(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – बदलाव की बयार।)
दुकान में एक गरीब औरत अपने बच्चे को गोदी में लेकर एक मैली सी साड़ी पहनी हुई सेठ जी के सामने खड़ी हो गई।
उसे देखकर दुकान के मालिक ने कहा – बहन जी आगे जाओ मैं दान देकर थक गया हूं सुबह से अभी तक दुकान में किसी ग्राहक ने कोई सामान की खरीदी नहीं की है?
– कोई बात नहीं सेठ जी आप अपने नौकर से कहिए, मुझे एक अच्छी सी साड़ी दिखाये। मेरे भाई की शादी है मुन्ना के लिए भी कपड़ा लेना है?
तभी सामने से दो नौकर (दुकान के कर्मचारी) आए और उन्होंने कहा – आप यहां पर आ जाइए और इनमें से जो भी आपको अच्छा लगे वह पसंद कर लीजिए। पहले आप यह बताइए कि आपको साड़ी कितने दाम की चाहिए?
– जो सामने गुलाबी वाली रखी है वह कितने की है?
– ये 800 की है क्या इतनी महंगी साड़ी ले पाओगी?
– हां ठीक है पैक कर दो।
– अपने बेटे का कपड़ा लेकर तुरंत काउंटर के पास गई और बोली कपड़े का कितना पैसा हुआ?
सेठ जी ने कहा – बहन जी आपके कपड़े देखकर मुझे लगा कि आप क्या खरीदोगी, जिनके कपड़े देखकर हम लोग दुकान का सारा सामान अच्छा दिखा रहे हैं उनके मुंह देखिए? इन्हें समय की कीमत भी नहीं पता है? इन सब मैडम लोगों को तो दोपहर का टाइम पास करना है।
– अभी मुझे काम पर भी जाना है।
– ठीक बात है बहन आप जब भी कपड़े लेने आओगी मैं आपको डिस्काउंट दूंगा और आप बच्चे का कपड़ा मेरी ओर से उपहार समझ के ले जाइए। आपसे सिर्फ ₹800 ही लेंगे।
– एक काम करने वाला ही दूसरे काम करने वाले की कीमत और समय की कीमत को समझ सकता है।
तभी दुकान में कुछ महिला जो बैठी थी वह एक दूसरे से कहती हैं- चलो! बहना हम चलते अपनी बेइज्जती करने के लिए थोड़ा ना बैठे हैं?
और वे अपनी कार में बैठकर चली जाती है ।
सेठ जी ने बड़ी कृतज्ञता से उस गरीब औरत से कहते हैं – बहन चाय पी लो ।
वह कहती है – नहीं भाई अगले बार आकर पियेंगे अब तो हमारा रिश्ता बन गया है । पेट के लिए भाई बहुत कुछ करना पड़ता है घायल की गति घायल ही जाने…. ।
हमारा शहर अब स्मार्ट सिटी बन गया है इसलिए यह सब मैडम जी लोग के लिए नदी के किनारे नगर पालिका द्वारा एक कैमरा लगा दिया गया है।
माननीय विधायक जी ने ऐलान किया है की जो बहन सबसे सुंदर दिखेगी उसे इनाम दिया जाएगा ।
उसी दौड़ में सब शामिल हैं। सौंदर्यीकरण शहर का हो रहा है लोग भी बदलाव की बयार में बह रहे हैं।
☆ पर्यटक की डायरी से – मनोवेधक मेघालय – भाग-११ ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆
(षोडशी शिलॉन्ग)
प्रिय पाठकगण,
आपको हर बार की तरह आज भी विनम्र होकर कुमनो!(मेघालय की खास भाषामें नमस्कार, हॅलो!)
फी लॉन्ग कुमनो!(कैसे हैं आप?)
प्रिय मित्रों, पिछली बार हमने शिलॉन्गका सफर शुरू किया| अब हम शिलॉन्ग में स्थित कुछ और नयनाभिराम स्थल देखेंगे| तो फिर चलिए, बहुत देर तक चलने की तैयारी करें!
एलिफेंट जलप्रपात (Elephant falls)
शिलॉन्ग के उत्तर भाग में एक अन्य सर्वांगसुंदर ऐसा स्थान है, जो कि पर्यटकों ने देखना ही चाहिए, ऐसा एलिफेंट फॉल! इस जलप्रपात के निकट हाथी के आकार की एक विशाल चट्टान थी, इसलिए ब्रिटिशों ने इसका नाम रखा एलिफेंट फॉल| परन्तु अब इस निर्झर के पास वह कुंजर सम महाकाय चट्टान नहीं रहा क्योंकि, १८९७ के भूकंप में वह नष्ट हो गया| लेकिन उसका नामकरण जिस नाम से हुआ, वहीं नाम आज भी प्रचलित है! शहर के मध्य से ११ किलोमीटर अंतर पर स्थित यह त्रिस्तरीय जलप्रपात (यह जलप्रपात तीन चरणों में गिरता है) देखने हेतु वर्षा ऋतू में जाना बेहतर है, श्वेत दुग्ध जैसी सैकड़ों फेनिल धाराओं की लयबद्ध सप्तसुरों से पूरे क्षेत्र को निनादित कर देने वाले इस जलप्रपात का प्राकृतिक रमणीय दर्शन मंत्रमुग्ध कर देने वाला है। एक बार देखने पर दृष्टि हटती ही नहीं| अगर वर्षा ऋतू में जा रहे हैं, तो सीढ़ियों की उतरन ध्यानपूर्वक सम्हालते हुए एक स्तर देखिये, आँखों में समा जाये तो, नीचे उतरिये, दूसरा स्तर देखिये, फिर एक बार नीचे सीढ़ियों की उतरन, और सबसे गहरा तीसरा स्तर, जल का प्रवाह नीचे की ढलान में प्रवाहित होते हुए देखिए। सबसे नीचे इस मनोहरी तथा रमणीय नीलजलप्रपात का एकत्रित जल एक छोटेसे तालाब में समाहित होता है| तालाब के चारों ओर सदाहरित वनसम्पदा सदैव साथ में ही होती है! मित्रों, अब अगला कार्य कठिन ही समझिये, क्योंकि अब सीढ़ियां जो चढ़नी हैं! केवल निर्झर का ही नहीं बल्कि, उसे अनायास बाहुपाश में लेनेवाली नित्यहरित हरियाली का भी मनभावन दर्शन करते चलिए! खिलखिलाता हुआ यह झरना और उससे सटी, साथ देती हुई गहन हरीभरी पर्वतश्रृंखला! यह नेत्रदीपक और ‘पिक्चर परफेक्ट’ दृश्य नेत्रों और कैमरा में कैद कर लीजिये! ऐसा अभूतपूर्व दृश्य देखने के लिए शिलॉन्ग में पर्यटकों की भीड़ बड़ी संख्या में इकठ्ठी हो जाती है, इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है!
डॉन बॉस्को संग्रहालय (Don Bosco Museum)
यह संग्रहालय शिलॉन्ग शहर के मध्यबिंदू से ५ किलोमीटर अंतर पर सेक्रेड हार्ट चर्च के विस्तृत परिसर में स्थित है| कलासक्त, इतिहास प्रेमी, नावीन्य की नयी मार्गिका खोजने वाले, मेघालय की संस्कृति के बारे में जानने के लिए उत्सुक, इन सभी प्रकार के युवा और वृद्ध पर्यटकों का इस भवन में प्रेम से स्वागत किया जाता है। प्रारम्भ में ही एक पथदर्शक हमें इस संग्रहालय में ७ मंजिलों में स्थित विविध बड़े कमरों (दर्शक दीर्घाओं) के बारे में संक्षिप्त जानकारी देता हैं| परन्तु बाहर खड़े होकर इस भव्य-दिव्य संग्रहालय की रत्ती भर भी कल्पना नहीं की जा सकती| इस विशाल ७ मंजली इमारत में सत्रह अलग-अलग सुरम्य दर्शक दीर्घाएँ हैं! इसमें क्या नहीं है यह पूछिए! कला भवन (आर्ट गॅलरी), हस्तकला, कलावस्तू, पोशाक, गहने और ईशान्य भारत के विविध जनजातियों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले हथियारों का एक विस्तृत संग्रह यहां भर भर कर रखा गया है। संपूर्ण ईशान्य भारत के विहंगम दृश्यों की एकत्रित रम्य दर्शिका एक ही स्थान पर साध कर रखी है इस दर्शनीय संग्रहालय में!
यहाँ इतना कुछ देखने लायक है, कि पर्यटकों का संपूर्ण संतुष्ट होना काफी मुश्किल है! यह सब देखने के लिए एक पूरा दिन भी कम ही होगा! कितना कुछ नजरों में समाहित करें और फोटो भी कितने खींचें! “कुछ तो बाकी रह गया”, हमारी ऐसी अवस्था प्रत्येक मंजिल पर हो जाती है| इसीलिये अगर समय की कमी है तो, आप ब्रोशर को ध्यान से देखकर अपनी पसंद की मंजिलों का चयन कीजिये और जब तक संतुष्ट न हों तब तक उन्हें शांति से देखें। मैंने अपनी पसन्दानुरूप ‘आर्ट गॅलरी’ में मनमाफिक आनंदपूर्वक समय बिताया! इस इमारत का सबसे रोमांचक बिंदु निश्चित रूप से ७ वीं (शीर्ष/ऊपर वाली) मंजिल है “स्काय वॉक”| हम जब वहां पहुँचे तब थोड़े समय पहले बारिश आ चुकी थी, इसलिए मार्ग थोडासा फिसलन भरा था, यहाँ गोल गुम्बद के चारों ओर घूमकर शिलॉन्ग का मनमोहक नज़ारा देखना एक चरम मनोज्ञ अनुभव है। क्या देखना है, उस खास बिंदु पर लिखा है ही, अलावा इसके फोटो खींचना तो अनिवार्य है ही, परन्तु प्रिय मित्रों, सेल्फी लेते वक्त सावधानी बरतें! चौथी मंज़िल पर एक बढ़िया कॅफे है! उसीके बगल में ईशान्य भारत का ख़ूबसूरत दर्शन कराने वाली फिल्म एक छोटेसे सिनेमाघर में अवश्य ही देखना चाहिए। संक्षेप में बताऊँ तो यह भव्य दिव्य संग्रहालय ईशान्य भारत की सांस्कृतिक सम्पन्नता को दर्शाने वाली एक रेखात्मक चित्र-गैलरी ही समझ लीजिये!
कॅथेड्रल ऑफ मेरी हेल्प ऑफ ख्रिश्चनस
शिलॉन्ग में स्थित यह चर्च कॅथोलिक आर्कडिओसीस का कॅथेड्रल और शिलाँग के मेट्रोपॉलिटन आर्चबिशप के आसन के रूप में प्रसिद्ध है| शहर के मध्य बिंदु से केवल २ किलोमीटर दूर यह चर्च पर्यटकों की बहुत ही पसंदीदा जगह है| लगभग ५० वर्ष पूर्व निर्मित यह कॅथेड्रल शिलॉन्ग आर्कडिओसेस के साढे तीन लाख से भी अधिक कॅथलिक लोगों का मुख्य प्रार्थनास्थल है| उसमें पूर्व खासी हिल्स और री-भोई जिलों का भी समावेश है (कुल ३५ चर्च)| यह चर्च Laitumkhrah इस भाग में है| इस चर्च का नाम येशू के Mary the mother के नाम के पर दिया गया है| मदर मेरी के पुतले सहित यह शुभ्र धवल संगमरमर की इमारत अति भव्य और शोभायमान दिखती है| इस चर्च की खासियत है ऊँची कमानें (मेहराब) और बेहतरीन रंगों से सुशोभित कांच की खिड़कियां! कॅथेड्रल के अंदर क्रॉस की कुछ सुंदर टेराकोटा स्टेशन्स हैं, जो येशू के जीवन की घटनाएं दर्शाती हैं| इस भाग में प्रमुख रूप से येशू ख्रिस्त की यातनाएं और मृत्यूविषयक चित्रों के दर्शन होते हैं| ये चित्र जर्मनी की एक कला संस्था ने तैयार किये हैं| साथ ही यहाँ पवित्र शास्त्र और संतों के जीवन के दृश्य चित्रित किये गए हैं| फ्रान्स में १९४७ साल में तैयार किये गए शीशे के अप्रतिम रंगीन दरवाजे इस चर्च की एक और विशेषता है! मुख्य वेदी के सामने बाँयी ओर शिलॉन्ग के पहले मुख्य बिशप ह्युबर्ट डी’रोसारियो की कब्र है| कब्र के आगे और मेरी तथा बाल येशू के पुतले के सामने एक और वेदी है| यहाँ के पवित्र वातावरण में कुछ समय शांति से बैठने का मन जरूर करता है! यहाँ हर महीने में नौ दिन विशेष भक्ति की जाती है| ऊँची पहाड़ी पर स्थित और वहीं उकेरा गया है ग्रोटो चर्च, जो कॅथेड्रल के ठीक नीचे स्थित है, हम इस ग्रोटो चर्च को भी भेंट दे सकते हैं|
वॉर्ड्’स लेक (Ward’s Lake)
यह सुंदर मानवनिर्मित तालाब शहर के मध्यभाग में राजभवन के निकट स्थित है| आसपास रम्य उपवन होने के कारण इस तालाब का परिसर सदैव छोटे बड़े लोगों से भरपूर भरा होता है| यहाँ का एक आकर्षण है, स्वचलित विभिन्न आकारों की नौकायन नौकाएँ। पैरों की मदद लेकर आराम से नियंत्रित की जाने वाली इन नौकाओं में सुख चैन से विहार कीजिये, साथ ही हरीभरी वृक्षलताओं का दर्शन करते करते नौकायन करते रहिये| तालाब के ऊपर इस पार्क तथा बोटॅनिकल गार्डन को जोड़ने वाला पुल है, इसके नीचे से नौका आगे ले जाएँ| इस तालाब में बगुलों की श्वेत पंक्तियाँ तैरती रहती हैं| नौका के निकट आते ही वें बिखर जाती हैं| सूरज के ढ़लते ही नौकायन बंद होता है, उसके बाद ही उनका संपूर्ण तालाब में स्वच्छंद विहार आरम्भ होता है! कुल मिलाकर यहीं सच है कि, कोई भी जानवर या पक्षी इंसानों पर भरोसा नहीं करता! नौकायन का आनंद उपभोगने के बाद इस तालाब के चारों ओर फैले उपवन की पगडंडियों पर बढ़िया चहलकदमी या सिर्फ रिलैक्स करने का भी मज़ा उठाइये। प्राकृतिक परिवेश और अत्यधिक साफ-सफाई इस पार्क को अवश्य ही देखने लायक बनाती है!
थंगराज गार्डन
यह विशाल उपवन भी बहुत सुरम्य है| विविध प्रकार के पेड़पौधों और फूलों की क्यारियों से फूला, प्राकृतिक सौंदर्य से अभीभूत या स्थान सचमुच ही देखने लायक है| अंदर प्रवेश करते ही क्या देखना चाहिए, इसका मार्गदर्शक बोर्ड नजर आता है| गार्डन में टहलते हुए आप देखेंगे कि, विशिष्ट स्थान पर स्थित वृक्षलताओं की जानकारी देने वाले बोर्ड हर जगह दिखाई देते हैं। उपवन को घेरा डालने वाली पगडंडियां और उनका बाड़(compound), नीचे नजर डालेंगे तो शिलॉन्ग का विहंगम नजारा देखते ही बनता है| सीढ़ियां चढ़नेपर विविध रंगों की वृक्षराजी दृष्टिगत होती है| यहाँ फोटो खींचने लायक बहुतसी सिनेमास्कोप जगहें हैं, साथ ही अंदर शीशे के घर में एक सुंदर नर्सरी (ग्रीनहाऊस) है!
प्रिय मित्रों, हमने आराम से चहलकदमी करते हुए शिलाँग का अद्भुत सफर किया| अभी भी ‘मुझे कुछ कहना है’| वह हम अगले अर्थात अन्तिम भाग में जानेंगे| फ़िलहाल कलम को विराम देती हूँ!
खुबलेई! (khublei)(यानि खास खासी भाषा में धन्यवाद!)
टिप्पणी –
*लेख में दी जानकारी लेखिका के अनुभव और इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी पर आधारित है| यहाँ की तसवीरें व्यक्तिगत हैं!
*गाने और विडिओ की लिंक साथ में जोड़ रही हूँ| (लिंक अगर न खुले तो, गाना/ विडिओ के शब्द यू ट्यूब पर डालने पर वे देखे जा सकते हैं|)
Shillong city |Capital of Meghalaya | Informative Video
PYNNEH LA RITI || by kheinkor composed by apkyrmenskhem
☆ ❤️ “व्हॅलेंटाईन डे” ❤️☆ सौ. अर्चना सुरेश देशपांडे ☆
आता पाश्चात्य लोकांचे पाहून आपणही मदर डे फादर डे साजरे करू लागलो आहोत.
आता 14 फेब्रुवारीला व्हॅलेंटाईन डे साजरा केला जाईल पण प्रेम व्यक्त करण्यासाठी एखाद्या दिवसाची गरज काय? त्या दिवसासाठी वेगवेगळ्या कल्पना लढवल्या जातात, कार्यक्रम आखले जातात, प्रेम व्यक्त केले जाते, रोमान्स ताजा ठेवण्यासाठी आटापिटा केला जातो आणि सगळेजण करतात म्हणून आपणही करतो. सगळेजण लॉंग ड्राईव्ह जातात म्हणून आपणही जातो. कॅण्डल लाईट साजरा करतात त्याचेही अनुकरण करतो काहीतरी भेट द्यायची म्हणून खिशाला परवडत नाही तरी खरेदी केली जाते, उसनवारीने पैसे घेतले जातात आणि पैसे परत करावे लागणार म्हणून दुःखी होतात.
पाच रुपयाचे गुलाबाचे फुल 25 रुपये देऊन खरेदी करतो पण या सगळ्याची परत गरज आहे का? कशासाठी पाश्चात्य लोकांचे अनुकरण करायचे?
ज्याच्यावर किंवा जिच्यावर प्रेम आहे ते व्यक्त करण्यासाठी पैसे खर्च करूनच केले पाहिजे असं कोणी सांगितलंय?
“प्यार करने के लिए पैसा नही लगता… और प्यार मे कोई सही या गलत भी नही होता| … प्यार सिर्फ प्यार होता है।” म्हणून त्याला किंवा तिला जे आवडते ते केले तर आनंद द्विगुणित होईल. एखादा मित्र अनेक दिवस भेटला नसेल तर त्याची घालून देता येईल, आवडीचा पदार्थ पोटभर खाऊ घालता येईल ,एखादे चांगले पुस्तक भेट देता येईल., आपल्या मनातील भावना कागदावर लिहून देतायेतील की ज्यामुळे त्याला किंवा तिला आनंद होईल. त्यासाठी व्हॅलेंटाईन ग्रीटिंग देण्याची गरज नाही. त्या ऐवजी भांडण झालेल्या मित्र-मैत्रिणींचा समेट घडवून आणता येईल. मागील चूकीची माफी मागता येईल, दिलगिरी व्यक्त करता येईल हीच खरी प्रेमाची कसोटी ठरेल.हेच गिफ्ट आयुष्यभर पुरेल असे मला वाटते.
हो.. हो.. सगळे सरसोस्तीच म्हणायचे तिला. अगदी एकेरी. पोराटोरांपासून म्हाताऱ्यांपर्यंत. तिच्या नावावर जाऊ नका. वस्तीत तिचा जबरदस्त दरारा होता. बाई कर्तृत्ववान खरी.
लिहण्या वाचण्यापुरतं शिकलेली. तरीही नाव सार्थ करणारी. हजारोंचा हिशोब हाताच्या बोटांवर करायची. काॅम्प्युटरसे भी तेज दिमागवाली, या जगात फक्त दोनच माणसं. एक चाचा चौधरी आणि दुसरी सरसोस्ती. दिमाग आणि जुबान दोन्हीही तेज.
दारूडा नवरा आणि पदरात दोन पोरं. दारू पिवून रोज मारायचा तिला. एक दिवस सहनशक्ती संपली तिची. बांबूच्या फोकानं तुडवला तिनं त्याला. त्या संसाराला लाथ मारली अन् ईथं आली. नाल्याकाठी एकटा बंद जकातनाका. नाक्यापाशी झोपडी बांधून राहू लागली. ऊशाशी कोयता घेऊन झोपायची. काय बिशाद होती कुणाची…?
नाक्यापलीकडं नवीन बिल्डींगा ऊभ्या रहात होत्या. बाई हुशार खरी. भल्या पहाटे मार्केटला जायची. वेचून निवडून भाजी आणायची. सोसायटीवाल्यांना सोईचं झालं. हातगाडीवर लादून दिवसभर भाजी विकली.
मोठं पोर हातगाडीवर दमून तसंच झोपून जायचं. धाकटी पोर खाली झोळीत. प्रत्येक दिवस अंत बघायचा. रडवायचा. बाईनं हिंमत हारली नाही. चार पैसे गाठीशी आले. झोपडीपाशीच भाजीचं दुकान टाकलं. जरा वणवण कमी झाली.
बाई बारा बारा तास दुकानात राबायची. कुणासाठी ? पोरांसाठी. तिला खूप वाटायचं. पोरांनी चांगलं शिकावं. काटकसरीत रहायची. सगळी मौज मारून शाळेची फी भरायची.
पोरगी अभ्यासाला बरी. बारावी झाली अन् तिचं लग्न करून दिलं. पोराचा तेवढा वकूबच नव्हता. शाळेचा निकाल लागला की पोराचाही निक्काल लागायचा. गुरासारखी मारायची पोराला ती. अन् धाय मोकलून रडायची. शेवटी तिनं नाद सोडून दिला. तोही दुकानी राबू लागला.
ते काहीही असो तिचा पोरगा तिच्यासारखाच. तिच्याच हाताखाली तयार झालेला. धंद्याला पक्का आणि व्यवहाराला चोख. बाईनं त्याला किराण्याचं दुकान थाटून दिलं. तेही जोरात चालायला लागलं. कष्टाला कुणीच कमी नव्हतं. पोराचं लग्न लावून दिलं. सूनबाईही कामाची. घरचं सांभाळून भाजीच्या दुकानात, तिला हातभार लावायची.
खरं तर तिची झोपडी , दुकान सगळंच अनधिकृत. सगळी पडीक, ओसाड, नाल्याशेजारची जागा. तरी ही बाईला शांत झोप लागेना. बाईनं रीतसर ती जागाच विकत घेतली. पक्क घर बांधलं. मागे दहा खोल्यांची बैठी चाळ बांधली. तिथलं भाडं सुरू झालं. टेम्पो घेतला. होलसेलनं भाजी घ्यायला सुरवात केली. मार्केट यार्डला पक्का गाळा घेतला. बाईला कष्टाची नशा चढू लागली. अन् पैशाचीही.
हळूहळू आजूबाजूला वस्ती वाढत गेली. बाईनं चांगली माया जमा केली. नेमकी कशी सुरवात झाली कुणास ठाऊक ?
वस्तीतल्या दिवाकरचा पोरगा.
बारावी झाला. आय.टी.आय. ला टाकायचा होता. फी वाचून अडलेलं सगळं. बाई म्हणाली, मी देते पैसे. शीक, मोठा हो. नोकरीला लाग. अट एकच. पहिल्या सहा महिन्याचा पगार माझा. माती खाल्लीस तर तुझी कातडी सोलून पैसा वसूल करीन.
पोरगं हुशार, मेहनती. पास झाला. एम.आय. डी.सी.त नोकरीला लागला. बरोब्बर एक तारखेला बाई वसूलीला जायची. सहा महिने असंच चाललं. बाईनं एक पैसा सोडला नाही. काहीही असो, पोरगं लाईनीला लागलं.
हा सिलसिला पुढं चालू राहिला. वस्तीतली पोरं, त्यांचे नातेवाईक..
कित्येक पोरांच्या फीया बाईनं भरल्या. अगदी पोरींच्याही. बाईचा ऊसूल होता. शिकणाऱ्याचा वकूब किती, मेहनत कशी आहे ? शिकून नोकरी मिळेल की नाही ? सगळं बघून पैसा पुरवायची. बाईच्या भितीनं पोरं शिकली.
आय.टी.आय, डिप्लोमा, बी.एड, नर्सिंग. बाईचा एक पैसा कधी वाया गेला नाही. पोरंगं हुशार असलं तर, एम.पी.एस्सी.च्या कोचींगची फी सुद्धा बाई भरायची. अट एकच. पहिल्या सहा महिन्याचा पगार. बाईनं रग्गड पैसा मिळवला यातनं.
पैसा, सोनं नाणं, जमीन जुमला सगळं स्वतःच्या नावावर. पोराला सांगायची. हे सगळं माझंय. रहायचं तर रहा, नाहीतर वेगळा हो. बाईला फारसं प्रेमानं बोलता यायचंच नाही. कुणावर ही फारसा विश्वास बसायचा नाही. तोंडात सहज शिव्या यायच्या.
चालायचंच.
सहज कानावर आलं. नाल्यापलीकडं बाईनं मोठ्ठी जमीन घेतलीय म्हणे. पैशाकडे पैसा जातो हेच खरं.
बाई थकली आता. साठीच्या पुढचं वय. एक दिवस पोराला, सुनेला, लेकीला बोलावली. वकील बोलावला. पोराच्या नावावर घर, दुकान. चाळीचं उत्पन्न पोरीच्या नावे करून दिलं. “तुमच्या लायकीप्रमाणं दिलंय तुम्हाला. बाकी तुम्ही आणि तुमचं नशीब.” नवीन घेतलेली जमीन, सोनं नाणं, बँकेतली जमा. आकडा खूप मोठा. बाईनं सगळ्यावरचा हक्क सोडून दिला. चांगल्या माणसांना गळ घातली. ट्रस्ट केला.
दोन वर्षात मोठ्ठी बिल्डींग बांधून तयार. चार वर्ष झालीयेत. ‘सरस्वती विद्या मंदिर’ सुरू होऊन. परवडणारी फी, ऊत्तम शिक्षण. फुकट नको, फी हवीच. त्या शिवाय शिक्षणाची किंमत कळत नाही. बाई असंच म्हणायची. त्याशिवाय हा डोलारा चालणार कसा ?
बाई खरंच ग्रेटय. बाईला यात काहीच विशेष वाटत नाही. सरसोस्ती कळलीच नाही कुणाला. बाई आता थकलीये. तिकडच्या वाटेकडे डोळे लावून बसलीय.
कुणी तरी ट्रस्टीं पैकी म्हणालं. शाळेत बाईचं मोठ्ठं पोट्रेट लावू. चित्रकार बोलावला. बाई वसकन् ओरडली, “माजं न्हाई देवी सोरसोस्तीचं चित्तर लागलं पायजेल शाळंत. माज्या घरावर न्हाई किरपा केली तिनं, समद्या पोरांवर किरपा राहू दे तिची.”
बाईपुढे कुणाचं काय चालणार ?
भरल्या डोळ्यांनी, समाधानानं, बाई लांबच्या प्रवासाला निघून गेलीय. तिचं नाव, तिचा फोटो कुठेच काही नाही. हेच ते सरस्वतीचं चित्र. शाळेच्या पोर्च मधे लावलेलं. खरंय. सोरसोस्ती आम्हाला कधी कळलीच नाही.
(१० फेब्रुवारी… थोर विदुषी दुर्गाबाई भागवत यांचा जन्मदिन… त्यानिमित्ताने त्यांच्या सहवासातील प्रसन्न आठवणी…)
ज्वालामुखीचा उद्रेक आणि बर्फासारखं शीतल व्यक्तिमत्व,तुम्ही कधी एकत्र पाहिलंय का? होय,मी केवळ पाहिलंच नाही, तर त्यातला प्रेमळ, खळखळ वाहणारा, नितळ, शुभ्र झराही अनुभवलाय. हिमालयाची उंची गाठलेलं हे व्यक्तिमत्व कोण बरं असेल? वयानं माझी आजी शोभेल,असं आमचं नातं जुळलं आणि हळूहळू आम्ही मैत्रिणीच बनून गेलो, हे माझं अहोभाग्य! ही मैत्रीण, अर्वाचीन काळातली गार्गी,मैत्रेयी-म्हणजे थोर साहित्य विदुषी दुर्गाबाई भागवत !
केवळ साहित्य विदुषीच नव्हे,तर दुर्गाबाई म्हणजे अखंड ज्ञानयज्ञ! स्वातंत्र्यसेनानी पासून ते स्वयंपाक, विणकाम, भरतकामापर्यंत कुठल्याही क्षेत्रात दुर्गाबाई अग्रेसर! अंगकाठी किरकोळ, क्षीण जरी असली तरी वयाच्या नव्वदीतही बाईंची कुशाग्रबुद्धी, तोंडात बोटच घालायला लावे. शरीर पेलवत नसतानाही,”आत्ता मी तुम्हाला व्यायाम करून दाखवू का?” म्हणून झटकन् उठायचा प्रयत्न करणाऱ्या दुर्गाबाई पाहिल्या, की त्यांच्या मनाचा अवखळपणा, उत्साह,अगदी लहान मुलासारखा अखेरपर्यंत टिकून होता, हे जाणवतं.
दुर्गाबाईंची ओळख झाल्यावर, त्यांची बरीच पुस्तकं वाचली. सध्या दुर्गाबाईंचं ‘दुपानी’ हे पुस्तक ५व्यांदा वाचतेय.परत परत वाचूनही कंटाळा येत नाही. कारण वाचताना, त्या प्रत्यक्ष समोर बसून बोलताहेत असंच वाटतं. मला त्यांचं लेखन ‘प्रांजळ’ तरीही सडेतोड, थेट मुद्द्याला हात घालणारं (आणि अंत:करणालाही) म्हणूनच चिंतनीय व विचार करायला प्रवृत्त करणारं वाटतं. दुर्गाबाई म्हणजे पी.एच.डी करण्यासारखाच विषय ! डॉ.मीना वैशंपायन, प्रतिभा रानडे यांसारख्या नामवंत लेखिकांनाही त्यांच्यावर पुस्तक लिहावंसं वाटणं आणि लिहूनही बरंच काही सांगायचं उरलंय असं वाटणं, यातच सारं आलं.नव्वदीतही त्या अर्धमागधी भाषेतील ‘विशुद्धीमग्ग’चा वजनाला न पेलवणारा ग्रंथ मराठीत अनुवादित करत होत्या. त्यांचा नवनव्या गोष्टी करण्याचा, शिकण्याचा ध्यास पाहून आश्चर्य वाटतं.
बाईंचा ९० वा वाढदिवस त्यांच्या सुनबाई चारुताईंनी घरीच पण थाटात साजरा केला. त्यावेळी पत्रकार, टी.व्ही चॅनेल मंडळी जमली होती. अचानक बाईंनी मला, त्यांना आवडणारा संत एकनाथांचा अभंग गायला सांगितला. मी मनोभावे गायले. गाणे झाल्यावर बाईंनी कौतुकाने पाठ थोपटून माझा हात हाती घेतला, व थंडगार हात पाहून, उत्स्फूर्तपणे म्हणाल्या, “Cold from outside, Warm from inside…!”
समाजात श्रेष्ठ वा थोर व्यक्ती कोण, याची व्याख्या करायची तर, सहज सोपी व्याख्या म्हणजे, जी व्यक्ती आपल्या सद् गुणांमुळे, आजूबाजूच्या व समाजातल्या इतरांनाही घडवते; ती व्यक्ती थोर! माझ्या जडणघडणीत मला आदरणीय कुसुमाग्रज,इंदिरा संत,आणि दुर्गाबाई भागवत म्हणजे ‘ब्रह्मा,विष्णू,महेश’च वाटतात. तात्यासाहेबांनी (कुसुमाग्रज) प्रेमळ आज्ञा केल्याने, इंदिराबाईंच्या, शंकर रामाणींच्या व त्यांच्या स्वतःच्या कवितांच्या,’रंग बावरा श्रावण’ व ‘घर नाचले नाचले’ ह्या कॅसेट्स तयार झाल्या. प्रत्येक कवीचं व्यक्तिमत्व अभ्यासण्याच्या निमित्तानं, कविता व इतर साहित्याचंही भरपूर वाचन केलं गेलं. इंदिरा संतांनी तर मला अक्षरशः कवितेचं वेडच लावलं. या दिग्गजांच्या कविता गाता गाता एके दिवशी नवलच घडलं… शाकंभरी पौर्णिमेच्या पहाटे,दुर्गाबाईंना त्यांच्या वडिलांनी (स्मृतिदिनी) त्यांच्या स्वप्नात येऊन दृष्टांत दिला. दुर्गाबाईंनी पहाटे चंद्रबिंब ‘अस्त’ होताना पाहून त्यांना स्फुरण आलं, ते असं –
|| देहोपनिषद ||
आयुष्याची झाली रात, मनी पेटे अंतर्ज्योत ||१||
भय गेले मरणाचे,कोंब फुटले सुखाचे ||२||
अवयवांचे बळ गेले,काय कुणाचे अडले ||३||
फुटले जीवनाला डोळे, सुखवेड त्यात लोळे ||४||
मरणा तुझ्या स्वागतास, आत्मा माझा आहे सज्ज ||५||
पायघडी देहाची ही, घालूनी मी पाही वाट ||६||
सुखवेडी मी जाहले, ‘देहोपनिषद’ सिद्ध झाले ||७||
आणि नेमकं त्याच दिवशी मी, दुर्गाबाईंना इतर नव्या कविता म्हणून दाखवायला गेल्यावेळी, त्यांनी त्यांची, ही ‘एकमेव’ कविता माझ्या ओंजळीत दिली, व म्हणाल्या; “यापूर्वीच्या मी केलेल्या कविता मला नावडल्याने, मी त्या फाडून, जाळल्या. परंतु या देहोपनिषदाला तू सुंदर चाल लावून, उद्या दूरदर्शनवरील माझ्या मुलाखतीत गावंस, अशी माझी इच्छा आहे.” ‘देहोपनिषद’ हे अभंगाचं नाव वाचूनच, माझे धाबे दणाणले! मरणाला असे ठणकावून सांगणारी बाईच पाहिली नाही मी! कविताही चालीत बांधायला प्रथमदर्शनी कठीण वाटली. परंतु दुर्गाबाईंची आज्ञा – नाही म्हणायची माझी प्राज्ञाच नव्हती. मी त्याक्षणी तरी हो म्हटलं व घरी पोहोचेपर्यंत संगीत दिग्दर्शनाची माझ्या ‘मनी अंतर्ज्योत’ पेटली! शब्दाशब्दाला न्याय देणारी,सुसंगत वाटेल अशीच चाल परमेश्वराने सुचवली…
दुर्गाबाईंनी माझ्या या पहिल्या पाऊलाचं, दुसऱ्याच दिवशी दूरदर्शनवर “आता ‘नारददुहिता’ सुंदर गाणार आहे” म्हणून मोठ्या मनानं कौतुक केलं. बाळाचं पहिलं पाऊल पडलं आणि आत्मविश्वास आला की, त्याला जसे कुठे धावू आणि किती धावू असे पाय फुटतात, तशी मी – इंदिराबाई, कुसुमाग्रज, शंकर रामाणी, अटलजी, व्ही.पी.सिंग यांच्या, तसंच दुर्गाबाईंनी निवडलेले संत नामदेव, एकनाथांचे अभंग व इतर नवोदितांच्याही साठ एक कवितांना धडाध्धड चाली लावत गेले. अर्थात, प्रत्येक शब्दाला स्वरांनी न्याय दिला पाहिजे या निकषावर ! माझ्या लेखी, शब्दांमुळे सुरांना आणि सुरांमुळे शब्दांना अर्थ आला. केवढी भव्य नि सुंदर दृष्टी दिली दुर्गाबाईंनी मला ! या तिघांनीही मला कुबेराचं एक दालनच मोकळं करून दिलं, गर्भश्रीमंत केलं! हा खजिना, केवळ पुस्तकात न राहता, रसिकांसमोर सादर करण्याचं, कॅसेटद्वारे घराघरात पोहोचवण्याचं काम, नाशिकच्या भालचंद्र दातारांनी केल्यानं, दुर्गाबाईंनी त्यांचं खास अभिनंदनही केलं. तसंच माझी या परिवारातर्फे निघालेली पहिली ध्वनिफीत – ‘ही शुभ्र फुलांची ज्वाला’ चे प्रकाशनही दुर्गाबाईंच्या शुभहस्ते झालं. त्यावेळी बाई सुंदर बोलल्या आणि गंमत म्हणजे, खच्च भरलेल्या सभागृहासमोर राग केदारची बंदिश गायल्यादेखील!
एकदा त्या आणि डॉ.कमलाताई सोहोनी (त्यांच्या भगिनी आणि भारतातील पहिली महिला शास्त्रज्ञ) जपानी चित्रपट पाहात होत्या. त्यातील स्वेटर विणणाऱ्या नायिकेने त्यांचे लक्ष वेधले. ती वेगळ्या पद्धतीने टाके विणत होती. तसे विणल्यास एका व्यक्तीचा, एका दिवसात स्वेटर पटापट विणून तयार होतो, असे त्यांनी बारकाईने पाहून, स्वतः प्रत्यक्ष विणून एका दिवसात एक स्वेटर तयार केला. बाईंची इतकी विलक्षण वेधक नजर ! कमलाताईंच्या निधनानंतर बाईंनी त्यांच्या ‘सपाता’ देखील पुजल्या. असं राम-भरतासारखं अलौकिक प्रेम!
कधीकधी दुर्गाबाई आणि इंदिरा संतांचं नातं पाहिलं, की मला पंडिता रमाबाई आणि डॉ.आनंदी जोशी आठवतात.दोघी मनस्वी,विद्वान,प्रखर स्वाभिमानी असूनही, एकमेकींबद्दल प्रचंड आदर,प्रेम बाळगणाऱ्या. दोघींनाही एकमेकींना भेटण्याविषयीची प्रचंड ओढ…समानशीलेषु व्यसनेषु सख्यं… हेच खरं! मी मुंबईहून बेळगावला इंदिराबाईंकडे जाताना व परतताना, दोघींनी एकमेकींना दिलेल्या ‘अनुपम पत्रां’ची पोस्टमन होण्याचं भाग्य मला लाभलं!
बाईंच्या तीन गोष्टी प्रामुख्याने मी कधीच विसरणार नाही, एक म्हणजे ‘रिकामा अर्धघडी राहू नको रे…’ त्यामुळेच, इतक्या विविध विषयात त्या प्रभुत्व मिळवू शकल्या. त्यांच्या हातची वाटाण्याच्या सालीची उसळ सुद्धा इतकी चविष्ट, स्वादिष्ट असे की, एकदा मी त्यांना या विशेष खमंगपणाबद्दल, ‘प्रमाण’ विचारले! त्या म्हणाल्या, “अगं मीही सगळ्यांसारखंच करते, फक्त त्यात थोडा ‘जीव’ ओतते!” तिसरी गोष्ट म्हणजे एकदा त्या मला म्हणाल्या, “ पद्मजा, प्रत्येक दिवस हा आपला ‘वाढदिवस’ म्हणून साजरा करावा.” बाईंच्या या आणि अशा अनेक गोष्टी मी हृदयात कोरल्या आहेत. एरव्ही कमालीच्या प्रेमळ, शांत असलेल्या बाईंनी ‘कराड साहित्य संमेलना’च्या अध्यक्षा असताना, एकटीने मंचावरून ‘ज्वाला’ होऊन, आणीबाणी विरोधात शिताफीने कणखर आवाज उठवला. ही त्यांची ताकद होती!
बाईंना जसं साहित्याचं प्रेम, तसंच निसर्ग आणि तत्वचिंतनाचंही ! तत्वचिंतक थोरोच्या निसर्गप्रेमामुळेच बाईंचं त्याच्यावर प्रेम. याच थोरोवर इंदिरा गांधींनीं एक कविता केली होती. ती अशी…
“Whoever reads Thoreau,
Is struck
By the ethical force,
Of his ideas
And the clarity of his writing
Thoreau’s great influence
On Mahatma Gandhi
Is well known
His words ring long,
In the mind.
Those who live
In the storm of politics
Need the quiet pool within
For sustenance
Thoreau lived by such a pool.” – Indira Gandhi.
ही कविता वाचल्यावर दुर्गाबाईंना खूप आवडली व आणीबाणीत त्यांनी सोसलेले पराकोटीचे हाल विसरून, इंदिराजींचे सगळे गुन्हे माफ करून टाकले. केवढं पारदर्शक आणि आभाळाएवढं मन !
ती त्यादिवशी घरी आली.एकटी असली, नवऱ्याला वेळ असला की नेहमीच यायची.
मलाही तिचं घरात मनमोकळं बागडणं आवडायचं.
त्यादिवशी शेजारणीचे १ वर्षांचे मूल माझ्याकडे बागडत होते. तिने पटकन त्याला मोठ्या प्रेमाने मांडीवर घेतले. इतक्यात तिचा नवरा डाॅ.प्रथमेश तिला न्यायला घरी आला. तिच्या हातात मूल बघून मला म्हणाला,
“ किती छान दिसते ना पियू बाळाबरोबर? “ — मला त्याची व्यथा जाणवली.
ती दुसऱ्या दिवशी माॅर्निंग वाॅकला भेटली. ती जाॅगिंग करत होती. मी चालत होते.
“ आन्टी, मी चालते तुमच्या बरोबर. “ तिला मन मोकळे करायचे होते.
” बघितले ना, काल कसं बोलला तो ? मला नाही का वाटत मूल व्हावे? आता मी ३५ हून जास्ती आहे.
याला सर्व पाॅश हवे. घर घेतले. इंटिरिअरला दीड कोटी. नवीन क्लिनिकवर इतका खर्च केला. आम्ही दोघे dermatologist. एकेक लेझर मशीन १ कोटीच्या वरती. सर्व लोनचा EMI भरावाच लागतो. मी प्रेगन्सीत घरी बसू शकत नाही. तरी आम्ही मागे ट्राय केले, पण मिसकॅरेज झाले. आता भीतीच वाटते.”
माझ्या कांप्लेक्स मधली सोनिया. इतकी हुषार, एम्.बी.ए.झालेली. सर्व जगाची सफर केलेली. २०-२५ कंन्ट्रीज फिरून आलेली. बाबा गाडीतून रोज जुळ्या मुलींना फिरवते. मुली इतक्या गोड.
“आन्टी मी ४० वर्षांची होईपर्यंत मूल होऊ देण्याचा विचारच नाही केला. माझी करिअर इतकी छान चालली होती. पण म्हटलं, ४० नंतर विचार करता येणार नाही. माझी तीन ivf cycles फेल गेली. आणि चौथ्या वेळी जुळे detect झाले. मग नऊ महिने बेड रेस्ट. मुलींना सांभाळायला ३ मुली ठेवल्यात.
आता मुली वर्षांच्या झाल्यावर नवीन जाॅब शोधीन. मी घरी बसूच शकत नाही.”
माझ्या मुलीची नणंद. इतकी हुषार. इतकी सुंदर. स्वभावानी इतकी लाघवी. एम्.बी. बी. एस्. झाली.
लग्नासाठी मुलगा बघून दिला नाही. ती एम्.डी.झाली. मग फेलोशीप घेतली. आता ३६ वर्षांची झाली.
आता म्हणते, मुलगा बघा.
” तुला कुणी आवडला नाही का?”
” मामी ,मी माझ्या अभ्यासात इतकी फोकस्ड होते .मला माझ्या कॅलीबरचा तर मिळायला नको.”
— तिला एकही मुलगा पसंतच पडत नाही. आता लग्न झाले तरी मूल नैसर्गिक होणे अशक्य. शिवाय पस्तीशीनंतर मुलींची फर्टिलिटी कमी होते. मुलांचाही स्पर्म काउंट कमी होतो. त्यामुळे आय् व्ही. एफ्.सक्सेसफुल होईल याचीही खात्री नाही. बरं, त्यातूनही चाळिशीनंतर मूल झालेच तर त्याच्यात काॅन्जिनिअल डिफेक्टस, abnormilities राहण्याची शक्यता असते.
माझ्या मैत्रिणीची मुलगी नेहा, ३४ वर्षांची आहे. नुकतीच ती कंपनीची व्हाइस प्रेसिडेंट झाली.
आता नेक्स्ट स्टेप म्हणजे डिरेक्टर. “ आन्टी, मी आता प्रेग्ननसीचा विचार नाही करु शकत. मी मॅटरनिटी लिव्ह घेतली तर माझ्या खालच्याला तो चान्स मिळेल.व ते मी नाही सहन करू शकणार. ३० ते ३८ ही आमच्या करिअरची क्रूशियल वर्षे असतात. मी माझे एग्ज फ्रीज करून ठेवलेत. “
– एग्ज फ्रीज करण्याचा विचार २० ते ३० व्या वर्षी करावा लागतो.
निमाचा जाॅब असा आहे की तिला खूप ट्राव्हल करावे लागते. ती म्हणते, “ मी सरोगसी पसंत करीन.
म्हणजे मला नऊ महीने अडकून पडायला नको.”
नैसर्गिकरित्या गर्भारोपण हे आता मागे पडत चाललंय. सर्वजण टेक्नाॅलाॅजीचा उपयोग करतात.
१९८६ मधे जेव्हा डाॅ. इंदिरा हिंदुजाने भारतात पहिल्यांदा के ई एम् हाॅस्पिटलमधे टेस्ट ट्यूब बेबीची डिलीव्हरी केली, तेव्हा मूल न होऊ शकणा-यांना दिलासा होता.
नेहा म्हणते, “ काकी, आई सारखी पाठी लागली आहे .. मूल होऊ दे म्हणून. पण मी कामावरून घरी येते तेव्हा मी इतकी थकलेली असते. तो ही दमलेला असतो. इंटिमसी जमत नाही. वीकएन्डला आठवड्याची
साचलेली कामे असतात. आणि आता इतकं पॅशनही वाटत नाही.”
हल्ली मुलीही दिवसाला सहा सात सिगरेट ओढतात. त्यामुळे एग्ज निर्माण होत नाहीत. फॅलोपिअन ट्यूब ब्लॉक होते. मुला मुलींचे कामाचे तास वाढलेत. कामाचा ताण वाढलाय. जाॅबचेही प्रेशर असतेच. त्यामुळे मासिक पाळी अनियमित होते. त्यामुळेही infertility वाढते.
टेक्नाॅलाॅजी कितीही प्रगत झाली तरी स्ट्रेसमुळे ती कमीच पडणार…. आणि काळाबरोबर हा प्रॉब्लेम वाढतच जाणार…. पण विचार कोण करणार ? ….. आणि कधी ? ….
☆ राम राम माझ्या लाडक्या भाच्च्यांनो ! – ☆ प्रस्तुती सौ. शुभदा भा. कुलकर्णी (विभावरी)☆
धर्माची आवश्यकता समाजाला का असते, हे सांगणारी घटना तुम्हा भावंडांना, तुमच्या मित्रांना योग्य वयात अनुभवायला मिळाली.
माणूस उत्सवप्रिय प्राणी आहे, हे आपल्या पूर्वजांनी चांगलं जाणलं. आणि त्या उत्सवाला धांगडधिंग्याचं स्वरूप न येऊ देता कलागुणांच्या, सद्गुणांच्या उत्कर्षाचं स्वरूप यावं यासाठी पायंडे घालून दिले. नियम केले. श्रद्धेची चौकट घालून दिली.
तुम्ही आत्ता पाहिलंच असेल.. पुण्याहून १५००+ किमीवर आणि बेंगळुरूहून १९०० किमीवर असलेल्या श्रीराममंदिराच्या निमित्ताने तुमच्या सोसायटीत कितीतरी कार्यक्रम झाले. इतके लोक एकत्र आले. कुठेही खाण्यापिण्यावर भर नव्हता. पिण्याचा तर प्रश्नच नव्हता. खाण्यासाठी कुणीही कुठेही एखादा प्राणी, पक्षी, अगदी त्याचं अंडंसुद्धा मारलं नाही. नेहमीच्या कार्यक्रमांमधे येणाऱ्यांना खूश करणे हा एक मुख्य हेतू असतो. इथे तसं काही नव्हतं. जो तो त्याला करावंसं वाटतंय, म्हणून सहभागी होत होता. त्याचे काहीही लाड होणार नाहीत, हे पक्कं माहित असूनसुद्धा. विचार करून पहा आपल्या मनाशी.. आत्तापर्यंत झालेले कार्यक्रम आणि हा कार्यक्रम यात काय काय फरक होता ते.
कितीतरी जणांनी आपल्यातल्या कला जोपासल्या. सुंदर रांगोळ्या, दीपोत्सव, काव्य, गायन, वादन, नृत्य, जी जी म्हणून कला श्रीरामचरणी अर्पण करता येईल ती जे कलाकार आहेत त्यांनी केली. कल्पकता वाढीला लागली. आणि प्रत्येकाने ती “इदं न मम (हे माझं नाही), श्रीरामाय स्वाहा (श्रीरामाला अर्पण)” अशा भावनेनं सादर केली. किती लाईक्स, किती कौतुक हे विषय मागे पडले. करण्यातला आनंदच सुखावणारा ठरला. जाणवलं का तुम्हाला ते?
जे कलांचा आस्वाद घेत होते तेही अती चिकित्सकपणा, कुचकटपणा करत नव्हते.. सगळ्यांना सगळ्यांचं कौतुक.. ही किती गोड गोष्ट होती ना?
याचं कारण म्हणजे या सगळ्याच्या केंद्रस्थानी मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम होता. त्याच्या चरित्रातच एवढी प्रेरणा आहे की ७००० वर्षांनीही लोकांना चांगलं जगण्याची तो प्रेरणा देतोय. म्हणूनच तो जरी हाडामांसाचा एक माणूस असला तरी एक राजा म्हणून विष्णूचा अवतार मानला गेला, आणि देवत्व पावला. इतका चांगला माणूस म्हणजे देवाचाच अवतार, अशी लोकांची भावना आजही आहे. मुळातच हिंदू धर्म प्रत्येक सजीव गोष्टीत, ज्यांच्यात चैतन्य (energy) आहे त्या सर्वांमध्ये असलेलं ते चैतन्य म्हणजे दैवी (divine) शक्ती मानतो. जे चांगले असतात, त्यांच्यात ती शक्ती अधिक. म्हणून आपण आज आहोत त्यापेक्षा अधिक चांगले होण्यावर हिंदू धर्माचा भर आहे. आपल्यातला सर्वोत्तम कोण? तर हा मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम !
या उत्सवाआधी कित्येक जणांना ही काळजी होती की उत्साह उन्माद व्हायला नको.. हिंदूंनी अल्पसंख्यांकांना त्रास द्यायला नको. मी तरी अशा काही घटना ऐकल्या नाहीत. कारण उत्सव साजरा करणाऱ्या हिंदूंना त्रास द्यायला कुणी आलंही नाही. ही देखील एक खूप मोठी जमेची बाजू. यात जास्त सांगत बसत नाही कारण आता पुढच्या २-५ वर्षात तुम्ही सुजाण नागरिक बनाल, मतदान करायला पात्र ठराल. हा अभ्यास तुमचा तुम्ही केलेला बरा. तुम्हाला पडणारे प्रश्न बऱ्याच लोकांना विचारा. आणि तुमची मतं तुम्ही ठरवा.
पण सर्वधर्मसमभाव हा हिंदूंचा सहजगुण आहे. या जगाला चालवणारी काही एक शक्ती आहे, आणि ती शक्ती वेगवेगळ्या रूपात प्रकट होऊ शकते. ज्याची त्याची त्या शक्तीच्या रूपाची कल्पना वेगळी असू शकते. अट एकच, त्या श्रद्धेनं माणूस सज्जन बनला पाहिजे. सुदृढ बनला पाहिजे. तसं असेल तर त्या माणसाच्या श्रद्धेचा आपण सन्मानच केला पाहिजे, हे हिंदूंच्या नसानसात आहे. तुमच्या आधीच्या पिढ्यांमध्येही हे आहे, आणि तुमच्यातही आहे. उद्या जेव्हा तुम्ही मोठे व्हाल तेव्हा तुमच्या पुढच्या पिढ्यांनाही हेच सांगाल. हीच आपली संस्कृती.
हे नेहमी लक्षात ठेवा.. आपण सज्जन तर असलेच पाहिजे. पण समर्थही असलं पाहिजे. त्यासाठीचा आदर्श म्हणजे प्रभू श्रीराम ! त्याचं चरित्र नक्की अभ्यासा !
पटलं तर तुमच्या मुलांना नक्की वाचायला द्या नाहीतर सोडून द्या
प्रस्तुती : शुभदा भा.कुलकर्णी (विभावरी)
कोथरूड-पुणे
मो.९५९५५५७९०८
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈