सुश्री मालती मिश्रा
कविता – नारी तू सृजनहार
(यह कविता सुश्री मालती मिश्रा जी के काव्य -संग्रह ‘अन्तर्ध्वनि ‘की शीर्ष कविताओं में से एक है। हमने कल इस पुस्तक की समीक्षा प्रकाशित की थी। हमें पूर्ण विश्वास है आपको निश्चित ही यह कविता पसंद आएगी। सुश्री मालती मिश्रा जी ने इस कविता में नारी को नारी शक्ति का एहसास दिलाने की चेष्टा की है।
नारी की अस्मिता आज
क्यों हो रही है तार-तार,
क्यों बन राक्षस नारी पर
करते प्रहार यूँ बारम्बार।
क्यों जग जननी यह नारी
जो स्वयं जगत की सृजनहार,
दुष्ट भेड़ियों के समक्ष
क्यों पाती है खुद को लाचार।
क्यों शिकार बनती यह जग में
नराधम कुंठित मानस का,
क्यों नहीं बनकर यह दुर्गा
करती स्वयं इनका शिकार।
जो नारी जन सकती मानव को
क्या वह इतनी शक्तिहीन है,
क्यों नहीं दिखाती अपना बल यह
क्यों नहीं दिखाती यम का द्वार।
सुन हे अबला अब जाग जा
पहचान तू अपने आप को,
पहचान ले अपनी शक्तियों कों
त्याग दे दुख संताप को।
नहीं बिलखने से कुछ होगा
दया की आस तू अब छोड़,
उठने वाले हाथों को तू
बिन सोचे अब दे मरोड़।
जो दया है तेरी कमजोरी
तू अपनी शक्ति उसे बना
जैसे को तैसा का सिद्धांत
बिन झिझके अब तू ले अपना।
अब कृष्ण नहीं आएँगे यहाँ
तेरा चीर बढ़ाने को,
तुझे स्वयं सक्षम बनना होगा
दुशासन का रक्त बहाने को।
गिद्ध जटायु नहीं इस युग में
तेरा सम्मान बचाने को,
राम बाण तुझे ही बनना होगा
रावण की नाभि सुखाने को।
जाग हे नारी पहचान तू खुद को
तू आदिशक्ति तू लक्ष्मी है,
महिषासुरों के इस युग में
तू ही महिषासुरमर्दिनी है।
सीता-सावित्री अहिल्या तुझमें
तो दुर्गा-काली भी समाई है,
पुत्री, भार्या, भगिनी है तो
दुर्गावती लक्ष्मीबाई भी है।
मत देख राह तू कानून की
वह पट्टी बाँधे बैठी है,
उसकी आँखों के समक्ष ही
आबरू की बलि चढ़ती है।
न्याय तुझे पाने के लिए
अपना कानून बनना होगा,
छोड़ सहारा औरों का
खुद सशक्त हो उठना होगा।।
© मालती मिश्रा ‘मयंती’
Very very beautiful?
धन्यवाद सर