डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

अतिथि संपादक – ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–26 

(कल आपने डॉ मुक्ता जी के मनोभावों को ई-अभिव्यक्ति: संवाद-25 में अतिथि संपादक के रूप में आत्मसात किया। इसी कड़ी में मैं डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी का हृदय से आभारी हूँ। उन्होने मेरा आग्रह स्वीकार कर आज के अंक के लिए अतिथि संपादक के रूप में अपने उद्गार प्रकट किए।डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी ने  ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–22  के संदर्भ में अपनी बेबाक राय रखी। यह सत्य है कि साहित्यकार को सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता। साहित्यकार भौतिक जीवन के अतिरिक्त अपने रचना संसार में भी जीता है। अपने आसपास के चरित्रों या काल्पनिक चरित्रों के साथ सम्पूर्ण संवेदनशीलता के साथ। डॉ प्रेम कृष्ण जी का  हार्दिक आभार।)

? साहित्यकार को सीमाओं में मत बांधे ?

इसमें कोई संदेह नहीं कि साहित्यकार के पीछे उसका अपना भी कोई इतिहास, घटना/दुर्घटना अथवा ऐसा कोई तथ्य रहता है जो साहित्यकार में  भावुकता एवं संवेदनाएं ही नहीं उत्पन्न करता है, बल्कि उसे नेपथ्य में प्रोत्साहित अथवा उद्वेलित भी करता है, जिसके परिणाम स्वरूप वह रचना को कलमबद्ध कर पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास करता है। इसीलिए कहा गया है “वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान”। परन्तु यह  आवश्यक नहीं है कि उसकी सभी रचनाएँ उसकी आत्मबीती घटनाओं से ही प्रेरित हों।

कवि की कविता सिर्फ उसकी आप बीती और उसकी आत्माभिव्यक्ति ही नहीं होती बल्कि उसके आसपास के अन्य व्यक्तियों के साथ जो कुछ घट रहा होता है, वह उसे भी अपनी संवेदना से महसूस ही नहीं करता है बल्कि अभिव्यक्त करने का प्रयास भी करता है। प्रणयबद्ध पक्षी युगल के प्रातः काल नदी किनारे आखेटक द्वारा तीरबद्ध करने पर उन पक्षियों की पीड़ा के रूप में आदिकवि वाल्मीकि के मुंह से जो अनुभूतियाँ एवं उद्गार सर्व प्रथम साहित्य के असीम अनंत संसार को प्राप्त हुए वह कविता ही तो थी।

जब तक साहित्यकार, चाहे किसी भी विधा में क्यों न हो, अपने हृदय में दबे हुए उद्गार कलमबद्ध कर के पाठकों तक नहीं पहुंचा देता, वह छटपटाता रहता है । गर्भ में पल रहे बच्चे की मनोभावनाओं की कल्पना इतनी सहज एवं आसान नहीं है पर असंभव भी नहीं।  स्त्री कवियित्रि ही उन मनोभावों को किसी पुरुष कवि की परिकल्पना से अधिक सहज स्वरूप दे सकती है क्योंकि वह गर्भ में नौ महीने शिशु को पालती है। ऐसा भी नहीं है क्योंकि पुरूष भी शिशु को नौ महीने पिता के रूप में अपने मन मस्तिष्क में पालता है और अनुभूतियाँ एवं संवेदनाएं शरीर से पहले और शरीर से अधिक मन और मस्तिष्क में उपजती हैं । तभी तो नर और नारी में कामकेलि के पूर्व हृदय में प्रेम उत्पन्न होना आवश्यक है। प्रेम विहीन कामक्रिया तो एक शारीरिक भूख है जो मनुष्य को पशुओं के समकक्ष लाकर खड़ा कर देती है जो हमारे मनुष्य होने पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करती है।

ऐसा भी नहीं है कि पुरुष साहित्यकार नारी की भावनाओं का चित्रण जितना नारी साहित्यकार कर सकती है उतना नहीं कर सकता है और नारी साहित्यकार पुरूषों की भावनाओं का चित्रण उतना बखूबी नहीं कर सकता है जितना कि पुरुष साहित्यकार। प्रेमचंद, शरतचंद, रवीन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र ने अपने साहित्य में नारी भावनाओं का चित्रण पूर्ण संवेदना के साथ बखूबी किया है। इसी प्रकार नारी साहित्यकारों ने भी पुरुषों की भावनाओं का चित्रण भली-भांति किया है। जब साहित्यकार अपने पात्रों का चित्रण करता है तो वह स्वयं को भूल जाता है और अपने द्वारा सर्जित पात्रों की जिंदगी जीता है और उसके पात्र की अनुभूतियाँ एवं संवेदनाएं उसमें पूर्णतया आत्मसात हो जातीं हैं। साहित्यकार की व्यष्टि से समष्टि और समष्टि से इष्ट तक की यात्रा तभी पूर्ण होती है जब वह पुरुष होकर नारी और नारी हो कर पुरूष की भावनाओं एवं संवेदनाओं को महसूस कर अभिव्यक्त कर सकते हैं। इतना ही नहीं प्रेम चंद जैसे साहित्यकारों ने तो पशुओं की भी अनुभूतियों, भावनाओं एवं संवेदनाओं का चित्रण बडी़ ही मार्मिकता से किया है – उनके द्वारा कथ्य दो बैलों की जोड़ी कहानी इस का सटीक उदाहरण है। कृशनचंदर द्वारा सर्जित एक गधे की आत्मकथा भी ऐसा ही एक ज्वलंत उदाहरण है। इसीलिये तो कहा गया है “जहां न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि”। आवश्यकता है तो केवल इस बात की कि साहित्यकार अपने उत्तरदायित्वों को पूरी ईमानदारी से निभाएं क्योंकि साहित्य समाज का सिर्फ दर्पण ही नहीं होता है बल्कि समाज का मार्गदर्शन भी करता है।

इति।

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

(अतिथि संपादक- ई-अभिव्यक्ति)

20 अप्रैल 2019

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Asha

बहुत खुब कहा,सीमाओं में मत बांधों
प्रेम कृष्ण Srivastava, बधाई

Dr. Prem Krishna Srivastav

धन्यबाद आशा। अनंत आसमान है सामने और अनंत लोगों की अनंत अव्यक्त अकथ्य पीड़ाऐं अनुभूतियां और संवेदनाएं हैँ। बगैर किसी अपेक्षा और उपेक्षा के साहित्यकार जब सस्ती लोकप्रियता पाने के लोभ से दूर रह कर जब अपने उत्तरदायित्वों को पूर्ण करता है तभी वह अपनी पीड़ा से बाहर निकल पाता है। धन्यवाद।

अशोक नरूका

I दिवाकर ज्योति सा नित्य नई भावनाओं से ओतप्रोत एवं शुद्ध हिंदी मैं इतनी अच्छी अभिव्यक्ति लिखने वाला मेरा दोस्त प्रेम कृष्ण जिंदगी में इसी तरह निरंतर आगे बढ़ता रहे और अपनी अभिव्यक्ति को और भी मुखर और संवेदनशील बनाता रहे

Dr. Prem Krishna Srivastav

धन्यबाद ।अशोक। आप जैसे मित्र मिले इसके लिए मैं ईश्वर का शुक्रगुजार हूँ। वैज्ञानिक के रूप में भरपूर जिंदगी जीने के पश्चात अब प्रयास रहेगा कि एक साहित्यकार के रूप में समाज, देश, प्राणि, वनस्पति जगत और पर्यावरण के प्रति अपने उत्तरदायित्वों को भी पूर्ण रूप से निभा सकूं।

Sujata Kale

सही कहा है। साहित्यकार अपनी रचना में एकाकार हो जाता है और अभिव्यक्त हो पाता है।

Dr. Prem Krishna Srivastav

धन्यबाद सुजाता।