डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है  डॉ मुक्ता जी की प्रस्तुति “अपने अपने खेमे ” ।उनकी यह बेबाक रचना आपको साहित्य जगत के कई पक्षों से रूबरू कराती है। साथ ही आपके समक्ष साहित्य जगत के सकारात्मक पक्ष को भी उजागर करती है जो किसी भी पीढ़ी के साहित्यकार को सकारात्मक रूप से साहित्य सेवा करते रहने के लिए प्रेरित करती है। ऐसे निष्पक्ष आलेख के लिए डॉ मुक्ता जी का अभिनंदन एवं आभार।) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 11 ☆

 

☆ अपने अपने खेमे ☆

 

चार-पाँच वर्ष पहले एक आलेख पढ़ा था, अपने- अपने खेमों के बारे में… जिसे पढ़कर मैं अचंभित- अवाक् रह गई कि साहित्य भी अब राजनीति से अछूता नहीं रहा। यह रोग सुरसा के मुख की भांति दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है… थमने का नाम ही नहीं लेता। लगता है यह सुनामी की भांति सब कुछ निगल जाएगा। हाँ! दीमक की भांति इसने साहित्य की जड़े तो खोखली कर दी हैं, रही-सही कसर व्हाट्स ऐप व फेसबुक आदि ने पूरी कर दी है। हाँ! मीडिया का भी इसमें कम योगदान नहीं है। वह तो चौथा स्तंभ है न, अलौकिक शक्ति से भरपूर, जो पल भर में किसी को अर्श से फर्श पर लाकर पटक सकता है और फर्श से आकाश पर पहुँचा सकता है.. जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण आप सबके समक्ष है।

हाँ! चलो, हम बात करते हैं — देश की एक प्रसिद्ध पत्रिका की, जिसमें साहित्य के विभिन्न खेमों का परिचय दिया गया था…विशेष रूप से चार खेमों के ख्याति-प्राप्त, दबंग संचालकों के आचार व्यवहार, दबदबे व कारस्तानियों को भी उजागर किया गया था, जिसका सार था ‘आपको किसी न किसी खेमे के तथाकथित गुरू की शरणागति अवश्य स्वीकारनी होगी, अन्यथा आपका लेखन कितना भी अच्छा, सुंदर, सटीक, सार्थक, मनोरंजक व समाजोपयोगी हो, आपको मान्यता कदापि नहीं प्राप्त हो सकेगी। इतना ही नहीं, उसका यथोचित मूल्यांकन भी सर्वथा असम्भव है।

इसके लिये आवश्यकता है… साष्टांग दण्डवत् प्रणाम व नतमस्तक होने की, सम्पूर्ण समर्पण की..तन-मन-धन से उनकी सेवा करने की तत्परता दिखलाने की, यह इसमें प्रमुख भूमिका का निर्वहन करती है। दूसरे शब्दों में यह है, सामाजिक मान्यता प्राप्त करने की, सफलता पाने की एकमात्र कुंजी..आप सब इस तथ्य से तो अवगत हैं कि ‘जैसा बोओगे,वैसा काटोगे’ अर्थात् उनकी करुणा, कृपा व निकटता पाने के लिए आपको संबंधों की गरिमा को त्याग, मर्यादा को दरक़िनार कर, आत्म-सम्मान को दाँव पर लगाना होगा, तभी आप उनके कृपा-पात्र बनने में सक्षम हो पायेंगे। इस उपलब्धि के पश्चात् एक पुस्तक के प्रकाशित होने पर भी आप विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित हो सकते हैं क्योंकि इस संदर्भ में पुस्तक-प्रकाशन की अहम् भूमिका नहीं होती। आपको प्रिंट मीडिया में अच्छी कवरेज मिलेगी तथा विभिन्न काव्य गोष्ठियों व विचार गोष्ठियों में आपको सुना व सराहा जाएगा। आपकी चर्चा समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में ही नहीं होगी, टी•वी•और दूरदर्शन भी आप की राह में पलक-पांवड़े बिछाए प्रतीक्षारत रहेंगे। देश-प्रदेश में आपका गुणगान होगा।

इतना ही नहीं, आप पर एम•फिल• व पीएच•डी• करने वालों की लाइन लगी रहेगी। देश के सर्वोच्च सम्मान आपकी झोली में स्वत: आन पड़ेंगे। हाँ! आपको पी•एच•डी• ही नहीं, डी•लिट• तक की मानद उपाधि प्रदान कर विश्वविद्यालय स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करेंगे। आपकी कृति पर टेलीफिल्म आदि बनना तो सामान्य-सी बात है, बड़े-बड़े संस्थानों के संयोजक व सरकारी नुमाइंदे आप पर संगोष्ठियां करवा कर, स्वयं को धन्य समझेंगे। आश्चर्य की बात यह है कि वे लोग अपने आला साहित्यकारों को प्रसन्न करने का एक भी अवसर हाथ से नहीं जाने देते।

इन विषम परिस्थितियों में आप भी मंचासीन होकर विद्वत्तजनों को धूल चटा कर, सातवें आसमान पर होते हैं और फूले नहीं समाते। आप सिद्ध कर देते हैं कि प्रतिभा साम, दाम,  दंड, भेद के सामने पानी भरती है, उनकी दासी है। बस! दरक़ार है…आत्मसम्मान को खूँटी पर टाँग, दूसरों के बारे में कसीदे गढ़ने की, अपने अहं को मार, ज़िंदा दफ़न करने की, उनकी अंगुलियों पर कठपुतली की भांति नाचने की, उनके संकेत-मात्र पर उनकी इच्छानुसार कुछ भी कर गुज़रने की, उनके कदमों में बिछ जाने की, उनके हर आदेश को शिरोधार्य करने की….यदि आप इनमें से चंद योग्यताएं भी रखते हैं, तो आप रातों-रात महान् बन जाते हैं और आप की तूती दसों दिशाओं में मूर्धन्य स्वर में गूँजने लगती है।

अपने-अपने खेमों के संयोजक, संचालक व सूत्रधार आप से वफ़ादारी की अपेक्षा रखते हैं और उनके शिष्य एक-दूसरे पर नज़र भी रखते हैं कि अमुक प्राणी कहीं, किसी दूसरे खेमें के बाशिंदों से मिलता तो नहीं? वह कहाँ जाता है, क्या करता है, उनके प्रति वफ़ादार है या नहीं?

यह समाज का कटु यथार्थ है कि हर बेईमान व्यक्ति वफ़ादार सेवक चाहता है, जो दिन-रात उसके आस-पास मंडराता रहे, उसकी चरण-वंदना करे, उसकी कीर्ति व यश को दसों दिशाओं में प्रसारित करे। जैसे मलय वायु का झोंका समस्त दूषित वातावरण को आंदोलित कर सुवासित कर देता है।

विभिन्न कार्यक्रमों में भीड़ जुटाना, वाहवाही करना, वन्स मोर के नारे लगाना….यह तो उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन जाता है। इतना ही नहीं उसके घर का पूरा दारोमदार, तथाकथित शिष्य-अनुयायी के कंधों पर रहता है। पत्नी से लेकर बच्चों की हर इच्छा को तरज़ीह देना, पत्नी से लेकर बच्चों को पिकनिक पर ले जाना, उस घर का पूरा साज़ो-सामान जुटाना, उन्हें सिनेमा दिखलाना आदि उनका नैतिक दायित्व समझा जाता है। यदि वह बाशिंदा बिना परिश्रम के, पूर्ण निष्ठा से वह सब पा लेता है, तो उसे आकाश की बुलंदियां छूने से कोई नहीं रोक सकता।

चलिए! इन ख़ेमों की कारगुज़ारियों से तो आप अवगत हो ही गए हैं, अब पुरस्कारों के बारे में विवेचन-विश्लेषण कर लेते हैं। बहुत से बड़े-बड़े प्रतिष्ठान व सरकारी संस्थानों में तो फिफ्टी-फिफ्टी की परंपरा लंबे समय से चली आ रही है। यदि आप इस समझौते के लिए तैयार हैं, तो सम्मान आपके आँचल में आश्रय पाने को बेक़रार मिलेगा।

वैसे भी इसका एक और उम्दा विकल्प है…आप नई संस्था बनाइए, हज़ारों साहित्यकार मधुमक्खियों की भांति आसपास मंडराने लगेंगे। रजिस्ट्रेशन के नाम पर संस्थापक बंधु आजकल सम्मान-राशि व आयोजन के खर्च से भी कहीं अधिक बटोर लेते हैं। आजकल उनका यह गोरख-धंधा पूरे यौवन पर है…फल-फूल रहा है। संस्थापक होने के नाते वे हर कार्यक्रम में केवल आमंत्रित ही नहीं किये जाते, मंचासीन भी रहते हैं। बड़े-बड़े साहित्यकार अनुनय-विनय कर प्रार्थना करते देखे जाते हैं कि वे अपनी संस्था के बैनर तले, उनकी पुस्तक का विमोचन करवा दें या उन्हें किसी संगोष्ठी में भावाभिव्यक्ति का अवसर प्रदान करें। चलिए यह भी आधुनिक ढंग है… साहित्य-सेवा का।

मुझे इस तथ्य को उजागर करने में तनिक भी संकोच नहीं है कि आज भी राष्ट्रीय सम्मान इससे अछूते हैं, जिनमें राष्ट्रपति सम्मान शीर्ष स्थान पर हैं। वास्तव में यह आपकी साहित्य-साधना, कर्मशीलता व विद्वत्ता का वास्तविक मूल्यांकन है। यह अँधेरी रात में घने काले बादलों में, बिजली की कौंध की मानिंद है। जब आपको सहसा यह सूचना मिलती है, तो आप चौंक जाते हैं… विश्वास नहीं कर पाते और कह उठते हैं, ऐसा कैसे संभव है? और इसे क़ुदरत का करिश्मा बतलाते हैं।

आजकल अक्सर सम्मानों के लिए आवेदन करना होता है। हाँ! राज्य-स्तरीय व राष्ट्रीय पुरस्कारों के अंतर्गत कई बार किसी संस्था का अध्यक्ष या शीर्ष कोटि का साहित्यकार आपके नाम की संस्तुति कर देता है, जिससे आप बेखबर होते हैं…वास्तव में यह पुरस्कार आपके जीवन की सच्ची धरोहर के रूप में सुक़ून देते हैं।

हां! इसके एक पक्ष पर प्रकाश डालना अभी भी शेष है कि इन सम्मानों की चयन-प्रक्रिया में अफसरशाही या राजनीति या कोई योगदान है या नहीं?

मैं अपने अनुभव से नि:संकोच कह सकती हूं कि यदि आप निष्काम भाव से, तल्लीनता-पूर्वक, पूर्ण समर्पण भाव से अपने दायित्व का वहन करते हैं तो आप स्वतंत्र होते हैं, हर निर्णय स्वेच्छा से ले सकते हैं और निरंकुश होकर अपना कार्य कर सकते हैं। हां! इसके लिये अपेक्षा रहती है… प्रबल इच्छाशक्ति की, सकारात्मक सोच की, पूर्ण समर्पण की, कर्तव्यनिष्ठता की। यदि आप निस्वार्थ व निष्काम कर्म करने का माद्दा रखते हैं, तो आप हर विषम परिस्थिति का सामना करने में सक्षम हैं। आपको कोई भी कर्तव्य-पथ से विचलित नहीं कर सकता, यदि आप स्वार्थ का त्याग कर, संघर्षशील बने रहते हैं तो आपको उसका अप्रत्याशित फल अवश्य प्राप्त होगा क्योंकि परिश्रम कभी व्यर्थ नहीं जाता। हाँ आवश्यकता है…यदि हमारे कदम धरती पर और नज़रें आकाश की ओर स्थिर रहती हैं और हम अपनों से, अपनी जड़ों से सदैव जुड़े  रहते हैं, तो हम हर प्रकार की आबोहवा में पनप सकेंगे…हमें अपने लक्ष्य से कोई डिगा नहीं सकता। विपरीत हवाएं व आंधी-तूफ़ान भी हमारा रास्ता नहीं रोक पाएंगे और न ही खेमों के मालिक हमें नतमस्तक होने को विवश कर पाएंगे।

समय के साथ परिवर्तित होती है सत्ता, बदलते हैं अहसास व जज़्बात और कायम रहता है विश्वास,तो आप निरंतर उन्नति के पथ पर अग्रसर होते रहते हैं क्योंकि आत्मविश्वास संतोष व संतुष्टि का संवाहक होता है और इसकी रीढ़ व धुरी होता है। इसके साथ ही मैं अपनी लेखनी को विराम देती हूँ …इसी आशा के साथ कि हमारे साहस, उत्साह, धैर्य व आत्म- विश्वास के सम्मुख विसंगतियां व विषम परिस्थितियां स्वतः ध्वस्त हो जाएंगी, अस्तित्वहीन हो जायेंगी और सब को विकास के समान अवसर प्राप्त होंगे।

इसी आशा और विश्वास के साथ…उज्ज्वल भविष्य का स्वप्न संजोए…

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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डॉ भावना शुक्ल

वाह यथार्थ

Sudershan Ratnakar

यथार्थ, सटीक आलेख।मुक्ता जी खेमे तो पहले भी थे पर संजीदगी और भाईचारा भी था। फ़ेस बुक, व्हाटसअप, मीडिया और सबसे बड़ी बात लेखक की बिना परिश्रम किए रातों रात प्रसिद्धि पा लेना और पुरस्कार की लालसा से यह सब हो रहा है।
लेखकों को आइना दिखाता अच्छा आलेख।बधाई