डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  आज प्रस्तुत है  डॉ मुक्ता जी  का विचारोत्तेजक आलेख  “नारी अस्मिता प्रश्नों के दायरे में क्यों ?”।)

 

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यह तो सर्वविदित है कि सृष्टि निर्माण के लिए नियंता ने आदम और हव्वा की कल्पना की तथा दोनों को इसका उत्तरदायित्व सौंपा। हव्वा को उसने प्रजनन क्षमता प्रदान की तथा दैवीय गुणों से संपन्न किया। शायद!इसलिये ही मां बच्चे की प्रथम गुरु कहलायी।  जन्म के पश्चात् उसका अधिक समय मां के सान्निध्य में गुज़रा। सो! मां के संस्कारों का प्रभाव उस पर सर्वाधिक पड़ा। वैसे तो पिता की अवधारणा के बिना बच्चे के जन्म की कल्पना निर्रथक थी। पिता पर परिवार के पालन-पोषण तथा सुरक्षा का दायित्व  था। इसलिए सांस्कृतिक परिवेश उसे विरासत में मिला, जो सदैव पथ-प्रदर्शक के रूप में साथ रहा।

प्राचीन काल से स्त्री-पुरुष दोनों एक-दूसरे के पूरक रहे हैं। परन्तु सभ्यता के विकास के साथ-साथ पितृ सत्तात्मक परिवार अस्तित्व में आये। वैसे कानून- निर्माता तो सदैव पुरुष ही रहे हैं। सो! स्त्री व पुरुष के लिए सदैव अलग-अलग कानून बनाये गये। सभी कर्त्तव्य नारी के दामन में डाल दिए गए और अधिकार पुरुष को प्राप्त हुए। औरत को चूल्हे-चौंके में झोंक दिया गया और घर की चारदीवारी ने उसके लिए लक्ष्मण रेखा का कार्य किया। जन्म के पश्चात् वह पिता के साए में अजनबी बनकर रही तथा उसे हर पल यह अहसास दिलाया गया कि ‘यह घर तेरा नहीं है। तू यहां के लिए पराई है, अजनबी है। तुझे तो पति के घर-आंगन की शोभा बनना है। सो! वहां जाने के पश्चात् तुम्हें उस घर की चौखट को नहीं लांघना है। हर विकट परिस्थिति का सामना अकेले ही करना है। तुम्हारे लिये यह समझ लेना आवश्यक है कि जिस घर से डोली उठती है, अर्थी वहां से कभी नहीं उठती। इसलिए तुम्हें यहां अकेले लौट कर कभी नहीं आना है’।

वह मासूम लड़की पिता के घर में इसी अहसास से जीती है कि वह घर उसका नहीं है। सो! वहां उस पर अनेक अंकुश लगाए जाते हैं। पहले दिन से ही बेटी- बेटे का फ़र्क उसे समझ आ जाता है। माता-पिता का व्यवहार दोनों से अलग-अलग किस्म का होता है।

बचपन से खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने में भी भेदभाव किया जाता है, पढ़ाई जारी रखने के लिए भी उनकी सोच व मापदंड अलग-अलग होते हैं। उसे आरंभ से ही घर के कामों में झोंक दिया जाता है कि उसे तो ससुराल जाकर नया घर संभालना है। उसके लिए सारे कायदे-कानून भाई से अलग होते हैं। उसके रोम-रोम में परिवार की इज़्ज़त व मान-मर्यादा इस क़दर घर कर जाती है… रच-बस जाती है, जिसे वह चाहकर भी भुला नहीं पाती। अनेक बार उसका हृदय चीत्कार कर उठता है, परन्तु पिता व भाई के क्रूर व्यवहार को स्मरण कर वह सहम जाती है। उस के मन में विचारों के बवंडर उठते हैं कि नारी अस्मिता ही प्रश्नों के दायरे में क्यों?

क्या बेटे द्वारा दुष्कर्म के हादसों से परिवार की मान- मर्यादा पर आंच नहीं आती…उनकी भावनाएं आहत नहीं होती? जब उसे हर प्रकार की स्वतंत्रता प्रदत्त है, तो वह उससे वंचित क्यों? हर कसूर के लिए वह ही दोषी क्यों? ऐसे अनगिनत प्रश्न उसके  मन को सालते हैं तथा उसके गले की फांस बन जाते हैं। परन्तु वह लाख प्रयत्न करने पर भी उनका विरोध कहां कर पाती है।

हां! नए घर की सुंदर कल्पना कर, रंगीन स्वप्न संजोए वह मासूम ससुराल में कदम रखती है। परन्तु वहां भी, उस माहौल में वह अकेली पड़ जाती है। उसकी नज़रें सी•सी•टी•वी• कैमरे की मानिंद उस नादान की हर गतिविधि पर लगी रहती हैं। पहले दिन से ही शुरू हो जाती है— उसकी अग्नि-परीक्षा। ससुराल के लोग उसे प्रताड़ित करने का एक भी स्वर्णिम अवसर हाथ से नहीं जाने देना चाहते। वह कठपुतली की भांति उनके आदेशों की अनुपालना करती है…अपनी आकांक्षाओं का गला घोंट नत- मस्तक रहती है। परन्तु फिर भी वह कभी कम दहेज लाने के कारण, तो कभी परिवार को वंशज न दे पाने के कारण, केवल तिरस्कृत ही नहीं होती..उसके लिए  तैयार होता है, मिट्टी के तेल का डिब्बा,गैस का खुला स्टोव व दियासलाई, तंदूर की दहकती अग्नि, छत या नदी की फिसलन,बिजली  की नंगी तारों का करंट। सो! उसे सहन करनी पड़ती हैं,जीवन भर अमानवीय  यातनाएं, जिसे नियति स्वीकार उसे ढोना पड़ता है। वह जीवन भर इसी उहापोह में पल-पल जीती,पल- पल मरती है, परन्तु कभी उफ़् नहीं करती। प्रश्न उठता है कि यह सब हादसे उनकी बेटी के साथ क्यों घटित नहीं होते? इसका मुख्य कारण है, माता-पिता का अपनी पुत्रवधु में बेटी का अक्स न देखना। वास्तव  में वे भूल जाते हैं कि उनकी बेटी को भी  किसी के घर-आंगन की शोभा बनना है।

इस तथ्य से तो आप भली-भांति परिचित होंगे कि औरत को उपभोक्तावादी युग में, बढ़ते बाज़ारवाद के कारण वस्तु-मात्र समझा जाता है। जब तक उसकी उपयोगिता रहती है, उसे सहेज कर रखा जाता है, सिर आंखों पर बैठाकर, सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। परन्तु उसके पश्चात् खाली बोतल की भांति घर से बाहर का रास्ता दिखला दिया जाता है।

हां! पति परमेश्वर है, जो कभी गलती कर ही नहीं सकता। उसका हर वचन, हर कर्म सत्य व अनु- करणीय समझा जाता है। वह अपनी पत्नी के रहते किसी दूसरी औरत से संबंध स्थापित कर, उसे अपने घर में स्थान दे सकता है और अपनी पत्नी को घर  से बेदखल करने में सक्षम है।आश्चर्य होता है यह देखकर, कि पत्नी की अर्थी उठने से पहले ही पति के लिए नये रिश्ते आने प्रारंभ हो जाते हैं और वह श्मशान तक की यात्रा में भी पत्नी का साथ नहीं देता…उसे अग्नि देने की बात तो बहुत दूर की है। वह तो उसी पल नई नवेली जीवन-संगिनी के सपनों- कल्पनाओं में खो जाता है।

परन्तु यथा स्थिति में पति के देहांत के बाद औरत को जीवन भर वैधव्य की त्रासदी को झेलना पड़ता है। इतना ही नहीं ससुराल वालों के दंश ‘यह मनहूस है, डायन है… हमारे बेटे को खा गई’ आदि झेलने पड़ते हैं । वे भूल जाते हैं कि उनका बेटा उसका पति भी था, जिसने उसे हमसफ़र बनाया था। वह उसका भाग्य-विधाता था, जो उसे बीच भंवर अकेला छोड़ चल दिया उन राहों पर, जहां से लौट कर कोई नहीं आता।

ज़रा! सोचिए, क्या उस निरीह पर विपत्तियों का पहाड़ नहीं टूटा होगा ? क्या उसे पति का अभाव नहीं खलता होगा ? वह अकेली अब जिंदगी के बोझ को कैसे ढोएगी? काश! वे उस मासूम की पीड़ा को अनुभव कर पाते और उसे परिवार का हिस्सा स्वीकार उसका मनोबल बढ़ाते, उसे आश्रय प्रदान करते और अहसास दिलाते कि वे हर असामान्य- विषम परिस्थिति में ढाल बनकर सदैव उसके साथ खड़े हैं। उसे अब किसी प्रकार की चिंता करने की आवश्यकता नहीं।

परन्तु होता उससे उलट है… परिवार के लोग उस पर बुरी नज़र डालना प्रारंभ कर देते हैं तथा उसे नरक में धकेल देते हैं। वह प्रतिदिन नये हादसे का शिकार बनती है। कई बार तो उनकी नज़रों में जायदाद हड़पने के लिए, उसे रास्ते से हटाना अवश्यंभावी हो जाता है। वे उस पर गलत इल्ज़ाम लगा, घर से बेघर कर अपनी शेखी बघारते नहीं थकते। फिर प्रारम्भ हो जाती है… उस पर ज़ुल्मों की बरसात।

यदि वह पुलिस स्टेशन रिपोर्ट लिखवाने जाती है, तो वहां उसका शोषण किया जाता है। कानून के कटघरे में उसके चरित्र पर ऐसी छींटाकशी की जाती है कि वह न्याय पाने का विचार त्याग, वहां से भाग जाने में ही अपनी बेहतरी समझती है। यहां भी लाभ प्रतिपक्ष को ही मिलता है। उनके हौंसले और बुलंद हो जाते हैं तथा वह मासूम ज़ुल्मों को नियति स्वीकार अकेली निकल पड़ती है… ज़िन्दगी की उन राहों पर,बढ़ जाती है, जो उसके लिए अनजान हैं। प्रश्न उठता है, नारी ही कटघरे में क्यों? पुरुष पर कभी कोई आक्षेप आरोप-प्रत्यारोप क्यों नहीं? क्या वह सदैव दूध का धुला होता है? जब किसी मासूम की इज़्ज़त लुटती है तो लोग उसे अकारण दुत्कारते हैं, लांछित करते हैं, दोषारोपण करते हैं और उस दुष्कर्मी को शक़ की बिनाह पर छोड़ दिया जाता है। वह दुष्ट सिर उठाकर जीता है, परन्तु वह निर्दोष समाज में सिर झुकाकर अपना जीवन ढोती है और उसके माता-पिता आजीवन ज़लालत भरी ज़िन्दगी ढोने को विवश होते हैं।

क्या अस्मिता केवल औरत की होती है, शील-भंग भी उसी का होता है। हां!पुरुष की तो इज़्ज़त होती ही नहीं… शायद!इसीलिये उस पर तो कभी, किसी प्रकार की तनिक आंच भी नहीं आती। हां! यदि औरत इन यातनाओं-यंत्रणाओं को सहन करते-करते अपना दृष्टिकोण व जीने की राह बदल लेती है, तो वह कुलटा, कुलक्षिणी, कुलनाशिनी व पापिनी कहलाती है।

जब से नारी ने समानाधिकारों की मांग की है,महिला  सशक्तीकरण के नारों की गूंज तो चारों ओर सुनाई पड़ती है, परन्तु उसके सुरक्षा के दायरे में सेंध लग गई है। आज नारी न घर के बाहर सुरक्षित है, न ही घर के प्रांगण व पिता व पति के सुरक्षा-दायरे में,और  लोग उसकी ओर गिद्ध नज़रें लगाए बैठे हैं।

यह बतलाते हुए मस्तिष्क शर्म से झुक जाता है कि आज तो कन्या भ्रूण रूप में भी सुरक्षित नहीं है। उससे तो जन्म लेने का अधिकार भी छिन गया है..अन्य सम्बन्धों की सार्थकता की तो बात करना ही व्यर्थ है। पति-पत्नी के सात जन्मों का पुनीत संबंध आज कल  लिव-इन रिलेशन में परिवर्तित हो गया है।’ तू नहीं और सही’ व ‘खाओ-पियो, मौज उड़ाओ’ की संस्कृति का हम पर आधिपत्य हो गया है। संयुक्त परिवार ही नहीं, अब तो एकल परिवार भी निरंतर टूट रहे हैं। एक छत के नीचे पति-पत्नी अजनबी बनकर अपना जीवन बसर कर रहे हैं। सामाजिक सरोकार समाप्त हो रहे हैं। इसकी सबसे अधिक हानि हो रही है…हमारी नई पीढ़ी को, जो स्वयं को सबसे अधिक असुरक्षित अनुभव कर रही है। पिता की अवधारणा का कोई महत्व शेष रहा ही नहीं, पति-पत्नी जब तक मन चाहता है, साथ रहते हैं और असंतुष्ट होने की स्थिति में, जब मन में आता है, एक-दूसरे से संबंध-विच्छेद कर लेते हैं। पश्चिमी समाज विशेष रूप से अमेरिका में पितृविहीन परिवारों के आंकड़े इस प्रकार हैं…1960 में 80% से अधिक बच्चे माता-पिता के साथ, उनकी सुरक्षा में रहते थे। 1990 में यह आंकड़ा 58% और और अब यह 50% से भी नीचे पहुंच गया है। इनमें से 25% बच्चे अनब्याही माताओं के साथ रहते हैं और करोड़ों बच्चे मां और सौतेले पिता के साथ, जिससे उनकी माता ने संबंध-विच्छेद के पश्चात् पुनर्विवाह कर लिया है या उसके साथ बिना विवाह के लिव-इन में रह रही हैं।

आज हमारा देश पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण कर रहा है। सुप्रीम कोर्ट का  लिव-इन को मान्यता प्रदान करना, तलाक़ की प्रक्रिया को सुगम बनाना और विवाहेत्तर संबंधों को हरी झंडी दिखलाना, समाज के लिये घातक ही नहीं, उसे बढ़ावा देने के लिए काफी है। वैसे भी आजकल तो इसे मान्यता प्रदान कर दी गई है। विवाह के मायने बदल गए हैं और विवाह संस्था दिन-प्रतिदिन ध्वस्त होती जा रही है। इसमें दोष केवल पुरुष का नहीं, स्त्री का भी पूरा योगदान है। एक लंबे अंतराल के पश्चात् औरत गुलामी  की ज़ंजीरें तोड़कर बाहर निकली है… सो! की मर्यादा की सीमाओं का अतिक्रमण होना तो स्वाभाविक है।

उसने भी जींस कल्चर को अपना लिया है और वह पुरुष की राहों को श्रेष्ठ मान उनका अनुकरण करना चाहती है। वह प्राचीन मान्यताओं को रूढ़ि स्वीकार, केंचुली सम त्याग देना श्रेयस्कर समझती है, भले ही इसमें उसका अहित ही क्यों ना हो। घर से बाहर निकल कर नौकरी करने से, जहां वह असुरक्षा के घेरे में आ गई है, वहीं उसे दायित्वों का दोहरा बोझ ढोना पड़ रहा है। घर-परिवार में उस से पूर्व अपेक्षा की जाती है। हर स्थिति में पुरुष अहं आड़े आ जाता है और वह उस पर व्यंग्यबाण चलाने  में एक भी अवसर नहीं चूकता। हरपल ज़लील करने  का हक़ तो उसे विरासत में मिला है, जिससे स्त्री के आत्मसम्मान पर चोट लगती है और उसे  मुखौटा धारण कर दोहरा जीवन  जीना पड़ता है। परन्तु कभी-कभी तो वह घर की चौखट लांघ स्वतंत्र जीवन जीने की राह पर निकल पड़ती है, जहां उसे कदम- कदम पर ऐसे वहशी दरिंदों का सामना करना पड़ता है, जो उसे आहत करने का एक भी अवसर नहीं चूकते। प्रश्न उठता है आखिर कब तक उसे माटी की गुड़िया समझ, उसकी भावनाओं से खिलवाड़ किया जाएगा…आखिर कब तक?

आश्चर्य होता है यह देखकर कि पश्चिमी देशों में भारतीय संस्कृति को हृदय से स्वीकारा जा रहा है, मान्यता प्रदान की जा रही है, जिसका स्पष्ट उदाहरण है भगवत्-गीता को मैनेजमेंट कोर्स में लगाना… निष्काम कर्म की महत्ता को स्वीकारना तथा जीवन संबंधित प्रश्नों का समाधान गीता में तलाशना, उनके हृदय की उदारता व सकारात्मक सोच का परिणाम है। परन्तु हम भगवत् गीता को इस रूप में मान्यता प्रदान नहीं कर पाए…यह हमारा दुर्भाग्य है। हमारी परिवार-व्यवस्था में गृहस्थ-जीवन को यज्ञ के रूप में स्वीकारा गया है। परिवार के बुज़ुर्गों को देवी-देवता सम स्वीकार उन्हें मान-सम्मान प्रदान करना, वट वृक्ष की छाया में संतोष व सुरक्षित अनुभव कर सुख- संतोष की सांस लेना… विदेशी लोगों को बहुत भाया है तथा उनकी आस्था घर-परिवार व संबंधों  में बढ़ी है। वे हमारे रीति-रिवाज़, धार्मिक मान्यताओं व ईश्वर में अटूट विश्वास की संस्कृति को स्वीकारने लगे हैं। परन्तु हम उन द्वारा परोसी गयी ‘लिव इन’ और ‘ओल्ड होम’ की जूठन को स्वीकार करने में अपनी शान समझते हैं।

आवश्यकता से अधिक किसी वस्तु का सेवन करने का परिणाम घातक होता है। यदि नमक का प्रयोग अधिक किया जाए, तो वह शरीर में अनेक रोगों को जन्म देता है। तनाव के भयंकर परिणामों से कौन परिचित नहीं है…वह सभी जानलेवा रोगों का जनक  है। अहं इंसान का सबसे बड़ा शत्रु है तथा संघर्ष का मूल है। यह सभी जानलेवा रोगों का जनक है। सो! हमें उससे कोसों दूरी बनाए रखनी चाहिए और सोच को सकारात्मक रखना चाहिए। काश! हर इंसान इस भावना, इस मंतव्य को समझ पाता, तो स्त्री अस्मिता का प्रश्न ही नहीं उठता। छोटे-बड़े मिल-जुलकर बुज़ुर्गों के साए में खुशी से रहते व स्वयं को सुरक्षित अनुभव करते…एक-दूसरे के सुख-दु:ख सांझे करते भावनाओं को समझने का प्रयास करते हैंदं, हंसते-हंसाते, मस्ती में झूमते आनंद से उनका जीवन गुज़र जाता। मलय वायु के शीतल, मंद, सुगंधित वायु के झोंके मन को आंदोलित-आनंदित कर  उल्लासित कर, प्रसन्नता व प्रफुल्लता से आप्लावित करते।

 

डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो•न• 8588801878

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सुरेखा शर्मा

बहुत सुंदर सार्थक भावाभिव्यक्ति

Mukta Mukta

साधुवाद।