हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ बस देखते देखते …. ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

 

☆ बस देखते देखते ….  

 

न तुमने मुझको धोखा दिया

न मैंने तुमको धोखा दिया

बस देखते देखते हम फ़ना हो गए।

 

न तुमने मुझसे कोई वादा किया

न मैंने तुमसे कोई वादा किया

बस रफ्ता रफ्ता हम जुदा हो गए।

 

न तुमने मुझको खोजा कभी

न मैंने तुमको खोजा कभी

बस देखते ही देखते हम खो गए।

 

न तुमने मुझको बुलाया कभी

न मैंने तुमको बुलाया कभी

बस देखते देखते अलविदा हो गए।

 

© डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/MEMORIES – #3 – छोले चावल ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे उनकी लेखमाला  के अंश “स्मृतियाँ/Memories”।  आज के  साप्ताहिक स्तम्भ  में प्रस्तुत है एक और संस्मरण “छोले चावल”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/MEMORIES – #3 ☆

☆ छोले चावल ☆

 

सितम्बर 2005 से लेकर फरवरी 2006 तक मैने दिल्ली से C-DAC का कोर्स किया था जिसमे उच्च (advanced) कप्म्यूटर की तकनीक पढ़ाई जाती है । हमारा केंद्र दिल्ली के लाजपत नगर 4 मे था, अमर कॉलोनी में । हमारे अध्यन केंद्र से मेरे किराये का कमरा बस 150 – 200 मीटर दूर था । हमारे केंद्र मे सुबह 8 से रात्रि 6 बजे तक क्लास और लैब होती थी उन दिनों हम रात में लगभग 2-3 बजे तक जाग कर पढ़ाई करते थे । हमारा अध्यन केंद्र और मेरा किराये का कमरा बीच बाज़ार में थे ।

मेरे साथ मेरे तीन दोस्त और रहते थे क्योकि हमारा कमरा बीच बाज़ार में था तो वहाँ खाने और पीने की चीजों की दुकानों और होटलो की कोई कमी ना थी । जिस इमारत में तीसरी मंजिल पर हमारा कमरा था उस ही मंजिल में भूतल (ground floor) पर एक चाय वाले की दुकान थी चाय वाले का नाम राजेंद्र था उसके साथ एक और लड़का भी काम करता था जिसका नाम राजू था । उस पूरे क्षेत्र में केवल वो ही एक चाय की दुकान थी तो राजेंद्र चाय वाले के यहाँ सुबह 7 से लेकर रात 11 बजे तक काफी भीड़ रहती थी । राजेंद्र की चाय औसत ही थी इस लिए कभी कभी हम थोड़ा दूर जा कर भी किसी और टपरी पर चाय पी लिया करते थे और अगर कभी देर रात को चाय पीनी हो तब भी हम टहलते टहलते दूर कहीं चाय पीने चले जाते थे ।

धीरे धीरे समय के साथ राजेंद्र की दुकान पर भीड़ बढ़ने लगी । उसकी दुकान पर हमेशा लोगो का ताँता लगा रहता था । राजेंद्र की दुकान पर सब ही तरह के लोग आते थे कुछ वो भी जो लोगो को डराने धमकाने का काम करते थे कुछ हमारे जैसे पढ़ने वाले छात्र एवं कुछ पुलिस वाले भी । धीरे धीरे राजेंद्र की चाय की गुणवत्ता घटने लगी । मैं और मेरे मित्र चाय के लिए कोई और विकल्प ढूंढ़ने लगे । हम राजेंद्र की चाय से ऊब गए थे । अचानक एक दिन जब मैं अपने केंद्र पर जा रहा था मैने देखा की राजेंद्र की चाय की दुकान की बायीं और की सड़क पर एक 23-24 साल का लड़का कुछ सामान लगा रहा था वो लड़का देखने में बहुत सुन्दर और हटा कट्ठा था एवं बहुत अच्छे घर का लग रहा था । शाम को जब मैं अपने अध्ययन केंद्र से वापस आ रहा था तो मैने देखा की राजेंद्र की दुकान के बायीं ओर  सुबह जहाँ एक लड़का कुछ सामान लगा रहा था वहाँ पर एक नयी चाय की दुकान खुल चुकी थी उस चाय की दुकान को देख कर मेरी ख़ुशी का ठिकाना ना रहा । उस चाय की दुकान पर कोई भी ग्राहक ना था जैसे ही मैने चाय वाले की तरफ देखा उस चाय वाले के मुस्कुराते हुए चेहरे ने मेरी तरफ देख कर बोला ‘भईया चाय पियोगे ?’

मैं थका हुआ था मैने कुछ देर सोचा उसकी तरफ देखा और बोला ‘हाँ भईया एक स्पेशल चाय बना दो केवल दूध की’ पांच मिनट के अंदर उसने चाय का गिलास मेरी तरफ बढ़ाया चाय काफी अच्छी बनी थी मैने चाय पीते पीते कहा ‘भईया चाय अच्छी बनी  है’ उसने कहा ‘धन्यवाद सर’ फिर मैने पूछा की उसका नाम क्या है और वो कहाँ का रहनेवाला है तो उसने अपना नाम चींकल बताया और वो पंजाब के किसी छोटे से शहर का था । धीरे धीरे मैने और मेरे तीन साथियो ने राजेंद्र की जगह चींकल की टपरी से चाय पीना शुरू कर दिया । चींकल केवल 1 कप चाय या 1 ऑमलेट भी तीसरी मंजिल तक ऊपर आ कर दे देता था वह बहुत ही जिन्दा दिल लड़का था बड़ा हंसमुख सब को खुश रखने वाला । धीरे धीरे चींकल, चाय वाले से ज्यादा हमारा दोस्त बन गया था । 1 महीने के अंदर ही अंदर राजेंद्र चाय वाले के ग्राहक कम होने लगे और चींकल के बढ़ने लगे ।

क्योंकि हम लोगो को काफी पढ़ाई करनी होती थी तो हम चींकल की दुकान पर कम ही जाते थे और जो कुछ चाहिए होता था वो तीसरी मंजिल के छज्जे से आवाज़ लगा कर बोल देते थे और चींकल ले आता था । कई बार मैने उससे पूछने की कोशिश की कि वो तो अच्छे घर का लगता है फिर ये चाय बेचने का काम क्यों करता है ? पर वो हर बार टाल जाता था । एक दिन जब करीब सुबह के 11 बजे मैं अपने केंद्र जा रहा था तो चींकल ने आवाज़ लगायी और बोला ‘भईया मेरी बीवी ने आज छोले चावल बनाये है आ जाओ थोड़े थोड़े खा लेते है’ मैने काफी मना किया पर वो नहीं माना और टिफिन के ढक्कन में मेरे लिए भी थोड़े से छोले चावल कर दिए मैने खा लिए । छोले चावल बहुत ही स्वादिष्ट बने थे ।

उस दिन मैं बहुत थक गया था हमारे कंप्यूटर केंद्र में मैं नयी तकनीक में प्रोग्रामिंग सीख रहा था जो मेरी समझ में नहीं आ रहा थी तो शाम के करीब 6 बजे जब मैं निराश और थक कर कमरे पर वापस जा रहा था तो मैंने देखा की चींकल की दुकान के पास कुछ लोग खड़े है तीन चार लोग उसे पीटते जा रहे थे और दो लड़के उसकी चाय की टपरी का सामान तोड़ रहे थे । पास ही में राजेंद्र चाय वाला खड़ा हुआ हंस रहा था मैं समझ गया की ये सब राजेंद्र चाय वाला ही करवा रहा था । मैं कुछ बोलने वाला ही था कि  राजेंद्र चाय वाले ने मेरी तरफ घूर कर देखा और मैं डर गया । चींकल ने मुझे आवाज़ भी लगायी ‘आशीष भईया’ पर मैं अनसुना कर के आगे निकल गया और अपने कमरे में जाने के लिए इमारत में घुस गया । पता नहीं क्यों मैं डरपोक बन गया था अगली सुबह वहाँ जहाँ पर चींकल की चाय की दुकान हुआ करती थी उसके कुछ अवशेष पड़े थे मेरी आँखों से आँसू बह रहे थे । चींकल द्वारा खिलाये हुए घर के बने छोले चावल शायद मैं आज भी नहीं पचा पाया हूँ ।

रस : करुण

© आशीष कुमार  

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Laughter Goes Skin Deep ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer,  Author, Blogger, Educator and Speaker.)

☆ Laughter Goes Skin Deep

About three years ago, we had gone to make a small presentation on Laughter Yoga at Viscus Infotech – an IT company based inIndore. The CEO of the company felt that Laughter Yoga would be helpful in enhancing the creativity of the software professionals by relaxing their minds and activating the right brain. The session was well appreciated and later on the young CEO himself conducted laughter sessions for his staff. Such actions make the workplace vibrant and full of positive vibes.

After the session, a young lady Ranu came up to my wife Radhika and said that she had liked the session and wanted her husband to also experience it. We invited them to our Suniket Laughter Club which meets on Sunday mornings. Though the park was far and it was difficult to get up early during winter, they braved the cold and came all the way to laugh with us. We knew it was not practical for them to continue this for long and sure enough after some weeks, they stopped coming. A couple of years passed by but they could not forget the chants of “Very Good, Very Good, Yay” and laughter reverberated in their minds in moments of solitude.

What happens is that over a period of time, laughter which starts as a simple exercise routine, penetrates skin deep and changes our outlook towards life. We become more loving, caring and sharing.

It seems Ranu had not taken off Laughter Yoga from her mind at any point of time. It was only due to her household and professional engagements that she had to keep away but the laughter stream was always trickling inside her.

We were more than pleasantly surprised when we received this video clip from her on World Laughter Day (WLD):
https://www.youtube.com/watch?v=y0ZAArH9Y_k

It is undoubtedly the sweetest greeting we got in many years on WLD. It touched our hearts to the core! We could sense the deep feelings that must have percolated in her heart and soul before she started playing with the child. To me, this singing, dancing, playing and laughing with your child and imparting a happy attitude towards life is the ultimateParadise!

 

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
[email protected]

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (27) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

( अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा )

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।

अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ।।27।।

प्राकृत गुण सूत्रों के द्वारा कर्म सभी खुद होते है

किंतु मूढ़ जन अंहकार से कहते वे यह करते हैं।।27।।

 

 

भावार्थ :  वास्तव में सम्पूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं, तो भी जिसका अन्तःकरण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसा मानता है ।।27।।

 

All actions are wrought in all cases by the qualities of Nature only. He whose mind is deluded by egoism thinks: “I am the doer” ।।27।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 

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हिन्दी साहित्य- पुस्तक समीक्षा – ☆ जीभ अनशन पर है ☆ श्रीमति समीक्षा तैलंग – (समीक्षक – श्री दीपक गिरकर)

व्यंग्य संग्रह  – जीभ अनशन पर है – श्रीमति समीक्षा तैलंग 

 

  विविध रंगों की व्यंग्य रचनाओं का रोचक संग्रह है ” जीभ अनशन पर है “ 

 

हिंदी व्यंग्य लेखन में महिला लेखिकाओं की संख्या बहुत कम रही हैं। लेकिन अब इस विधा में कुछ महिलाएं अपनी सशक्त व्यंग्य रचनाओं के साथ आ रही हैं, इनमें समीक्षा तैलंग व्यंग्य के आकाश में एक चमकता सितारा बनकर उभर रही है। नयी पीढ़ी की होनहार लेखिका समीक्षा तैलंग का प्रथम व्यंग्य संग्रह  “ जीभ अनशन पर है ” इन दिनों काफी चर्चा में है। समीक्षा पेशे से पूर्व पत्रकार है और जब से वे आबू धाबी में रहने लगी है तब से वे लगातार व्यंग्य, कविता, फीचर, साक्षात्कार, निबंध, लेख, कहानी, संस्मरण इत्यादि विधाओं में साहित्य जगत में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रही है। देश के विभिन्न समाचार पत्र-पत्रिकाओं में समीक्षा की रचनाएं निरंतर प्रकाशित हो रही हैं. लेखिका पत्रकार थी, इसलिए वे अपनी पारखी नजर से अपने आसपास के परिवेश की विसंगतियों, विद्रूपताओं को उजागर करके अनैतिक मानदंडों पर तीखे प्रहार करती है। इस व्यंग्य संग्रह की भूमिका बहुत ही सारगर्भित रूप से वरिष्ठ व्यंयकार श्री प्रेम जनमेजय, श्री सुभाष चंदर और श्री आलोक पुराणिक ने लिखी है। साथ ही व्यंयकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव और श्री समीर लाल “ समीर ” ने इस पुस्तक पर अपनी सारगर्भित टिप्पणी लिखी हैं। श्री प्रेम जनमेजय लिखते है ” समीक्षा तैलंग यदि इसी तेवर के साथ लिखती रहीं तो हिंदी व्यंग्य समृद्ध होगा। ” श्री सुभाष चंदर ने अपनी भूमिका में लिखा है ” समीक्षा व्यंग्य के आकाश में चमकता सितारा बनकर उभरेगी। ” श्री आलोक पुराणिक ने समीक्षा तैलंग को “ व्यंग्य की जमीन से उम्मीदों का आसमान कहा है। ”

शीर्षक रचना “ जीभ अनशन पर है ” के माध्यम से लेखिका ने लोकतंत्र में अनशन करने वालों की कारगुजारियों पर प्रश्न-चिन्ह लगाया गया है। इस व्यंग्य रचना में व्यंग्यकार लिखती है “ एक बार ख़याल आया, एकाध नेता का दरवाजा खटखटा कर पूंछ ही लूँ, कि भैया जब आप लोग अनशन करते हो, वो केवल दिन-दिन का… या रात भी उसमें शामिल होती है? या फिर वही सुबह चार बजे खाने के बाद दिन भर का उपवास…. क्योंकि एक वही समय होता है जब मीडिया की निगाहें ज़रा दूर रहती हैं। ” “ कहत कबीर सुनो भई साधो ” “ उपवास का हलफनामा ” और  कुटिया के अंदर बंगला ” रचनाओं में लेखिका की चिंतन की प्रौढ़ता का दर्शन होता है। “उपवास का हलफनामा” रचना में समीक्षा लिखती है ” कलम ने पूरा उपवास पूरी तन्मयता से किया। न खुद श्रेय लिया, न किसी को हकदार बनाया उस श्रेय का। मेरी कलम उपवास पर ज़रूर थी पर किसी आत्मग्लानि में नहीं बल्कि मंथन कर रही थी। ” “ लो हमने भी डॉक्टरी कर ली ” व्यंग्य रचना चिकित्सकों के पेशे पर “ पोल खोल होली ” मीडिया की करतूतों पर और “ मुझे भी एक घर चाहिए ” बाजार व विज्ञापन पर गहरा कटाक्ष हैं. व्यंग्य “ 60 साल का नौजवान ” में लेखिका का मानना है कि किसान कभी भी ऐशोआराम की जिंदगी जीने का विचार नहीं करता है। किसान हमेशा ही नौजवान बना रहता है। मेहनत-मजदूरी करने वालों को कभी भी उम्र का अहसास नहीं होता है। “ योगक्षेमं वहाम्यहं ” रचना में व्यंग्यकार ने बीमा व्यवसाय की पोल खोल कर रख दी हैं. व्यंग्य “ हम तो लूट गए ” में लेखिका लिखती है ” रसूखदार और राजदार एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं। रसूख के चलते राजदार काम तो करेंगे, पर ” और आगे लिखती है “ एक हम हैं… गले लगाने के बाद भी नहीं समझ पाते कि अब ये चपत लगाकर विदेश भागने वाला है ” तो व्यंग्यकार रसूखदारों राजदारों और चौकीदारों के कार्यकलापों पर तीखा प्रहार करती है। लेखिका साहित्यकारों की पीड़ा को भी जानती है। इस पीड़ा को उन्होंने “ ख़याली पुलाव ” रचना में भली भाँति दर्शाया है।

“ ठिठुरता रूपया, अकड़ता तेल ”, “ अफवाहें! तुम्हारे सिर पर पैर हैं ”,  “ फिटनेस फिक्र हो गया…रब्बा रब्बा ”, “ लट्ठ…मार…हो…ली ”, “ हम जमूरा हूँ ”, “ मुझे भी एक घर चाहिए ”, “ तूफानी  बयानबाजी”, “ सत्य से असत्य की ओर ”,         ” सूरजमुखी सेल्फी ”,  “ ध्यान रहे! हम भारतीय हैं ” जैसे व्यंग्य अपनी विविधता का अहसास कराते हैं। “ वे आत्महंता हैं ”, “ मकड़जाल की चिंता किसे है ”,     “ राम अवतार और कास्टिंग काउच ”, “ ख़याली पुलाव ”, “ कहाँ मियाँ तानसेन, कहाँ क्लाउडसीडिंग ” जैसे रोचक व्यंग्य पढ़ने की जिज्ञासा को बढ़ाते हैं. इन व्यंग्य रचनाओं से लेखिका की गहरी दार्शनिकता दृष्टिगोचर होती है। कतिपय बानगी प्रस्तुत है। “वे सच बोलते थे। उन्हें आत्महंता की उपाधि से नवाजा गया। सच बोलने वाला बाजार में नहीं चल सकता। वह बैठ भी नहीं सकता। लेकिन वह बाजार चला भी नहीं सकता। उनके सच बोलने से ही बाजार गिरता है। ” (वे आत्महंता हैं), “ मकड़ियों का आना जाना अब भी लगा है। वह वहाँ-वहाँ जाती जहाँ-जहाँ उसे परेशान करने वाला कोई ना होता। नए घरों, बंगलों के अंदर उसका दम घुटता। वो वहाँ न रह पाती। उसे पनपने के लिए एकांतवास चाहिए। सारे आपराधिक जाल भी अक्सर उसी एकांत में ही बुने जाते हैं। ” (मकड़जाल की चिंता किसे है),  “ मतलब, काम होने के बाद भी फंसाया जा सकता है…। यही हुआ न इसका अर्थ…। हाँ, हाँ…यही हुआ। यही हो भी रहा है। मतलब ब्लैकमेलिंग। भावनाओं का कोई काम नहीं। बाजारवादी सोच से लबरेज होते हैं ये लोग। ” (राम अवतार और कास्टिंग काउच), “पाठक अब दिये की रोशनी में भी ढूँढने से नहीं मिलने वाले। फिर…, फिर कौन पढ़ेगा इतनी मेहनत से लिखी गई किताब को।  अब इसकी भी कोई मार्केटिंग होगी तो उसके भी गुर सीखने होंगे। यही बचा है अब लेखक के लिए। इतने बुरे दिन देखने को मिलेंगे किसी ने सोचा नहीं होगा। सुझाव भी ऐसे-ऐसे आते हैं की…!” (ख़याली पुलाव), “ आगे जाकर बारिश एलियन जैसी हो जाएगी पृथ्वीवासियों के लिए। भूले-भटके आ गई किसी दिन तब उसे पहचानने वाला तक कोई न रहेगा। ” (कहाँ मियाँ तानसेन, कहाँ क्लाउडसीडिंग)    वैसे व्यंग्य की राह बहुत कठिन और साहस का काम है लेकिन समीक्षा की कलम का पैनापन व्यवस्था में फैली विसंगतियों पर तीव्र प्रहार करता हैं. व्यंग्य लेखन में तो समीक्षा की सक्रियता और प्रभाव व्यापक है और साथ में वे व्यंग्य रचनाओं, व्यंग्य की पत्रिकाओं पर भी अपनी प्रतिक्रया से अवगत कराती रहती है।

व्यंग्यकार ने इस संग्रह में व्यवस्था में मौजूद हर वृत्ति पर कटाक्ष किए हैं। बाजारवाद, पर्यावरण, अनशन की वास्तविकता, चर्चाओं का बाजार, राष्ट्रभाषा हिंदी, रूपये का गिरना, भ्रष्टाचार, घोटाले, अफवाहों का बाजार, आभासी दुनिया, राजनीति, विज्ञापन और पुस्तक मेले की सच्चाई, नोटबंदी, मिलावट का कड़वा सच, बजट, बयानबाजी और जुमलेबाजी, सांस्कृतिक व सामाजिक मूल्यों इन सब विषयों पर व्यंग्यकार ने अपनी कलम चलाई हैं। व्यंग्यकार द्वारा कहीं-कहीं अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग कर व्यंग्य को आम आदमी के लिए अधिक ग्राह्य बनाया है।

लेखिका विदेश में रहते हुए भी मन से अपने भारत देश से जुडी हुई है। इस संग्रह की व्यंग्य रचनाओं में व्यंग्यकार समीक्षा तैलंग ने लेखन की अपनी कुछ अलग शैली, नए शिल्प के साथ गहरी बात सामर्थ्य के साथ व्यक्त की है। वे अपनी कलम से व्यंग्य के बंधे-बँधाये फ्रेम को तोड़ती है। लेखिका सरल शब्द, छोटे -छोटे वाक्य के साथ पुराने सन्दर्भों का बहुत उम्दा प्रयोग करके विसंगतियों पर तीव्र प्रहार करती है। आलोच्य कृति “ जीभ अनशन पर है” में कुल 45 व्यंग्य रचनाएं हैं। इस संग्रह की रचनाओं के विषय परंपरागत विषयों से हटकर अलग नए विषय है। संग्रह की रचनाएं तिलमिला देती हैं और पाठकों को सोचने पर विवश करती हैं। कुछ रचनाओं में लेखिका ने विसंगतियों के चित्रण में अपनी टिप्पणियों से अनावश्यक विस्तार दिया है, लेखिका को भविष्य में इस प्रकार के विस्तार से बचना होगा। भविष्य में समीक्षा तैलंग से ऐसी और भी पुस्तकों की प्रतीक्षा पाठकों को रहेगी।

 

पुस्तक  : जीभ अनशन पर है

लेखिका : समीक्षा तैलंग

प्रकाशक : भावना प्रकाशन, 109-ए, पटपड़गंज, दिल्ली-110091

मूल्य   : 350 रूपए

पेज    : 135

 

दीपक गिरकर, समीक्षक

28-सी, वैभव नगर, कनाडिया रोड, इंदौर- 452016

मोबाइल : 9425067036

मेल आईडी : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #2 ☆ औरत की ज़िन्दगी ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।   साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता  “औरत की ज़िन्दगी ”। 

 

☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – #2 ☆

 

☆ औरत की ज़िन्दगी ☆

 

औरत की ज़िन्दगी

कोल्हू के बैल की मानिंद

खूंटे से बंधी गुज़रती

उसके चारों ओर

चक्कर लगाती

वह युवा से

वृद्ध हो जाती

 

बच्चों की

किलकारियों से

घर-आंगन गूंजता

परन्तु वह सबके बीच

अजनबी-सम रहती

और उसके रुख्सत

हो जाने के पश्चात्

एकसूत्रता की डोर टूट जाती

 

घर मरघट-सम भासता

जहां उल्लू

और चमगादड़ मंडराते

वहां बिल्ली,कुत्तों

व अबाबीलों के

रोने की आवाज़ें

मन को उद्वेलित कर

सवालों और संशयों के

घेरे में खड़ा कर जातीं

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प दुसरा #2 – ?? पर्यावरण नाते. ….!  ?? ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज संस्कृतिसाहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं  ।  अब आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  आज इस लेखमाला की शृंखला में पढ़िये “पुष्प दुसरा – पर्यावरण नाते  ….!” ।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – पुष्प दुसरा #-2 ☆

 

?? पर्यावरण नाते. ….!  ??

 

व्यक्ती  आणि निसर्गाचे, नाते कळी नी फुलांचे .

कधी होई पारिजात,  कधी पुष्प बकुळीचे . . . !

 

एका एका बिजापोटी, कुणी सर्वस्व वाहते.

कळी मरता मरता,  तिथे फूल जन्मा येते.

 

अन्न, वस्त्र, निवार्‍याचा , निसर्गाने दिला हात.

दान द्यावे, दान घ्यावे, रूजविले अंतरात. . . . !

 

जीवनाच्या वावरात,  सुखदुःख रेलचेल.

होई मौसमी वार्‍याने, उरामध्ये घालमेल. . . . !

 

रंग ढंग जीवनाचे, दुःख, दैन्य सहायचे.

मातीतून जन्मायाचे,मातीमध्ये मरायचे. . . . !

 

व्यक्ती आणि निसर्गाची, वाट चुकलेली वारी

जीवनाच्या फांदीसवे, घेती आकाश भरारी. . . . !

 

कधी वास्तवाचे जग, कधी नभ कल्पनेचे.

होई काळीज कागद, सूत जुळता दोघांचे. . . !

 

पाणी अडवा, जिरवा, झाडे लावा नी जगवा

समतोल सांभाळाया,नाते नाजूक फुलवा. . . . !

 

आसवांची झाली शाई, होता नात्यांची पेरण .

वसुंधरेच्या भाळाला,भावफुलांचे तोरण. . . !

 

कळी काय, फूल काय,एकमेकां जपायचे

पर्यावरणीय मेळ,सांधताना फुलायचे. . . !

 

✒  © विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकारनगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

 

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योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ A Laughter Club Dream ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer,  Author, Blogger, Educator and Speaker.)

☆ A Laughter Club Dream

Man Pasand Garden is a beautiful park in the posh New Palasia locality of Indore. I am here after almost two years.
Earlier, whenever I took a long morning walk along with my wife Radhika, we always stopped here to relax for a while. Almost on all such occasions, we dreamt of starting a Laughter Club here.

As I sit here, I find people slowly moving towards a green enclosure and clapping joyously. They move their hands over their heads and burst into an uproarious laughter. I realize that this is a new Laughter Club. Within minutes, I am there taking deep breaths and laughing intermittently with them.

I am told that this club – Laughter Club of Man Pasand Graden – started by A L Jain, affectionately known as Raja Babu, is just six months old and has been adjudged as the number one club among the 65 clubs inIndore. The members are growing steadily as more and more younger people are joining the club.

Ram Kishan, tech savvy at 72, tells me that the attendance had started declining a couple of months after the club was inaugurated and he thought about using social media to boost it. His devotion to the club is commendable. He shoots videos and pictures on a daily basis and uploads them on YouTube, Facebook and also shares them with the club’s WhatsApp group each and every day. It is ensured that every member present on the day is reflected in the pictures and videos. The members enjoy watching themselves laugh on their cell phones throughout the day.

Their average daily attendance is well over 70 and it is perhaps the only club in the world which meets every day in two batches, one at 7 am and the other at 8.30 am.

When I introduced myself and they came to know that I am associated with the Laughter Yoga University in Bangalore, they invited me along with Radhika to conduct a laughter session for them. Once home, I told Radhika that our dream to start a club at Man Pasand Garden has been fulfilled by some divine intervention and we have to conduct a Laughter Yoga session there the next morning. She was pleasantly surprised.

The laughter session was simply out of the world!! And the club members were so full of energy and enthusiasm. Everyone there loved it, especially the Laughter Meditation towards the end.

You may watch glimpses of this session through this link:
https://www.youtube.com/watch?v=VpDtIV_XR7U

Highly inspired, the members decided to felicitate us in a public function. Though we told them not to indulge in such formalities, they insisted. When we reached the park next morning, we found more than a hundred people waiting for us including the founding members of the club, representatives of other Laughter Clubs in the city and the elected political representative of the area.

The felicitation was really warm, affectionate and full of laughter. We were offered flowers, sweets and a shawl as a mark of honour for which we thanked them profusely.

On behalf of the Laughter Yoga University, we presented a cap and a hat with the University logo to the leaders of the club, Raja Babu and Ram Kishan, as a memento of love and recognition for their dedication and selfless service to the community.
We shall ever cherish the happy memories of Man Pasand Garden and the wonderful club members. Many of them have expressed a desire to undergo Laughter Yoga leader training with us which we will be arranging in the near future.

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
[email protected]

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (26) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

( अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा )

 

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङि्गनाम्‌।

जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्‌ ।।26।।

 

अज्ञानी की लिप्ति बुद्धि में ज्ञानी कभी न भेद करें

स्वतः समत्तव बुद्धि से अपने निश्चित सारे कर्म करें।।26।।

 

भावार्थ :  परमात्मा के स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह शास्त्रविहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे, किन्तु स्वयं शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभाँति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवाए।।26।।

 

Let no wise man unsettle the minds of ignorant people who are attached to action; he should engage them in all actions, himself fulfilling them with devotion. ।।26।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ मनुष्य होने का धर्म ☆ – श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘निसार’

श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘निसार’

(श्री गोपाल सिंह सिसोदिया  ‘निसार ‘ जी एक प्रसिद्ध कवि, कहानीकार तथा अनेक पुस्तकों के रचियता हैं। इसके अतिरिक्त आपकी विशेष उपलब्धि ‘प्रणेता संस्थान’ है जिसके आप संस्थापक हैं।  आज प्रस्तुत है एक किन्नर पात्र द्वारा मानवीय संवेदनाओं को उकेरती भावुक लघुकथा “मनुष्य होने का धर्म”। इस विषय पर साहित्यिक रचना के लिए श्री सिसोदिया जी  बधाई के पात्र हैं।) 

 

☆ मनुष्य होने का धर्म☆

 

अंजना दूर से देखते ही पहचान गयी कि सड़क की दूसरी ओर पटरी पर कौन बेहोश पड़ा है। उसका मन उसे देखते ही घृणा से भर गया और उसने उसकी ओर से मुँह फेर लिया। परन्तु तुरंत ही उसे अपने इस अमानवीय व्यवहार पर पछतावा हुआ और वह लगभग भागती हुई उसके पास पहुंची। उसने उसे छूकर देखा, श्वाँस चल रही थी। उसके मुँह से अनायास निकला, “भगवान तेरा लाख-लाख शुक्र है।”

उसने बिना और अधिक विलम्ब किये पास की पानी की रेड़ी से बोतल में दो गिलास पानी डलवाया और बुढ़िया के चेहरे पर छिड़कने लगी। शीतल जल के छींटों ने अपना असर दिखाया और बुढ़िया ने आँखें खोल दीं। सामने खड़ी अंजना को पहचानने का असफल प्रयास करने लगी।

“ले माई, पानी पी ले, क्यों बेकार में खोपड़ी पर ज़ोर डाल रही है।” अंजना ने पानी की बोतल उसके हाथ में देते हुए कहा।

बुढ़िया ने कोहनी ज़मीन पर टिकाई और बैठने का उपक्रम करने लगी। अंजना ने उसे सहारा देकर बिठा दिया। बुढ़िया ने दो घूँट पानी पीकर उसे घुटी-घुटी आवाज़ में दुआएं दीं और फिर से उसे पहचानने का प्रयास करने लगी।

एक क्षण रुककर उसने पूछा,

“कहीं तू अंजी तो नहीं है?”

इस बार अंजना से नहीं रहा गया और क्रोध भरी वाणी में बोली,  “हाँ माई, मैं वही अभागी हूँ, जिसे तूने अपनी कोख से जन्म देकर घर से ही नहीं, अपनी जिंदगी से भी निकाल फेंका था।

अंजना की बात सुनते ही उसे सब कुछ स्मरण हो आया। उसने अपनी पूरी ताकत लगाई और आगे बढ़कर अंजना के पैर दोनों बाँहों में भर लिये और पश्चाताप के आंसू बहाने लगी।

अंजना अपने पाँव छुड़ाने की भरपूर कोशिश करती रही, परन्तु विफल रही।

बुढ़िया के पछतावे के आंसुओ ने अंजना के अंतर में नफ़रत की धधकती आग पर शीतल जल का-सा असर किया। वह भी बुढ़िया के साथ-साथ रोने लगी। जब दोनों के अंदर जमी काई छँट गयी तो अंजना ने भर्राई आवाज़ में पूछा, “क्या हुआ माई, तूने अपना यह क्या हाल बना रखा है? वैसे तू जा कहाँ रही थी?”

अंजना की बात सुनकर बुढ़िया पुनः गंगा-यमुना बहाने लगी और रोते हुए बोली, “पिछले साल तेरा बापू मेरा संग छोड़ गया। उसके मरते ही दिनेश ने मेरे साथ एक बड़ा धोखा किया और मेरी सारी जमा पूँजी लूट ली। उसे इतने से ही संतोष नहीं हुआ। उसने घर भी बेच दिया। मुझसे कहकर गया था कि माई, हम पहले सामान पहुँचा दें, तब तुझे ले जाएंगे, परन्तु वह लौटकर न आया। मैं भूखी-प्यासी बंद मकान के सामने पड़ी रही। परन्तु वहाँ भी कब तक पड़ी रहती? इसलिए आज सुबह खुद ही उसका मकान ढूँढ़ने निकल पड़ी। मैं नहीं जानती कि चलते-चलते कब बेहोश होकर गिर पड़ी। मैं अपने पापों की सज़ा भुगत रही हूँ। मुझे माफ़ कर दे अंजी!”

“माई, मैं तो स्वयं न जाने किस जन्म के पापों की गठरी उठाए फिर रही हूँ। मैं तुझे क्या माफ़ करूंगी। अब मुझे यह बता कि क्या तू इस हिजड़ी के साथ रह सकेगी? यदि हाँ तो चल मेरे संग।” उसने अपने आँसू पोंछते हुए कहा।

तू ऐसा कहकर मुझे और शर्मिंदा मत कर, मुझे पहले ही अपने किये पर आत्मग्लानि हो रही है।” बुढ़िया ने कहा।

“चल माई, जैसी मुझसे बन पड़ेगी तेरी सेवा करूंगी। तेरी संतान होने के साथ-साथ यह मेरा मनुष्य होने का धर्म भी है।” अंजना ने बुढ़िया को सहारा देकर उठाया और अपने फ्लैट की ओर लेकर चल दी।

© श्री गोपाल सिंह सिसोदिया  ‘निसार’ 

दिल्ली

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