डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है उनका व्यंग्य – “बुरी नज़र और विघ्नहरण जूता” जो निश्चित ही …….. ! अरे जनाब यदि मैं ही विवेचना कर दूँ  तो आपको पढ़ने में क्या मज़ा आएगा? इसलिए बिना समय गँवाए कृपा कर के पढ़ें, आनंद लें और कमेंट्स करना न भूलें । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 6 ☆

 

☆ व्यंग्य – बुरी नज़र और विघ्नहरण जूता ☆

एक निर्माणाधीन मकान की बगल से गुज़रता हूँ तो देखता हूँ कि ऊपर एक कोने में एक पुराना जूता लटकाया गया है। जूते की तली सड़क पर चलने वालों की तरफ है। यह मकान को बुरी नज़र से बचाने का अचूक नुस्खा है। किसी अधबने मकान पर काली झंडी लहराती दिखती है तो किसी पर काली हंडी उल्टी लटकी है। मतलब यह है कि ईंट, पत्थर, सीमेंट को भी नज़र लगती है।गज़ब की होती है यह बुरी नज़र जो ईंट,पत्थर, कंक्रीट को भी भेद जाती है। क्या करती है यह बुरी नज़र? मकान में दरार कर देती है, या नींव को कमज़ोर कर देती है, या सीधे सीधे मकान को पटक देती है? आदमी पर बुरी नज़र की कारस्तानी की बात तो सुनी थी। डिठौना लगाना देखा, राई-नोन उतारना देखा। लेकिन मकानों पर बुरी नज़र का असर जानकर तो लगा कि नज़र किसी लेज़र किरण से कम नहीं।

कैसी होती है यह बुरी नज़र? क्या यह कोई स्थायी चीज़ होती है या यह ईर्ष्या या द्वेष से एकाएक उपजती है? किसी का आलीशान बंगला देखा, दिल में हूक उठी, और तीसरे नेत्र की तरह बुरी नज़र भक से चालू हो गयी। अगर यह कोई स्थायी लक्षण है तो यह कुछ खास लोगों में ही पायी जानी चाहिए। देश के कुछ आदिवासी क्षेत्रों में कुछ स्त्रियों को ‘चुड़ैल’ मानकर मार डाला गया या मारा पीटा गया। उन पर आरोप था कि उनकी बुरी नज़र या उनके तंत्र-मंत्र से गांव में दूसरों को नुकसान हुआ। दिलचस्प बात यह है कि यह आरोप किसी पुरुष पर नहीं लगा क्योंकि ‘चुड़ैल’ का नाम बताने वाले ओझा जी अक्सर पुरुष होते हैं।

मकानों पर लटकी झंडियों, हंडियों और जूतियों को देखकर लगता है कि सरकार को भी लोगों की संपत्ति की रक्षा के लिए प्रयास करना चाहिए। यह प्रयास निजी स्तर पर ही क्यों हो? इसलिए सबसे पहले तो नेत्र-विशेषज्ञों के द्वारा सबकी आँखों की जांच कराके बुरी नज़र वालों की एक फेहरिस्त बना ली जानी चाहिए। फिर इन बुरी नज़र वालों को कानूनन कोई पहचान-चिन्ह धारण करने को बाध्य किया जाना चाहिए। हो सके तो उन्हें घर से निकलने पर गांधारी की तरह आँखों पर पट्टी बांधने को कहा जाए, या कोई ऐसा चश्मा बनाया जाए जिसके काँच में बुरी नज़र के घातक तत्व को ‘न्यूट्रलाइज़’ करने की शक्ति हो, जैसे सिगरेट का फिल्टर निकोटिन को जज़्ब कर लेता है। जो भी हो, देश की संपत्ति को नुकसान से बचाने के लिए सरकार को कुछ न कुछ करना ज़रूरी है।

यह अनुसंधान का विषय है कि बुरी नज़र आँख से प्रक्षेपित कैसे होती है। विज्ञान के हिसाब से तो आँख सिर्फ एक कैमरा है, जो तस्वीर को ग्रहण तो करती है, लेकिन भेजती कुछ नहीं। लेकिन विज्ञान पर यकीन करके हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने से तो काम नहीं चलेगा। जब सयाने कहते हैं कि बुरी नज़र धनुष से छूटे बाण की तरह चलती है तो ज़रूर चलती होगी। वर्ना लोग आदमियों और घरों को बचाने का इतना पुख्ता इंतज़ाम क्यों करते? फिल्मी गीतों के हिसाब से तो आँखें विभिन्न प्रकार के घातक अस्त्रों से सुसज्जित रहती हैं जो दिल को घायल करने से लेकर जान तक ले सकते हैं। नमूने हैं —-‘ना मारो नजरिया के बान’, ‘मस्त नजर की कटार, दिल के उतर गयी पार’, और ‘अँखियों से गोली मारे, लड़की कमाल।’ नायिका की आँखों के बारे में रीतिकालीन कवि रसलीन की पंक्ति है —–‘जियत मरत झुकि झुकि परत, जेहि चितवत इक बार।’

वैसे सब लोग बुरी नज़र के उपचार के लिए जूते की तरफ नहीं भागते। बहुत से ट्रक वाले ट्रक के पीछे ‘बुरी नजर वाले तेरा मुँह काला’ लिख कर काम चला लेते हैं। फिल्मों में नायक नायिका के लिए ‘चश्मेबद्दूर’ गाकर तसल्ली कर लेता है। लेकिन फिर भी इस बला से बचने के लिए जूते का प्रयोग बहुतायत से होता है।

इतिहास के बारीक अध्ययन से पता चलता है कि जूता बद-नज़र और बददिमाग़ के इलाज का प्रभावी उपकरण रहा है। रियासतों के ज़माने में इसका प्रयोग काफी उदारता से रिआया को उसकी औकात का एहसास दिलाने के लिए किया जाता था। तब का जूता शुद्ध चमड़े का और मज़बूत होता था। उसके सामने दंड के अन्य सब उपकरण हेठे थे क्योंकि जूता चमड़ी और इज़्ज़त दोनों खींच लेता था। आजकल रबर सोल के हल्के-फुल्के जूतों का फैशन है जो सिर्फ इज़्ज़त हरने के ही काम आ सकते हैं। इसलिए जिन लोगों के लिए इज़्ज़त का कोई ख़ास महत्व नहीं है उनके लिए जूता भयकारी नहीं रहा। ग़रज़ यह कि आज के ज़माने में जूते की कीमत में भले ही वृद्धि हुई हो, लेकिन उसकी उपयोगिता में कमी हुई है। यह बात उन लोगों को ध्यान में रखना चाहिए जो बुरी नज़र को निर्मूल करने के लिए जूता लटकाते हैं।

दरअसल बुरी नज़र वालों का उपयोग भी देश के हित में हो सकता है, लेकिन जैसे हम अपने शिक्षित युवकों, इंजीनियरों, डाक्टरों का उपयोग करना नहीं जानते वैसे ही हम बुरी नज़र वालों का रचनात्मक उपयोग करना नहीं जानते। बुरी नज़र वालों को लड़ाई के मोर्चों पर भेजा जा सकता है जहाँ उनकी नज़र का इस्तेमाल दुश्मन के बंकरों को तोड़ने, पुल उड़ाने और टैंकों को बरबाद करने के लिए किया जा सकता है। यह नुस्खा कारगर होने के साथ साथ बेहद सस्ता भी है। कुछ बुरी नज़र वालों को नगर निगम के अतिक्रमण हटाने वाले दस्ते में भर्ती किया जा सकता है, जहाँ वे घंटों का काम मिनटों में करेंगे। नलकूपों की बोरिंग, मकानों के लिए नींव की खुदाई और पत्थरों को तोड़ने के कामों के लिए भी बुरी नज़र बहुत कारगर सिद्ध हो सकती है। हमारे पास ही काम की ऐसी बढ़िया तकनीक है, और हम विदेशों से मंहगे उपकरण खरीदने में लगे हैं।

विशेषज्ञों को इस काम में तुरन्त लगा देना चाहिए कि बुरी नज़र कितने स्तरों पर और कितने तरीकों से काम में लायी जा सकती है। यह भी देखा जाना चाहिए कि क्या बुरी नज़र में किसी और तत्व का संयोग करके कोई और ताकतवर चीज़ पैदा की जा सकती है। मेरे खयाल से बुरी नज़र में असीमित संभावनाएं हैं, बशर्ते कि हम इन संभावनाओं की खोज-बीन के प्रति जागरूक हों।अब तक हमने इस क्षेत्र की बहुत उपेक्षा की। परिणामतः दूसरे देश कहीं से कहीं पहुंच गये और हम पीछे रह गये। अब एक क्षण भी गंवाना आत्मघाती होगा।

 

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )
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