूढ़ा नहीं होता। किसी को समझने के लिए भाषा की आवश्यकता नहीं होती, कभी-कभी उसका व्यवहार बहुत कुछ कह देता है। मनुष्य जैसे ही अपने व्यवहार में उदारता व प्रेम का समावेश करता है, उसके आसपास का जगत् सुंदर हो जाता है।
(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “– आगामी इतिहास – ”।)
~ मॉरिशस से ~
☆ कथा कहानी ☆ – आगामी इतिहास – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆
अब तक तो यही बतलाया गया गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य की धनुर्विद्या से अचंभित हो जाने पर अपने डर के कारण उसका अंगूठा मांगा था। अब महाभारत का वह पन्ना पलट गया था। ठगी का मर्म समझ जाने वाला एकलव्य पूरी सामर्थ्य से द्रोणाचार्य के सामने खड़ा हो कर उसका अंगूठा मांग रहा था। जिसने भी महाभारत के उस पन्ने पर हाथ रखा वह भावी चेता था। उसने एकलव्य का इतिहास लिखा।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
संजय दृष्टि – विश्व जल दिवस विशेष – बिन पानी सब सून
जल जीवन के केंद्र में है। यह कहा जाए कि जीवन पानी की परिधि तक ही सीमित है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। नाभिनाल हटाने से लेकर मृतक को स्नान कराने तक सारी प्रक्रियाओं में जल है। अर्घ्य द्वारा जल के अर्पण से तर्पण तक जल है। कहा जाता है-“क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा,पंचतत्व से बना सरीरा।’ इतिहास साक्षी है कि पानी के अतिरिक्त अन्य किसी तत्व की उपलब्धता देखकर मानव ने बस्तियॉं नहीं बसाई। पानी के स्रोत के इर्द-गिर्द नगर और महानगर बसे। प्रायः हर शहर में एकाध नदी, झील या प्राकृतिक जल संग्रह की उपस्थिति इस सत्य को शाश्वत बनाती है। भोजन ग्रहण करने से लेकर विसर्जन तक जल साथ है। यह सर्वव्यापकता उसे सोलह संस्कारों में अनिवार्य रूप से उपस्थित कराती है।
पानी की सर्वव्यापकता भौगोलिक भी है। पृथ्वी का लगभग दो-तिहाई भाग जलाच्छादित है पर कुल उपलब्ध जल का केवल 2.5 प्रतिशत ही पीने योग्य है। इस पीने योग्य जल का भी बेहद छोटा हिस्सा ही मनुष्य की पहुँच में है। शेष सारा जल अन्यान्य कारणों से मनुष्य के लिए उपयोगी नहीं है। कटु यथार्थ ये भी है कि विश्व की कुल जनसंख्या के लगभग 15 प्रतिशत को आज भी स्वच्छ जल पीने के लिए उपलब्ध नहीं है। लगभग एक अरब लोग गंदा पानी पीने के लिए विवश हैं। विभिन्न रिपोर्टों के अनुसार विश्व में लगभग 36 लाख लोग प्रतिवर्ष गंदे पानी से उपजनेवाली बीमारियों से मरते हैं।
जल प्राण का संचारी है। जल होगा तो धरती सिरजेगी। उसकी कोख में पड़ा बीज पल्लवित होगा। जल होगा तो धरती शस्य-श्यामला होगी। जीवन की उत्पत्ति के विभिन्न धार्मिक सिद्धांत मानते हैं कि धरती की शस्य श्यामलता के समुचित उपभोग के लिए विधाता ने जीव सृष्टि को जना। विज्ञान अपनी सारी शक्ति से अन्य ग्रहों पर जल का अस्तित्व तलाशने में जुटा है। चूँकि किसी अन्य ग्रह पर जल उपलब्ध होने के पुख्ता प्रमाण अब नहीं मिले हैं, अतः वहॉं जीवन की संभावना नहीं है। सुभाषितकारों ने भी जल को पृथ्वी के त्रिरत्नों में से एक माना है-“पृथिव्याम् त्रीनि रत्नानि जलमन्नम् सुभाषितम्।’
मनुष्य को ज्ञात चराचर में जल की सर्वव्यापकता तो विज्ञान सिद्ध है। वह ऐसा पदार्थ है जो ठोस, तरल और वाष्प तीनों रूपों में है। वह जल, थल और नभ तीनों में है। वह ब्रह्मांड के तीनों घटकों का समन्वयक है। वह “पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ‘का प्रमाणित संस्करण है। हिम से जल होना, जल से वायु होना और वायु का पुनः जल होकर हिम होना, प्रकृति के चक्र का सबसे सरल और खुली आँखों से दिखने वाला उदाहरण है। आत्मा की नश्वरता का आध्यात्मिक सिद्धांत हो या ऊर्जा के अक्षय रहने का वैज्ञानिक नियम, दोनों को अंगद के पांव -सा प्रतिपादित करता-बहता रहता है जल।
भारतीय लोक जीवन में तो जल की महत्ता और सत्ता अपरंपार है। वह प्राणदायी नहीं अपितु प्राण है। वह प्रकृति के कण-कण में है। वह पानी के अभाव से निर्मित मरुस्थल में पैदा होनेवाले तरबूज के भीतर है, वह खारे सागर के किनारे लगे नारियल में मिठास का सोता बना बैठा है। प्रकृति के समान मनुष्य की देह में भी दो-तिहाई जल है। जल जीवन रस है। अनेक स्थानों पर लोकजीवन में वीर्य को जल कहकर भी संबोधित किया गया है। जल निराकार है। निराकार जल, चेतन तत्व की ऊर्जा धारण करता है। जल प्रवाह है। प्रवाह चेतना को साकार करता है। जल परिस्थितियों से समरूप होने का अद्भुत उदाहरण है। पात्र मेंं ढलना उसका चरित्र और गुणधर्म है। वह ओस है, वह बूँद है, वह झरने में है, नदी, झील, तालाब, पोखर, ताल, तलैया, बावड़ी, कुएँ, कुईं में है और वह सागर में भी है। वह धरती के भीतर है और धरती के ऊपर भी है। वह लघु है, वही प्रभु है। कहा गया है-“आकाशात पतितं तोयं यथा गच्छति सागरं।’ बूँद वाष्पीकृत होकर समुद्र से बादल में जा छिपती है। सागर बूँद को तरसता है तो बादल बरसता है और लघुता से प्रभुता का चक्र अनवरत चलता है।
लोक का यह अनुशासन ही था जिसके चलते कम पानी वाले अनेक क्षेत्रों विशेषकर राजस्थान में घर की छत के नीचे पानी के हौद बनाए गए थे। छत के ढलुआ किनारों से वर्षा का पानी इस हौद में एकत्रित होता। जल के प्रति पवित्रता का भाव ऐसा कि जिस छत के नीचे जल संग्रहित होता, उस पर शिशु के साथ मॉं या युगल का सोना वर्जित था। प्रकृति के चक्र के प्रति श्रद्धा तथा “जीओ और जीने दो’ की सार्थकता ऐसी कि कुएँ के चारों ओर हौज बॉंधा जाता। पानी खींचते समय हरेक से अपेक्षित था कि थोड़ा पानी इसमें भी डाले। ये हौज पशु-पक्षियों के लिए मनुष्य निर्मित पानी के स्रोत थे। पशु-पक्षी इनसे अपनी प्यास बुझाते। पुरुषों का स्नान कुएँ के समीप ही होता। एकाध बाल्टी पानी से नहाना और कपड़े धोना दोनों काम होते। इस प्रक्रिया में प्रयुक्त पानी से आसपास घास उग आती। यह घास पानी पीने आनेवाले मवेशियों के लिए चारे का काम करती।
पनघट तत्कालीन दिनचर्या की धुरि था। नंदलाल और राधारानी के अमूर्त प्रेम का मूर्त प्रतीक पनघट, नायक-नायिका की आँखों मेंे होते मूक संवाद का रेकॉर्डकीपर पनघट, पुरुषों के राम-श्याम होने का साझा मंच पनघट और स्त्रियों के सुख-दुख के कैथारसिस के लिए मायका-सा पनघट ! पानी से भरा पनघट आदमी के भीतर के प्रवाह का विराट दर्शन था। कालांतर में सिकुड़ती सोच ने पनघट का दर्शन निरपनिया कर दिया। कुएँ का पानी पहले खींचने को लेकर सामन्यतः किसी तरह के वाद-विवाद का उल्लेख नहीं मिलता। अब सार्वजनिक नल से पानी भरने को लेकर उपजने वाले कलह की परिणति हत्या में होने की खबरें अखबारों में पढ़ी जा सकती हैं। स्वार्थ की विषबेल और मन के सूखेपन ने मिलकर ऐसी स्थितियॉं पैदा कर दीं कि गॉंव की प्यास बुझानेवाले स्रोत अब सूखे पड़े हैं। भॉंय-भॉंय करते कुएँ और बावड़ियॉं एक हरी-भरी सभ्यता के खंडहर होने के साक्षी हैं।
हमने केवल पनघट नहीं उजाड़े, कुओं को सींचनेवाले तालाबों और छोटे-मोटे प्राकृतिक स्रोतों को भी पाट दिया। तालाबों की कोख में रेत-सीमेंट उतारकर गगनचुम्बी इमारतें खड़ी कर दीं। बाल्टी से पानी खींचने की बजाय मोटर से पानी उलीचने की प्रक्रिया ने मनुष्य की मानसिकता में भयानक अंतर ला दिया है। बूँद-बूँद सहेजनेवाला समाज आज उछाल-उछाल कर पानी का नाश कर रहा है। दस लीटर में होनेवाला स्नान शावर के नीचे सैकड़ों लीटर पानी से खेलने लगा है। पैसे का पीछा करते आदमी की आँख में जाने कहॉं से दूर का न देख पाने की बीमारी-मायोपिआ उतर आई है। इस मायोपिआ ने शासन और अफसरशाही की आँख का पानी ऐसा मारा कि सूखे से जूझते क्षेत्र में नागरिक को अंजुरि भर पानी उपलब्ध कराने की बजाय क्रिकेट के मैदान को लाखों लीटर से भिगोना ज्यादा महत्वपूर्ण समझा गया।
पर्यावरणविद मानते हैं कि अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए लड़ा जाएगा। प्राकृतिक संसाधन निर्माण नहीं किए जा सकते। प्रकृति ने उन्हें रिसाइकिल करने की प्रक्रिया बना रखी है। बहुत आवश्यक है कि हम प्रकृति से जो ले रहे हैं, वह उसे लौटाते भी रहें। पानी की मात्रा की दृष्टि से भारत का स्थान विश्व में तीसरा है। विडंबना है कि सबसे अधिक तीव्रता से भूगर्भ जल का क्षरण हमारे यहॉं ही हुआ है। नदी को मॉं कहनेवाली संस्कृति ने मैया की गत बुरी कर दी है। गंगा अभियान के नाम पर व्यवस्था द्वारा चालीस हजार करोड़ डकार जाने के बाद भी गंगा सहित अधिकांश नदियॉं अनेक स्थानों पर नाले का रूप ले चुकी हैं। दुनिया भर में ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते ग्लेशियर पिघल रहे हैं। आनेवाले दो दशकों में पानी की मांग में लगभग 43 प्रतिशत बढ़ोत्तरी की आशंका है और हम गंभीर जल संकट के मुहाने पर खड़े हैं।
आसन्न खतरे से बचने की दिशा में सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर कुछ स्थानों पर अच्छा काम हुआ है। कुछ वर्ष पहले चेन्नई में रहनेवाले हर नागरिक के लिए वर्षा जल संरक्षण को अनिवार्य कर तत्कालीन कलेक्टर ने नया आदर्श सामने रखा। देश भर के अनेक गॉंवों में स्थानीय स्तर पर कार्यरत समाजसेवियों और संस्थाओं ने लोकसहभाग से तालाब खोदे हैं और वर्षा जल संरक्षण से सूखे ग्राम को बारह मास पानी उपलब्ध रहनेवाले ग्राम में बदल दियाहै।ऐसेे प्रयासोंें को राष्ट्रीय स्तर पर गति से और जनता को साथ लेकर चलाने की आवश्यकता है।
रहीम ने लिखा है-” रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून, पानी गये न ऊबरे, मोती, मानस, चून।’ विभिन्न संदर्भों में इसकी व्याख्या भिन्न-भिन्न हो सकती है किंतु पानी का यह प्रतीक जगत् में जल की अनिवार्यता को प्रभावी रूप से रेखांकित करता है। पानी के बिना जीवन की कल्पना करते ही मुँह सूखने लगता है। जिसके अभाव की कल्पना इतनी भयावह है, उसका यथार्थ कैसा होगा! महादेवीजी के शब्दों में कभी-कभी यथार्थ कल्पना की सीमा को माप लेता है। वस्तुतः पानी में अपनी ओर खींचने का एक तरह का अबूझ आकर्षण है। समुद्र की लहर जब अपनी ओर खींचती है तो पैरों के नीचे की ज़मीन ( बालू) खिसक जाती है। मनुष्य की उच्छृंखलता यों ही चलती रही तो ज़मीन खिसकने में देर नहीं लगेगी।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 🕉️ श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण का 51 दिन का प्रदीर्घ पारायण पूरा करने हेतु आप सबका अभिनंदन।🕉️
💥 साधको! कल महाशिवरात्रि है। शुक्रवार दि. 8 मार्च से आरंभ होनेवाली 15 दिवसीय यह साधना शुक्रवार 22 मार्च तक चलेगी। इस साधना में ॐ नमः शिवाय का मालाजप होगा। साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ भी करेंगे।💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)
We present his awesome poem ~Adorable Life…~We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji, who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages for sharing this classic poem.
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आम चुनाव…“।)
अभी अभी # 317 ⇒ आम चुनाव … श्री प्रदीप शर्मा
गर्मियाँ शुरू। अगले माह में आम चुनाव ! मुझे चुनाव से अधिक रुचि आम में रहती है। आम चुनाव तो पाँच वर्ष में एक बार आते हैं, हम तो हर वर्ष अपनी पसंद के आम चुन-चुनकर खाते हैं।
अभी आम का मौसम नहीं, आम चुनाव का मौसम है। आम ही नहीं, चुनाव के वक्त तो आदमी भी बौरा जाता है। पसंद अपनी अपनी ख़याल अपना अपना।।
हमारे यहाँ नंदलालपुरे में आमों की मंडी लगती थी। मुझे चुनाव का अधिकार नहीं था ! फिर भी अपने पिताजी की उँगली पकड़, मैं आम चुनाव के लिए निकल पड़ता था। सब तरफ आमों की खुशबू। आम के बाज़ार से, अच्छे आमों का चुनाव कोई हँसी खेल नहीं। हर दुकानदार अपने अपने आमों की ढेरी सजाए, ग्राहक ढूंढा करता था।
आम, चूसने वाले भी होते थे, और काटने वाले भी ! चुनाव आपको करना पड़ता था, आपको चूसने वाला चाहिए या काटने वाला।
अंगूर की तरह कभी कभी आम भी खट्टा साबित हो जाता था, जब चुनाव सही नहीं होता था। अपने आम को कोई खट्टा नहीं कहता। दुकानदार एक आम उठाकर देता था, लीजिये चखिए ! आप हाथ आगे कर देते ! ऐसे नहीं, पूरा आम चखिये। आप पर आंशिक प्रभाव तो पड़ ही चुका होता था। दिखाने वाला आम मीठा ही होता है। घर आकर पता चलता था, हमारा चुनाव गलत था।।
70 साल से आम खा रहा हूँ। आम चुनाव में भी भाग ले रहा हूँ। आज तक आम की पहचान नहीं कर पाया। आखिर आम होते ही कितने हैं। गुजरात का अगर केसर है, तो महाराष्ट्र के रत्नागिरी का हापुस। जो लोग महँगी पौष्टिक बादाम नहीं खा पाते, वह सीज़न के बदाम आम खाकर ही संतोष कर लेते हैं। दशहरी आम तो मानो शहद का टोकरा हो। तोतापरी तो नाम से ही लगता है, सिर्फ तोतों के लिए बना है।
आम फलों का राजा है। आम के चुनाव में अगर बनारस के लंगड़े का जिक्र न हो, तो चुनाव अधूरा है। चाहो तो काटकर खाओ, चाहो तो रस बनाओ। लेकिन आश्चर्य है कि आज तक किसी ने इसके नाम पर आपत्ति नहीं ली है। बनारस का आम, और लंगड़ा ? हो सकता है, इस आम चुनाव के पश्चात बनारस के आम को भी दिव्यांग आम घोषित कर दिया जाए।।
अभी तो अमराइयाँ बोरा रही हैं। आम और आम चुनाव का वास्तविक मज़ा तो मई माह में ही आएगा। सूँघ सूँघ कर, चख चख कर चुनाव करें, कहीं आम खट्टे न निकल जाएं। कुछ लोग आम का अचार डालते हैं ! उन्हें सख्त हिदायत दी जाती है कि अच्छे आमों का ही चयन करें।
अचार ऐसा डालें, जो टिकाऊ हो। ध्यान रहे ! आमों का मध्यावधि चुनाव नहीं होता।।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं आपकी कविता बसंत…।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.“साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख – बिन पानी.! मुश्किल जिंदगानी..! आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 207 ☆
☆ आलेख – विश्व जल दिवस विशेष – बिन पानी.! मुश्किल जिंदगानी..!☆ श्री संतोष नेमा ☆
विख्यात कवि रहिमन जी ने कहा है कि –
रहिमन पानी राखिये, बिनु पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरै, मोती, मानुष, चून॥
अर्थात पानी के बगैर सब कुछ बेकार सा है आजकल हम देख रहे हैं कि आदमी के अंदर का पानी तो खत्म हो ही रहा है.! पर ये बाहरी पानी भी ऑक्सीजन पर नजर आ रहा है.! प्रकृति ने यूं तो अपनी ओर से सभी को एक समान प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध कराए हैं.! पर व्यावहारिक जीवन में हम देखते हैं कि इन संसाधनों का सबसे ज्यादा उपयोग धनवान लोग ही कर पा रहे हैं.! गरीब तो आज भी अपनी मूलभूत समस्याओं से जूझ रहा है.? कहने को तो पृथ्वी के तीन चौथाई हिस्से में पानी है पर अफसोस यह पीने लायक नहीं है.! पेय जल मात्र तीन प्रतिशत ही है.! उसमें भी कुछ अंश ग्लेशियर एवं बर्फ के रूप में है.! इन परिस्थितियों के बावजूद भी कुछ लोग पानी पर अपना एकाधिकार समझते हैं.! और बेतरकीब ढंग से पानी का बेजा इस्तेमाल जैसे उनकी फितरत बन गई है.! गाड़ियों की धुलाई,बाग़ बगीचों की सिचाई, स्वीमिंग पुल की भराई, गैर जरूरी कार्यों में खर्च, जैसे रईसों की जरूरत बन गई है.! अब वो अपना देखें कि जरूरतमंदों, गरीबों के लिए सोचें.? आज यही सवाल सबसे बड़ा है.! आदमी इतना स्वार्थी एवं आत्मकेंद्रित हो गया है कि उसे अपने अलावा किसी की समस्याएं नजर आती ही नहीं.! आए दिन हम देखते हैं कि चाहे नगर हों, महानगर हों, गाँव हों,कस्बे हों हर जगह पेयजल की समस्याएं बिकराल रूप धारण किये हुए हैँ.! विगत वर्ष दक्षिण अफ्रीका की राजधानी केपटाउन को जल विहीन शहर घोषित किया गया.! यह आधुनिक युग की सबसे बड़ी त्रासदी एवं दुर्भाग्य है.? हम दूर क्यों जाएं अपने देश में भी तमाम ऐसे शहर एवं इलाके हैं जहां जहां पर पानी की समस्या सुरसा की तरह बढ़ रही है.! राजस्थान,महाराष्ट्र,आंध्रप्रदेश, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, मध्यप्रदेश झारखण्ड, आदि प्रदेशों में भूमिगत जल स्तर बहुत नीचे आता जा रहा है.! भूमिगत जल का दोहन बड़ी तेजी के साथ लगातार जारी है.! जल स्रोतों की भी अपनी एक सीमाएं हैं जो कहीं ना कहीं हम भूल रहे हैं.! वैसे तो राज्य सरकारें एवं भारत सरकार भी घर घर जल पंहुचाने तमाम योजनाओं पर काम कर रही हैँ. ! हर घर जल योजना जल जीवन मिशन का एक भाग है, जिसे भारत में जल शक्ति मंत्रालय द्वारा लॉन्च किया गया है., पर यह सारी योजनाएं जल के स्रोतों पर ही तो आधारित हैं इसका भी हमें ध्यान रखना होगा.! जल के महत्व को दर्शाते हुए न जाने कितने कथन प्रचलित हैं जिनमें जल ही जीवन है,जल है तो कल है,जल बचाओ जीवन बचाओ,पानी की रक्षा देश की सुरक्षा, पानी बचाओ पृथ्वी बचाओ, जल ही जीवन का आधार है, आओ हम जल रक्षक बनें आदि अनेकों प्रेरक कथन हम सबके लिए अनुकरणीय एवं प्रेरक तो हैँ. पर हम कितने गंभीर हैँ ये हमें सोचना होगा! सरकारों द्वारा भी जल शक्ति अभियान, जल संरक्षण योजनाएं, अटल भू जल योजना,जैसी अनेकों योजनाएं भी जल संरक्षण के लिए तेजी से काम कर रही हैँ.! जल सिर्फ मानव जीवन को ही प्रभावित नहीं करता बरन तमाम व्यवसाय,उद्योग धंधे, निवेश आदि भी इससे पूरी तरह प्रभावित होते हैं.! अभी हाल ही में आईटी हब बेंगलुरू में बढ़ती पानी की समस्या को देखते हुए तमाम बड़ी कंपनियां वहां से पलायन की मानसिकता से दूसरी जगह तलासने में लग गईं हैँ.? ये दूसरा पहलू हमारे विकास की रफ़्तार को पीछे ढकेल सकता है.?
जल की प्रत्येक बूँद हमारे लिए कीमती है. इसे बचाने का हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए.! यूँ तो पुरी दुनिया में 22 मार्च को जल संरक्षण के लिए विश्व जल दिवस मनाया जाता है. जिसकी शुरुआत दरअसल 22 दिसंबर, 1992 को संयुक्त राष्ट्र असेंबली में प्रस्ताव लाया गया था, जिसमें ये घोषणा की गई कि 22 मार्च को विश्व जल दिवस के रूप में मनाया जाएगा. इसके बाद 1993 से दुनियाभर में 22 मार्च को विश्व जल दिवस के रूप में मनाया जाने लगा. कैपटाउन जैसे शहर में तो प्रति व्यक्ति जल उपयोग करने की सीमाएं भी तय कर दी गई है जो जल की भयावह स्थिति को बयां करती हैँ.! कुछेक विश्लेषक तो यहाँ तक कहते हैं कि तीसरा विश्व युद्ध भी जल को लेकर हो सकता है.!! परिस्थितियां आपके सामने हैँ .! शासन अपने स्तर पर विभिन्न योजनाओं के माध्यम से काम कर रहा है पर इन सब के बावजूद यदि किसी की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है तो वह हैँ हम और आप.! जब तक हम उपभोक्ता अंदर से स्वयं जागरूक ना होंगे तब तक जल संरक्षण के सार्थक परिणाम मिलना मुश्किल है.! हम जल के संरक्षण का असली महत्व समझकर उसे अपने जीवन में शामिल करें और उसके प्रति कृतज्ञ रहें। जल संरक्षण के प्रति हमें सचेत करने के लिए ही तमाम सामाजिक,एवं शासकीय संस्थाएं तेजी से काम कर रही हैँ. ! ना जाने कितने कवि और शायर इस विषय को लेकर अपनी कलम के माध्यम से उद्वेलित हैं.! अब यह आपके ऊपर निर्भर करता है कि आप कब जागेंगे.? वक्त रहते जागना ही हम सबके हित में है अन्यथा कैप्टाउन जैसी स्थिति हमारे यहाँ निर्मित होने में देर न लगेगी.! अब तो आँखों का पानी भी सूख रहा है.? अभी समय आ गया है अपने अंदर के एवं बाहर के पानी को बचाने का.!
“पानी खूब बचाइये,पानी है अनमोल
बिन पानी जीवन नहीं,समझें इसका मोल”
आइये हम सब यह प्रण करें कि हम व्यर्थ पानी न बहाएंगे,इसका समुचित उपयोग और बचत कर जल संवर्धन में सहायक बनेंगे.! ताकि हमारा भविष्य उज्जवल हो.अन्यथा हमें यही कहना पड़ेगा कि “बिन पानी..! मुश्किल ज़िंदगानी.”