सुश्री पल्लवी भारती 

 

(प्रकृति अपने प्रत्येक रूप के रंगो- छंदों से केवल एक ही इशारा करती है, कि “आओ, अपने गंतव्य की ओर चलो”… इसी विषय पर आधारित है  सुश्री पल्लवी भारती जी की यह कविता- “गंतव्य की ओर”।) 

 

? गंतव्य की ओर ?

 

प्रात: रश्मि की किरण से,

और सांध्य के सघन से;

रक्त-वर्णित अंबुधि में,

अरूण के आश्रय-सुधि में;

सप्ताश्र्व-रथ पे आरूढ़,

सदैव से निश्चयी दृढ़।

दीप्त भाल विशाल ज्यों क्षितिज के उस छोर।

चलें गंतव्य की ओर॥

 

खग- गणों के कलरवों में,

मौन हुए गीतों के स्वर में;

एक चिंतन भोज्य-कण,

और तिनकों का संरक्षण।

अस्थिर गगन और धूलिमय नभ;

ध्येय अपना पीछे हुआ कब?

शीघ्रतम दिन व्यतीत ज्यों अब हुआ है भोर।

चलें गंतव्य की ओर॥

 

पुष्प तरूवर वाटिका,

चाहे लतिका वन-कंटिका;

तृण-शिशु और पल्लवित पर,

सहला रहे हैं मारूत्य-कर।

फल फूल मुखरित कंठ से,

सेवा आगाध आकंठ से।

नव-शाख पुलकित हरिताभ पट-धर और पुष्पित डोर।

चलें गंतव्य की ओर॥

 

उन्माद गिरि का निर्झर है,

उल्लास नदी का प्रखर है;

संसृति कूल-किनारें सिंचित,

नानाविधि जीवन संरक्षित।

पथ दुर्गमों को कर पार,

लहरें हैं नाची बारंबार।

जीवन प्रदत्त अस्थिर चपलता द्रुत गति अघोर।

चलें गंतव्य की ओर॥

 

दिन-रैन संग में सन्निहित,

काल-भाल पट्टिका पर उद्धृत।

हो बाल रवि या नव निशा,

हो तुच्छ प्राणी या वसुन्धरा;

वायु पतझड़ कोकिला स्वर,

द्वंद्व संगम लीन कर।

फिर कहाँ कैसी प्रतीक्षा प्रलाप का है शोर!

चलें गंतव्य की ओर॥.

 

पल्लवी भारती ✍

संपर्क –  बेलपाड़ा, मधुपुर (जिला –  देवघर) पिन –815353  झारखंड मो- 8808520987,  ई-मेल– pallavibharti73@gmail. com

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